असम-मिजोरम सीमा विवाद फिलहाल भले शांत हो गया हो लेकिन इसने प्रगति की राह पर चलने और विवादों के दलदल से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे दो उत्तरपूर्वी राज्यों को जो नुकसान पहुंचाया है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.
नरेंद्र मोदी की भाजपा ने जबसे असम की बागडोर संभाली है तब से यह राज्य राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) से लेकर नागरिकता कानून (सीएए), मवेशी सुरक्षा विधेयक, जनसंख्या नियंत्रण नीति, सांप्रदायिकता के उभार और अब सीमा को लेकर खूनखराबा और मिजोरम के साथ तनाव तक एक के बाद एक विभाजनकारी विवादों में उलझता रहा है.
लेकिन उसे एनआरसी को लेकर जातीय विभाजन को और गहरा करने, सांप्रदायिक विवादों को उकसाने और क्षेत्रीय तनाव को और गंभीर बनाने की जरूरत नहीं है. इस राज्य ने स्थिरता और विकास की उम्मीद में भाजपा को दो बार चुनाव जिताया है. स्थिरता और विकास राजनीति के घिसे-पिटे शब्द भले लगते हों लेकिन मतदाता जब वोट डालने जाते हैं तब उनके दिमाग में ये दो कसौटियां जरूर होती हैं, खासकर उस राज्य में जिसने जातीय हिंसा झेली हो और देश की कथित ‘मुख्यधारा’ से कटा रहा हो.
असम में भाजपा ने लोगों की इस अपेक्षा को पूरा करने का वादा किया था कि वह उसे हाशिये पर से खींचकर ‘विकास’ के दायरे में लाएगी. लेकिन पुराने जख्मों को कुरेद कर, नये जख्म देकर और असम को झगड़े में उलझा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने इस राज्य का और उनमें भरोसा जताने वाले मतदाताओं का भारी अहित ही किया है.
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टकरावों की कड़ी
असम में एनआरसी का संशोधन सुप्रीम कोर्ट का आदेश था, जो किसी भी दृष्टि से एक गलत कोशिश थी. लेकिन यह कोशिश इसी तरह की गई, पहले इसे परोक्ष रूप से और फिर खुल कर सांप्रदायिक रंग दिया गया और फिर इसे सीएए के साथ जोड़ दिया गया, जिसने वास्तव में नुकसान पहुंचाया.
असम में जातीय विभाजन पुराना और गहरा है लेकिन समय के साथ वे जख्म और दरारें काफी हद तक भर गई थीं. धीरे-धीरे एक नया असम उभर रहा था. लेकिन एनआरसी ने असमी बनाम ‘बाहरी’ विवाद को फिर उभार दिया और इस बार केंद्र तथा राज्य में भाजपा के सत्ता में आने के बाद ‘बाहरी’ को जातीय की जगह सांप्रदायिक नज़र से परिभाषित किया गया. सीएए ने मसले को और खराब कर दिया.
लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा असम को अराजकता और टकराव के भंवर में ही उलझाए रखना चाहती है. वरना और क्या कारण हो सकता है कि मुख्यमंत्री सरमा ने महामारी के बीच मवेशी सुरक्षा और जनसंख्या नियंत्रण जैसे मुद्दों को बहुसंख्यकवाद के रंग में रंग कर उठाया.
सरमा ने कहा कि ‘मुस्लिम बहुल इलाकों में जनसंख्या नियंत्रण के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए ‘जनसंख्या सेना’ का गठन किया जाएगा.’ उन्होंने यह भी कहा कि राज्य में हिंदुओं और मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की दरों में ‘खतरनाक‘ अंतर है. सांप्रदायिकता को उभारना राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से अगर सुविधाजनक है तो यह क्यों न किया जाए और राज्य के सामाजिक तानेबाने को नुकसान की क्यों परवाह की जाए.
मानो जातीय और सांप्रदायिक तनाव काफी न थे, असम सीमा विवाद में उलझ गया और जैसी कि मेरी सहयोगी अनन्या भारद्वाज और प्रवीन जैन ने सीमावर्ती शहर वारांगते से खबर भेजी है, इस टकराव में वह ‘विलन’ बनकर उभरा है. सीमा पर गोलीबारी में असम पुलिस के छह जवान मारे गए. वैसे, मिजोरम भी इस सबके के लिए दोषी है. लेकिन स्थिति तब बिगड़ी जब सरमा ने उकसाऊ, आक्रामक और अहंकारी रुख अपनाते हुए दूसरे पक्ष को ‘गुंडा’ घोषित कर दिया, भड़काऊ वीडियो जारी किए और अप्रत्याशित रूप से उग्र रुख अपनाते हुए मिजोरम के खिलाफ यात्रा निर्देश जारी कर दिया.
After killing 5 Assam police personnel and injuring many , this is how Mizoram police and goons are celebrating.- sad and horrific pic.twitter.com/fBwvGIOQWr
— Himanta Biswa Sarma (@himantabiswa) July 26, 2021
सीमा विवाद असम के लिए कोई नयी बात नहीं है. मिजोरम, मेघालय, नागालैंड इसे काट कर ही बनाए गए, सीमाएं अस्पष्ट रहीं और मसले अनसुलझे रहे. लेकिन राज्य को राजनीतिक संवाद और मसलों का शांतिपूर्ण निपटारा चाहिए, सरकारों और ट्विटर प्रेमी नेताओं के भड़काऊ बयान नहीं चाहिए, जो नयी जटिलताएं पैदा करते हैं.
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असम को क्या चाहिए
असम ने 1970, 1980, 1990 के दशकों में बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन से लेकर ‘उल्फ़ा’ के उभार और 1983 में नेल्ली नरसंहार जैसी हिंसा तक झेली. टकरावों, भूगोल और जटिल सामाजिक तानेबाने ने असम को उस सबसे वंचित कर दिया जिसे ‘सामान्य’ कहा जाता है.
लेकिन असम अब बदल रहा था. वह टकराव और पहचान के मसलों से बाहर निकलकर अपने लिए एक भविष्य बनाना चाहता था. उसने इस साल के शुरू में हुए चुनाव में भाजपा के इस वादे पर भरोसा करते हुए उसे फिर से सत्ता सौंप दी कि वह इन्फ्रास्ट्रक्चर और जनकल्याण के मोर्चे पर काम करेगी. 2019 के लोकसभा चुनाव और खासकर 2021 के विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य का दौरा करते हुए मैंने पाया कि मतदाता भाजपा के दो कामों, ‘रास्ता अरु दोलोंग’ (सड़क और पुल) का खासकर जिक्र कर रहे थे.
पीढ़ियां जिस चीज- जातीय पहचान के लिए लड़ती रहीं उससे वह आगे बढ़ने को तैयार था. राज्य के लोग वही चाह रहे थे जो कोई भी मतदाता चाहता है- सड़क, जनकल्याण, विकास. जातीय पहचान बड़ी, राष्ट्रीय पहचान में समाहित हो गई थी, जिसके साथ भाजपा ने सांप्रदायिक ठप्पा जोड़ दिया लेकिन असम को धुर हिंदुत्ववाद समर्थक राज्य बना पाने में विफल रही. असम स्थिरता की तलाश में था और ‘सुशासन’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे नारों के साथ मोदी यह देने का वादा कर रहे थे.
लेकिन इसकी जगह असम को एक ऐसा नेतृत्व मिला, जिसे लगता है कि एक के बाद एक विभाजनकारी, भड़काऊ कदम ही आगे बढ़ने का रास्ता है, एक ऐसा नेतृत्व जो इस बात में विश्वास रखता है कि अस्थिरता पैदा करना, सामाजिक सदभाव को भंग करना, बहुसंख्यकवादी मुद्दे उठाना और उत्तरपूर्व के दूसरे राज्यों के लिए ‘बिग ब्रदर’ की धौंस दिखाना ही ‘मजबूत’ सरकार की निशानी है.
असम के मामले में भाजपा का जो रुख है उससे इसके मतदाताओं को जो नुकसान हो रहा है वह आज भले साफ न दिख रहा हो लेकिन वह प्रगति तथा शांति के रास्ते पर आगे बढ़ने की उसकी संभावनाओं को खराब ही करेगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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