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Friday, 15 August, 2025
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असीम मुनीर की ख्वाहिश—मिडिल ईस्ट का सरपरस्त बनना, लेकिन मुल्क में हार तय

आतंकवाद से निपटने के लिए पाकिस्तान सेना को ऐसी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी, जो केंद्र के नेताओं को सीमावर्ती इलाकों से जोड़ सके. लेकिन शायद उसके पास इसके लिए जरूरी कल्पनाशक्ति न हो.

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चश्मदीदों को बाद में याद आया कि रात बहुत ठंडी थी, जब वे लोग स्वात ज़िले के मिंगोरा शहर में पश्तो लोक नर्तकी शबाना के घर पहुंचे. वे तब तक दरवाज़ा पीटते रहे जब तक वह बाहर नहीं आ गई. उन्होंने उसकी मां के उन वादों को नज़रअंदाज़ कर दिया कि वह शबाना को फिर कभी नाचने-गाने नहीं देंगी, और उसे घसीटकर ग्रीन स्क्वायर की ओर ले गए. अगली सुबह उसका शव गोलियों से छलनी और गला कटा हुआ मिला. उसके शरीर पर नोटों और उसकी संगीत सीडी का कफ़न लिपटा हुआ था.

रिसर्चर जॉन ब्रेथवेट और बीना डी’कोस्टा ने दर्ज किया है कि महीनों तक ये हत्याएं होती रहीं. अफ़साना, जो अपने शरणार्थी परिवार का समर्थन करने के लिए शादी समारोहों में गाती थीं, की 2010 में हत्या कर दी गई थी. एक और लोकप्रिय 24 वर्षीय पश्तो गायिका ग़ज़ाला जावेद की 2012 की गर्मियों में पेशावर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

पिछले हफ़्ते, पाकिस्तान के बाजौर, जो उन सात क्षेत्रों में सबसे उत्तरी और सबसे छोटा है जिन्हें कभी संघीय प्रशासित कबायली क्षेत्र कहा जाता था, के निवासी अपने इलाके में हिंसा के फिर से उभार को रोकने के लिए बातचीत कर रहे थे. 2008 में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के जिहादियों द्वारा इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद, सेना ने एक क्रूर अभियान चलाया जिसमें हज़ारों लोगों की जान चली गई और लगभग 3,00,000 लोगों को शरणार्थी शिविरों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

हालांकि, पिछले हफ़्ते कई दिनों की बातचीत के बाद, टीटीपी ने अफ़ग़ानिस्तान में वापस जाने से इनकार कर दिया. और हेलीकॉप्टर, गनशिप, तोपखाने और ड्रोन ने एक बार फिर विद्रोहियों के गढ़ों पर हमला करना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में लोग शरणार्थी शिविरों में वापस आ गए हैं.

जिहादियों ने इस क्षेत्र की अनूठी समन्वयवादी संस्कृति को खत्म करने के लिए आतंक का इस्तेमाल किया था, लेकिन अब असली ताकत उनके हाथ में है—और उनका शरिया-शासित अमीरात को बिना लड़े छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. सवाल यह है: जैसे फील्ड मार्शल असीम मुनीर पश्चिम को इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा के खिलाफ दूरगामी लड़ाई लड़ने के लिए पाकिस्तानी सेना की साझेदारी की पेशकश कर रहे हैं, क्या वे अब भी उस वियतनाम को जीत सकते हैं जिसे पाकिस्तान का अपना कहा जाता है?

कीचड़ के अमीरात

पीछे मुड़कर देखें तो, 2008 के शांति समझौतों का टूटना तय था. पत्रकार दाउद खट्टक ने लिखा है कि ये समझौते पाकिस्तानी सेना और जिहादियों के बीच हुए थे, जिनमें पारंपरिक कबायली नेतृत्व शामिल नहीं था. टीटीपी के सदस्यों में नई पीढ़ी के युवा शामिल हो गए, जिनकी बंदूकें ज़मीनों पर कब्ज़ा करने और व्यवसायों से पैसे ऐंठने का ज़रिया बन गईं. कीचड़ का हर अमीरात आतंक के ज़रिए हासिल की जा सकने वाली कमाई पर चलता था, और टीटीपी ने खुद को एक छोटे-से राज्य का संरक्षक बना लिया.

शुरू से ही, टीटीपी ने इस क्षेत्र पर अपना दबदबा कायम कर लिया और राज्य को हाशिए पर धकेल दिया. लड़कियों के स्कूल, जिनकी संख्या अनुमानित 27 थी, डायनामाइट से उड़ा दिए गए. लड़कों के 65 और स्कूल, साथ ही दो कॉलेज भी, ध्वस्त कर दिए गए. बाजौर के निवासियों ने जो थोड़ी-बहुत उपलब्धियां हासिल की थीं, वे छह महीने से भी कम समय में खत्म हो गईं.

टीटीपी ने लूट का माल भुनाने के लिए भी तेज़ी से कदम बढ़ाए. जबरन वसूली ने सामान्य कर ढांचे की जगह ले ली. 2008 में शुरू किए गए ऑपरेशन शेरदिल के प्रमुख तत्वों में से एक जिहादियों को स्थानीय अर्थव्यवस्था में उनकी आय के स्रोतों से अलग करना था. ब्रेथवेट और डी’कोस्टा बताते हैं कि यह योजना कामयाब रही—यह बेहद कारगर रही.

बाजौर में अंडा और मुर्गी पालन व्यवसाय चौपट हो गया, और मालिकों के भाग जाने के कारण पशुधन आवारा कुत्तों के लिए छोड़ दिया गया. सेना और टीटीपी के बीच लड़ाई बढ़ने पर, अनायत कल्ली में हज़ारों दुकानें तोपों की गोलीबारी में जला दी गईं. संतरे, बेर, आड़ू, खुबानी और ख़ुरमा उगाने वाले फलों के बाग़ों को छोड़ना पड़ा. आजीविका का एक और महत्वपूर्ण स्रोत, संग-ए-मरमर का व्यवसाय, चौपट हो गया.

टीटीपी अफ़ग़ानिस्तान में पीछे हट गया—और 2021 में काबुल में इस्लामिक अमीरात के सत्ता में आने के बाद ही वापस लौटा. इस बार, पाकिस्तान की आईएसआई को उम्मीद थी कि इस्लामिक अमीरात टीटीपी पर लगाम लगाएगा. लेकिन या तो वह ऐसा कर नहीं सका या करना ही नहीं चाहता था. हिंसा का चक्र फिर से शुरू हो गया। स्थानीय वार्ताकारों, जिन्होंने टीटीपी और सेना, दोनों को क्षेत्र छोड़ने के लिए मनाने के लिए संघर्ष किया, को दोनों पक्षों ने नज़रअंदाज़ कर दिया. और सैन्य अभियानों के फिर से शुरू होने से शरणार्थियों का एक और पलायन शुरू हो गया है.

इस बात के बहुत कम प्रमाण मौजूद हैं कि सेना और आबादी के बीच तनाव कम हो रहा है. पिछले महीने, सैनिकों ने उन प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं जो एक सैन्य शिविर में मोर्टार हमले में सात साल की बच्ची की हत्या पर अपना गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए इकट्ठा हुए थे. एक लीक हुए वीडियो से यह बात साबित होती है कि स्थानीय सैनिकों ने जवाब में सात निहत्थे प्रदर्शनकारियों को मार डाला.

आतंक की जड़ें

भारत और उसके पड़ोस में कई बगावतों की तरह, बाजौर में जिहादियों का उभार राज्य की मदद से हुआ. 1947 में कश्मीर को लेकर युद्ध की ओर बढ़ते समय, इस इलाके के कबीलों को महाराजा हरि सिंह की सेनाओं के खिलाफ लड़ने के लिए भर्ती किया गया. सैन्य बल, नागरिक प्रशासन और धार्मिक विद्वान—इन सभी ने इस प्रयास का समर्थन किया, विद्वान हुसैन हक्कानी ने लिखा है. प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकार ने भी इन समूहों को समर्थन दिया, जिन्होंने इस्लामवादियों को अफगानिस्तान में राष्ट्रपति मोहम्मद दाउद ख़ान की वामपंथी सरकार को कमजोर करने का एक साधन माना.

विद्वान हुसैन असफ़ के अनुसार, इस प्रक्रिया ने “इस्लाम, पाकिस्तान और सेना के बीच एक द्वंदात्मक संबंध” पैदा किया. बिना इस्लाम के, पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं होता. बिना पाकिस्तान के, सेना का अस्तित्व नहीं होता. और बिना सेना के, इस्लाम और पाकिस्तान खतरे में पड़ जाते. इस तरह की स्थिति को बनाए रखते हुए, सेना इस्लाम को बनाए रख रही थी.

लेकिन इस नीति के अनचाहे नतीजे निकले. उस समय जिसे एनडब्ल्यूएफपी (उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत) कहा जाता था, आज का ख़ैबर पख़्तूनख़्वा, वहां एक नए तरह के संघर्ष-व्यवसायी नेता पैदा हुए. पश्चिमी हथियारों से लैस और सऊदी अरब व सीआईए द्वारा आईएसआई के ज़रिए वित्तपोषित, इस नए राजनीतिक वर्ग ने पारंपरिक कबायली नेतृत्व को किनारे कर दिया.

1979 से, जब सोवियत हस्तक्षेप से बचने के लिए शरणार्थी बाजौर में आने लगे, आईएसआई ने शिविरों से लड़ाकों की भर्ती शुरू कर दी. बाद में, 1989 में, सात इस्लामिक पार्टियों के नेताओं ने लोअर दिर के मैदान में मुलाकात की और तहरीक-ए-निफ़ाज़-ए-शरीअत-ए-मुहम्मदी—पैगंबर के कानून की रक्षा के लिए संगठन—का गठन किया. जमात-ए-इस्लामी के सूफ़ी मुहम्मद को नए गठबंधन का प्रमुख नियुक्त किया गया.

विद्वान किरमत उल्लाह, मुहम्मद अयाज़ ख़ान और तारिक अनवर ख़ान ने लिखा है कि इस गठबंधन ने खर, नवागई और पाशत के पारंपरिक मुखियाओं का अंत कर दिया. इसने पूरे पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टियों की गतिविधियों को भी रोक दिया. इसके बजाय, अफगानिस्तान में जिहादी अभियान बाजौर की राजनीति का केंद्र बन गया. हवाई हमलों में स्थानीय निवासियों की हत्याओं और बाद में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के जिहादियों के खिलाफ हो जाने से, इन जिहादियों ने राज्य को चुनौती दी.

इनमें सबसे प्रमुख जिहादी नेता फ़क़ीर मुहम्मद ने 2008 में आंदोलन की कमान संभाली. एक सैन्य अभियान ने उसे बाहर कर दिया—हालांकि इसका नागरिकों पर भारी असर पड़ा—लेकिन जल्द ही टीटीपी वापस आ गई, फिर अपने छोटे-छोटे अमीरात पर नियंत्रण का दावा करने लगी.

आग की लपटें

2008 से, पूरे इलाके में नए लोकतांत्रिक आंदोलन शुरू हुए, जो मौत के दस्तों, गैर-न्यायिक हत्याओं और सेना द्वारा बड़े पैमाने पर बल प्रयोग को खत्म करने की मांग कर रहे थे. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में पश्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन उभरा, जिसने पाकिस्तान के संविधान के तहत अधिक लोकतांत्रिक अधिकार और स्वतंत्रता की मांग की. लेकिन सेना ने इसे कुचल दिया, क्योंकि उसे डर था कि लोकतांत्रिक आंदोलन उन जिहादी दलालों को कमजोर कर देंगे जिनके ज़रिए वह इस क्षेत्र पर शासन करती थी.

पाकिस्तान के सैन्य कमांडरों के लिए, जिहादी साथी अब भी सहयोगी थे—ऐसे सहयोगी जिन्हें दबाने और अनुशासित करने की ज़रूरत पड़ सकती थी, जैसे औपनिवेशिक दौर में ब्रिटिश किया करते थे—लेकिन सहयोगी फिर भी थे. इतिहासकार एलिज़ाबेथ कोल्स्की के अनुसार, उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश शासन के पहले 30 वर्षों में 40 से अधिक दंडात्मक अभियान चलाए गए, जिनमें फसलें नष्ट की गईं, मवेशी मार डाले गए और पूरे गांव जला दिए गए.

यह वही रणनीति है जिसे पाकिस्तान अन्य हिंसा-ग्रस्त सीमा क्षेत्रों में भी अपना रहा है. सरकार ने मजीद ब्रिगेड—जो बलूच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) के तहत लड़ने वाले सबसे आक्रामक विद्रोही समूहों में से एक है—को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है, लेकिन इससे ज़मीनी हकीकत में ज्यादा बदलाव नहीं आया. ईरान के झोब से संचालित बलूच समूहों के खिलाफ भीषण लड़ाई की खबरें आई हैं. पाकिस्तान सेना का दावा है कि हालिया अभियानों में बीएलए के 50 सदस्य मारे गए, जबकि उसके अपने नौ जवान भी मारे गए.

राजनीतिक वैधता और वास्तविक राजनीतिक समर्थन आधार के अभाव में, फील्ड मार्शल मुनीर असफल होने के लिए ही बने हैं, जैसे उनके पूर्ववर्ती असफल हुए. 2009-2010 में, विद्रोह को रोकने के लिए, जाहिद अली ख़ान के अनुमान के अनुसार, पाकिस्तान ने करीब 1,40,000 सैनिक और फ्रंटियर कॉर्प्स के जवान तैनात किए थे. अगर फील्ड मार्शल मुनीर को मध्य पूर्व का रक्षक बनने की महत्वाकांक्षा भी है, तो यह संख्या टिकाऊ नहीं है.

आगे का रास्ता खोजने के लिए पाकिस्तान सेना को सिर्फ सामरिक कौशल ही नहीं, बल्कि ऐसी राजनीतिक इच्छा भी दिखानी होगी जो केंद्र के नेताओं को जलते हुए सीमा क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के साथ सार्थक गठजोड़ में बांधे. लेकिन पाकिस्तान सेना के इतिहास में ऐसा कुछ कम ही दिखता है जिससे यह लगे कि उसके पास इस तरह के प्रयास के लिए कल्पनाशक्ति है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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