प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले गुरुवार को एक जोशीला ‘विक्ट्री’ डे भाषण दिया, जिसमें उनका कहना था कि भारतीय जनता पार्टी के प्रति ‘बढ़ता जनसमर्थन’ दर्शाता है कि ‘भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ जनाक्रोश यानी जनता का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. लेकिन भाजपा न केवल गुजरात में सत्ता में थी, जहां उसने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है, बल्कि हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम की कमान भी उसी के हाथ में थी और हालिया चुनाव में इन दोनों ही जगहों पर वो सत्ता से बेदखल हुई है. इसलिए, यह स्पष्ट नहीं है इन तीन चुनावों के नतीजे बढ़ते जनाक्रोश को कैसे दर्शाते हैं.
हमेशा की तरह, प्रधानमंत्री एक बार फिर अपने सहयोगियों को उनके प्रदर्शन पर किसी भी आलोचना से बचाने की कोशिश कर रहे थे. अगले माह कार्यकाल पूरा करने जा रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को विस्तार मिलना लगभग तय है. हालांकि, उनके अपने गृह राज्य हिमाचल में भाजपा की हार—जहां पार्टी ने अभूतपूर्व स्तर पर बगावत का सामना किया—से इसमें कुछ हद तक अनिश्चितता जुड़ सकती है.
वैसे ऐसा जरूरी नहीं है कि चुनावी हार का भाजपा में किसी नेता की राजनीतिक स्थिति पर कोई असर पड़े ही. मसलन, 2017 में अनुभवी पार्टी नेता और हिमाचल में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल को विधानसभा चुनाव में हारने के बाद सीएम की कुर्सी से वंचित कर दिया गया था. दूसरी तरफ, 2022 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी विधानसभा चुनाव हारे लेकिन उन्हें फिर से सीएम बना दिया गया.
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भाजपा के लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है निष्ठा
इसलिए जरूरी नहीं कि नड्डा का राजनीतिक भविष्य उनके गृह राज्य की हार से तय हो. वैसे भी, आज सिर्फ भाजपा ही नहीं अन्य पार्टियों में भी जवाबदेही नहीं बल्कि निष्ठा ज्यादा मायने रखती है. और पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के प्रति नड्डा की वफादारी तो निर्विवाद है. मोदी ने गुरुवार को यह बताने के लिए कि हिमाचल प्रदेश में लोग पार्टी को वोट देना चाहते थे, पार्टी अध्यक्ष के ही तर्क का सहारा लिया कि राज्य में भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर के बीच ‘एक प्रतिशत से कम का ही अंतर’ रहा है.
हालांकि, मोदी को इसकी सच्चाई अच्छी तरह पता होगी. तथ्य यह है कि इस बार भाजपा का वोट शेयर करीब छह प्रतिशत घटा है—जो 2017 में 48.79 प्रतिशत की तुलना में घटकर 43 प्रतिशत पर पहुंच गया.
जहां तक बात गुजरात में ऐतिहासिक जीत की है तो मोदी को दिल से आम आदमी पार्टी का आभार जताना चाहिए. अगर आप सत्ता विरोधी वोटों में सेंध लगाने के लिए मौजूद नहीं होती, तो कांग्रेस को 33 और सीटें मिलतीं और भाजपा की सीटें घटकर 123 पर पहुंच जातीं.
वहीं, अगर कांग्रेस यह चुनाव गंभीरता से लड़ती तो अंतर और भी कम हो सकता था. इसलिए, मोदी को राहुल गांधी का और भी अधिक आभारी होना चाहिए.
खुद को राजनीति से अलग करने और भारत जोड़ो यात्रा पर निकलने से बहुत पहले ही उन्होंने वस्तुतः यह सुनिश्चित कर लिया था कि पाटीदार भी कांग्रेस से किनारा कर लें. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, प्रभावशाली पाटीदार नेता और खोडलधाम ट्रस्ट के अध्यक्ष नरेश पटेल कांग्रेस नेता से मिलने दिल्ली आए थे. उन्होंने कांग्रेस के सामने गठबंधन की कुछ शर्तें रखी थीं.
अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि गांधी ने मिलने से पहले पटेल को करीब आधे घंटे इंतजार कराया. उन्होंने पटेल की बातें चुपचाप सुनीं, और फिर ‘ओके’ कहकर उठे और चले गए. इसके बाद पटेल को उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. कुछ हफ्ते बाद अक्टूबर 2022 में पाटीदार नेता ने मोदी से मुलाकात की. नतीजा, सबके सामने ही है.
अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी के योगदान के अलावा गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की लगातार सातवीं जीत जश्न मनाने लायक है, जो कि राज्य में मोदी के अपराजेय होने का प्रमाण है.
हालांकि, पीएम के लिए सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि भाजपा के करोड़ों नए सदस्य विधानसभा चुनावों में पार्टी के लिए वोट करते नहीं दिख रहे.
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भाजपा के सदस्यता आंकड़े क्यों बने पहेली
20 अगस्त 2019 को भाजपा का सदस्यता अभियान पूरा होने के समय पार्टी के 18 करोड़ सदस्य हो गए थे, जैसी तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने घोषणा की थी. यह आंकड़ा 2015 में पार्टी सदस्यों की तुलना में सात करोड़ अधिक था.
उसी वर्ष अगस्त के अंतिम हफ्ते में, जब भाजपा का एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया तो उसे यह देख सुखद आश्चर्य हुआ कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) भाजपा के सदस्यता अभियान के बारे में जानने को लेकर काफी उत्सुक थी.
2015 में भाजपा 11 करोड़ सदस्यों के पंजीकरण के साथ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई, जो संख्या सीपीसी से 2.2 करोड़ अधिक है. फिर अगस्त 2019 में भाजपा ने दावा किया कि उसकी सदस्य संख्या 18 करोड़ पर पहुंच गई है, जो आंकड़ा उसके पिछले सदस्यता अभियान की तुलना में करीब 64 प्रतिशत से अधिक वृद्धि को दर्शाता है.
यह देखते हुए कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 22.90 करोड़ वोट हासिल किए थे, यह निष्कर्ष निकाला गया कि मोदी को वोट देने वालों में करीब 78 प्रतिशत भाजपा के सदस्य रहे होंगे.
हालांकि, विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिल रहे वोट उसकी सदस्यता के आंकड़ों में वृद्धि के साथ मेल नहीं खाते हैं.
उदाहरण के तौर पर, हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों को देखें. 2017 के चुनाव में भाजपा को 18.46 लाख वोट मिले और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसका वोट शेयर बढ़कर 26.61 लाख हो गया. 2022 के चुनाव में यह घटकर महज 18.14 लाख रह गया. गुजरात में भाजपा को इस बार 1.67 करोड़ वोट मिले जो 2017 के चुनावों की तुलना में 20 लाख अधिक हैं. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सदस्यता में 64 प्रतिशत की वृद्धि के लिहाज से यह आंकड़ा बहुत कम नजर आता है. और यह स्थिति तब है जबकि दोनों राज्य भाजपा के गढ़ हैं जहां इसका सदस्यता अभियान काफी मजबूत रहा होना चाहिए.
पहली नजर में यह बात कुछ ज्यादा ही चौंकाने वाली लग सकती है क्योंकि ऐसा जरूरी तो नहीं कि हर राज्य में सदस्य संख्या और मतदाताओं के आंकड़ों में एक समान ही वृद्धि हो. संभव है कि भाजपा सदस्यों में 64 प्रतिशत की वृद्धि कुछ राज्यों में बहुत अधिक वृद्धि और कुछ अन्य में अपेक्षाकृत कम पंजीकरण का नतीजा हो.
तो आइये, भाजपा के वर्चस्व वाले ऐसे राज्यों पर नजर डालें जहां अधिक पंजीकरण की उम्मीद की जा सकती है. 2014 के विधानसभा चुनाव में हरियाणा में भाजपा को 41.25 लाख वोट मिले थे. और भाजपा के दूसरे सदस्यता अभियान से कुछ सप्ताह पहले 2019 के लोकसभा चुनावों में राज्य में 73.57 लाख लोगों ने अपना वोट भाजपा को दिया, जो राष्ट्रीय स्तर पर सदस्यता आंकड़े में कुल 64 फीसदी वृद्धि से कहीं अधिक है.
हालांकि, 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के वोट घटकर 45.69 लाख रह गए जो एक भारी गिरावट है. यह न तो सदस्यता के आंकड़ों में वृद्धि को दर्शाता है और न ही मोदी वोटर्स-भाजपा सदस्यों के कन्वर्जन रेशियो के अनुरूप है. तो, आखिरकार हरियाणा में पंजीकृत भाजपा सदस्य कहां गए?
झारखंड में भी भाजपा वोटर्स से जुड़े आंकड़े इसी तरह के सवाल खड़े करते हैं. 2014 के विधानसभा चुनाव में 43 लाख वोट मिले, और 2019 के लोकसभा चुनाव में 76 लाख और फिर उसी साल कुछ महीने बाद विधानसभा चुनावों में 50 लाख. दिल्ली में भाजपा को मिले वोट भी इसी तरह पहेली बने हैं—2015 (विधानसभा) में 28.90 लाख, 2019 (लोकसभा) में 49 लाख और 2020 (विधानसभा) में 35.75 लाख.
अब, कोई भी तर्क दे सकता है कि लोग लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग धारणा के साथ मतदान करते रहे हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि जो लोग खुद को भाजपा सदस्य के तौर पर पंजीकृत कराते हैं, उनसे तो आमतौर पर सभी चुनावों में इसी पार्टी को वोट देने की उम्मीद की जाती है.
भाजपा के गढ़ों में क्या दर्शाता है वोट शेयर
तस्वीर को स्पष्ट तौर पर समझने के लिए भाजपा के गढ़ माने जाने वाले कुछ अन्य राज्यों की स्थिति भी देख सकते हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 2014 (लोकसभा) में 3.43 करोड़ वोट हासिल किए, और उसे 2017 (विधानसभा) में 3.44 करोड़ वोट, 2019 (लोकसभा) में 4.28 करोड़ वोट और 2022 (विधानसभा) में 3.80 करोड़ वोट मिले.
माना जा सकता है कि यूपी में अन्य राज्यों की तुलना में अधिक भाजपा सदस्य जुड़े होंगे. लेकिन 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या में महज 36 लाख का ही अंतर रहा है. इस तरह ये आंकड़ा भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा सदस्यों की संख्या 64 प्रतिशत बढ़ने के अनुरूप नजर नहीं आता है.
तो, सदस्यता आंकड़े में यह अप्रत्याशित वृद्धि आखिर हुई कहां से थी? कौन-से राज्य में? दिप्रिंट ने कम से कम एक दर्जन राज्यों में भाजपा के मतदाताओं के आंकड़ों को देखा, और उसे मिले वोटों का आंकड़ा सदस्यता में 64 प्रतिशत की वृद्धि के साथ कतई मेल नहीं खाता. दूर-दूर तक भी नहीं.
उत्तराखंड में 2017 के विधानसभा चुनाव में 23.19 लाख लोगों ने भाजपा को वोट दिया. और 2022 में यह आंकड़ा 23.84 लाख रहा.
ऐसे में, यह सवाल उठना लाजिमी है, कहां गए ये ‘नए’ भाजपा सदस्य? भाजपा के वोट बैंक में गिरावट की बात समझ आती है लेकिन 2015 और 2019 के बीच भाजपा से जुड़े नए ‘सदस्यों’ से तो पार्टी के लिए वोट करने की उम्मीद की ही जाती है. जाहिर है कि कहीं न कहीं कुछ खेल है. एकमात्र राज्य जहां भाजपा सदस्य संख्या में वृद्धि (राष्ट्रीय स्तर के अनुरूप) सटीक नजर आई, वो पश्चिम बंगाल है.
यहां 2016 में 55.55 लाख भाजपा मतदाता थे, और 2021 में आंकड़ा बढ़कर 2.29 करोड़ हो गया. यह राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा सदस्यों की संख्या 64 प्रतिशत बढ़ने से कही ज्यादा था. लेकिन एक राज्य में यह वृद्धि देशभर में भाजपा सदस्यों की संख्या—जो 2015 से 2019 के बीच सात करोड़ बढ़ी—और बाकी राज्यों में इसकी तुलना में मिले कम वोटों की पूरक नहीं हो सकती है.
भाजपा सदस्यों और पार्टी को मिले वोटों के आंकड़ों की तुलना के उद्देश्य से कोई भी भाजपा सदस्यों के बारे में 2015 और 2019 का राज्यवार या विधानसभा-वार डेटा हासिल नहीं कर सकता. पार्टी ने इस बारे में पूरी गोपनीयता बना रखी है.
बहरहाल, हो सकता है कि कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में उलटफेर और खराब प्रदर्शन को देखकर मोदी पार्टी के मुख्य रणनीतिकार शाह से आंकड़ों की यह पहेली सुलझाने को कहें. आखिरकार ‘दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी’ के इतने सारे ‘सदस्य’, जिन्हें वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध माना जा सकता है, विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाला काम तो नहीं कर सकते! भाजपा के लिए बहुत जरूरी है कि उसके ये कागजी शेर सामने आएं और चुनावों के दौरान मतदाताओं में तब्दील होते दिखें, बशर्ते वो मौजूद हों.
(लेखक दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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(अनुवाद: रावी द्विवेदी)
(संपादन: अलमिना खातून)
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