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Saturday, 21 December, 2024
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अशोक गहलोत अपने नए अवतार में चार दशकों की अपनी राजनीति के खातिर कुछ भी कर सकते हैं

राजस्थान के मुख्यमंत्री के करीबी लोगों के अनुसार नई आक्रामकता उनके स्वभाव से मेल नहीं खाती. पर एक युवा कांग्रेसी नेता द्वारा चुनौती दिए जाने के बाद अपनी राजनीति के प्रति अशोक गहलोत की प्रतिबद्धता और बढ़ गई है.

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राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही एक जादूगर के बेटे हों, लेकिन वह इतनी आसानी से मंच से गायब नहीं होने वाले, जैसा कि उनके विरोधी शायद चाहते हों. वह बर्खास्त किए गए अपने डिप्टी सचिन पायलट के विद्रोह का सामना कर रहे हैं, बावजूद इसके वह कड़े बयान जारी करने से कतराते नहीं. शुक्रवार को राज्यपाल कलराज मिश्र ने जब विधानसभा की बैठक बुलाने से इनकार किया तो गहलोत ने उनके निवास का ‘घेराव’ करके शक्तिप्रदर्शन किया.

पायलट को निकम्मा कहने से लेकर राज्यपाल मिश्र पर टालू रवैया अपनाने का आरोप लगाने और अपने विधायकों से गांधीवादी तरीका अपनाने का आग्रह करने तक राजस्थान के मुख्यमंत्री अपने राजनीतिक टूलबॉक्स के सारे औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इस कारण से, अशोक गहलोत दिप्रिंट के ‘न्यूज़मेकर ऑफ द वीक’ हैं.

‘स्मार्ट’ नेता

1985 में पहली बार राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने के बाद 34 वर्षीय अशोक गहलोत पार्टी के बड़े नेताओं का आशीर्वाद लेने गए थे, जिनमें मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी और उनके पूर्ववर्ती शिवचरण माथुर शामिल थे.

सीनियर नेताओं के सामने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर गहलोत ने कहा, ‘हूं तो मैं आप ही का बच्चा, आपके आशीर्वाद से ही काम कर पाऊंगा.’

उसके बाद गहलोत 1994 और 1997 में दो बार फिर कांग्रेस का राजस्थान प्रमुख बने और अंतत: 1999 में उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की.

अशोक गहलोत के पूर्व सलाहकार रमेश बोराना ने दिप्रिंट को बताया, ‘इस तरह वो स्मार्ट थे. उन्हें पता था कि पार्टी में आगे बढ़ने के लिए उन्हें राज्य में अपने सीनियरों के साथ मिलकर चलना होगा, उनसे टकराव या विरोध से बचना होगा.’

गहलोत के जीवन को एक बाहरी व्यक्ति के व्यवस्था में अपनी जगह बनाने और फिर सत्ता के शीर्ष सोपान तक पहुंचने का एक बेहतरीन उदाहरण माना जा सकता है. लेकिन खुद गहलोत के ही अनुसार, यदि युवावस्था में ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उन पर नज़र नहीं पड़ी होती तो वह अपने पिताजी वाला पेशा- जादूगरी- अपना चुके होते. जोधपुर में पैदा हुए गहलोत पर इंदिरा गांधी की नज़र तब पड़ी जब एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में वह 1971 के युद्ध के शरणार्थियों को राजस्थान में बसाने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे.

जोधपुर विश्वविद्यालय में कानून के छात्र गहलोत को 1973 में नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) का राजस्थान प्रमुख चुना गया. इस पद पर रहते हुए ही गहलोत हाईकमान की नज़रों में आए और उन्हें 1977 के लोकसभा चुनावों के लिए पहली बार टिकट मिला.

कांग्रेस का ये कदम पूरी तरह ‘जोखिम’ से भरा था: गहलोत राजपूत या जाट समुदाय- राजस्थान में वोट पाने वाली परंपरागत जातियां- से नहीं थे, बल्कि उऩका संबंध माली समुदाय से था. उनके पास किसी बड़े संस्थान की डिग्री नहीं थी, और अंग्रेजी उनकी जुबान पर आसानी से नहीं चढ़ पाती थी- कुल मिलाकर, गहलोत उस दौर के अनेक कांग्रेसी नेताओं के बिल्कुल विपरीत दिखते थे.

गहलोत उस चुनाव में जनता पार्टी के अपने प्रतिद्वंद्वी से पराजित हो गए. इसके बावजूद कांग्रेस ने 1980 में उन्हें एक बार फिर मौका दिया और वह जोधपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए. उसके बाद से, गहलोत चार बार लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर चुके हैं, और वे तीन बार केंद्रीय मंत्री बने.

चाणक्य को ‘मात’ दी

सचिन  पायलट के विद्रोह के करीब एक महीना पहले दिप्रिंट के ‘ऑफ द कफ’ के एक एपिसोड में अशोक गहलोत ने कांग्रेस की अधीर ‘युवा पीढ़ी’ को उस तरह के संघर्ष की अनिच्छा को लेकर लताड़ लगाई थी, जैसा कि पुरानी पीढ़ी के नेताओं ने अपने करिअर के शुरुआती दिनों में किया था. उन्होंने ये भी इशारा किया था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उनकी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रही है.

उन्होंने कहा था, ‘ऐसे समय जबकि राष्ट्र कोरोनावायरस महामारी का सामना कर रहा था, वे (भाजपा) मध्यप्रदेश की सरकार गिराने में लगे हुए थे. मुझे पता है कि वे राजस्थान में भी वैसा ही प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हम आत्मविश्वास के साथ उऩका सामना करेंगे.’

जून में राज्यसभा चुनाव से पहले गहलोत ने कांग्रेस विधायकों को एक रिज़ॉर्ट में एकजुट करके रखा. तब कइयों ने कहा था कि वह ज़रूरत से अधिक सतर्कता दिखा रहे हैं और घबराहट में कदम उठा रहे हैं. लेकिन उनके एक निकट सहयोगी ने कहा कि गहलोत किसी भी तरह का संकट खड़ा होने का मौका नहीं देना चाहते थे.

उस सहयोगी ने कहा, ‘वह हमेशा बाकियों से दो कदम आगे की सोचते हैं. पिछले 18 महीनों के दौरान उन्होंने पायलट को पूरा परख लिया था कि वह क्या कर सकते हैं. इसलिए लोग भले ही अमित शाह को चाणक्य बताएं, पर गहलोत ने उन्हें मात दे दी.’

यहां तक कि अपने पूर्व डिप्टी के खिलाफ भी गहलोत ने जो रवैया अपनाया, वो आमतौर पर मुख्यमंत्रियों में नहीं देखा जाता. पूरे संकट के दौरान जहां पायलट ने सार्वजनिक रूप से कांग्रेस के विरोध में कुछ भी नहीं कहा और भाजपा में जाने से भी इनकार किया, वहीं गहलोत ने पायलट के प्रति अपने तिरस्कार भाव के सार्वजनिक प्रदर्शन से कोई गुरेज नहीं किया.

उन्होंने पायलट को निकम्मा और नकारा कहा जो ‘कुछ नहीं करता… बस लोगों को लड़ाता’ है. इससे पहले उन्होंने युवा नेता की जानी-पहचानी छवि का अरुचिकर ढंग से उपहास किया था. पायलट का नाम लिए बिना गहलोत ने गत सप्ताह कहा, ‘अच्छी अंग्रेज़ी बोलना, अच्छी बाइट देना और अच्छा दिखना ही सबकुछ नहीं होता.’

विश्लेषकों के अनुसार गहलोत की आक्रामकता कई मायनों में अभूतपूर्व है.


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राजनीतिक विश्लेषक अनिल शर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘वह हमेशा से बहुत मृदुभाषी रहे हैं. पिछले 20 वर्षों से मैं उन्हें देख रहा हूं, पर मैंने उन्हें कभी इस कदर आक्रामक नहीं देखा, यह उनका एक अलग अवतार है.’

हालांकि शर्मा तुरंत ये दलील भी देते हैं कि गहलोत की मौजूदा ‘आक्रामकता’ उनसे कहीं अधिक पार्टी हाईकमान की वजह से है. उन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूं उन्हें ऐसी भाषा के लिए प्रेरित किया गया है ताकि पायलट को बयान देने के लिए उकसाया जा सके. अभी तक पायलट ने चुप्पी ओढ़ रखी है.’

जो भी हो, पार्टी नेता चिंतित हैं. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने दिप्रिंट से कहा, ‘गहलोत और पायलट के बीच की खींचतान बहुत खतरनाक और अनुचित रूप से वैयक्तिक रूप ले रही है. यह पार्टी के लिए ठीक नहीं है.’

अपना हिस्सा लिया

जब 2018 में कांग्रेस राजस्थान में सत्ता में लौटी, तो पार्टी के प्रदर्शन का मीडिया विश्लेषण मुख्य रूप से सचिन पायलट पर केंद्रित रहा, और आमतौर पर राज्य इकाई को पुनर्जीवित करने और कांग्रेस की चुनाव जीत का चेहरा बनने का श्रेय उन्हें ही दिया गया. यहां तक कि पार्टी के नेताओं ने भी एक ‘युवा तुर्क’ के चुनाव अभियान का नेतृत्व करने और अनुकूल परिणाम लाने से उत्साहित होकर नई संभावनाओं की कल्पना शुरू कर दी थी.

एक नेता ने कहा, ‘वह (पायलट) जीत का सारा श्रेय ले गए थे. वह पार्टी में गहलोत के करीबी लोगों से मिलने से मना करने लगे. पायलट मीडिया प्रबंधन में कुशल थे और इससे गहलोत क्रोधित हो गए.’

गहलोत के लिए ये स्थिति राजस्थान में उनके तीन दशकों के कार्यों की अवहेलना के समान थी. और इस तरह, जिस मतभेद को आरंभ में ही खत्म किया जा सकता था, वो जल्दी ही अहम का विषाक्त टकराव बन गया.

हालांकि पायलट के जादू में सबका भरोसा नहीं है.

राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नारायण बारेठ कहते हैं, ’(2018 के चुनावों में) 12 कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी, 17 तीसरे नंबर पर आए थे. पायलट द्वारा टिकट नहीं दिए जाने से क्षुब्ध कई नेताओं ने पार्टी छोड़कर स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और जीते. इसलिए पायलट की कड़ी मेहनत की बात अकसर बढ़ाचढ़ा कर कही जाती है.’

ये सही है कि विपक्ष में रहने के दौरान गहलोत ने ज़्यादातर समय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के प्रशिक्षण एवं संगठन के प्रभारी महासचिव के अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने में बिताया था. उन्हें मार्च 2018 में इस पद पर लाया गया था, यानि राजस्थान के विधानसभा चुनावों के कुछ ही महीने पूर्व.

दूसरी ओर, पायलट का समय कांग्रेस के जयपुर ऑफिस में बीतता था, जहां वह पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपने लिए विशेष जगह बनाने और खुद को एक ‘गुर्जर’ नेता के रूप में पेश करने के प्रयासों में जुटे थे.

इसके बावजूद, कांग्रेस के सात गुर्जर विधायकों में से केवल दो ही पायलट खेमे में हैं, शेष पांच गहलोत का समर्थन कर रहे हैं.

राजस्थान के एक कांग्रेस नेता ने कहा कि पायलट के लिए गहलोत की भाषा – ‘उनके स्वभाव से बिल्कुल बेमेल’ – से यही साबित होता है कि उनकी नाक में दम कर दिया गया था.


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अनवरत राजनीतिक यात्रा

अशोक गहलोत जब राजनीति में बिताए अपने समय – ‘चालीस साल’ – का जिक्र करते हैं तो उसमें एक गर्व का भाव छिपा होता है. इसके ज़रिए वह ये संकेत देना चाहते हैं कि उन्होंने इस पेशे के सारे गुर और पैंतरे सीख रखे हैं.

इस सीख का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है वरिष्ठ नेताओं का सम्मान – इस उसूल को उन्हें अक्सर कांग्रेस की युवा पीढ़ी में बांटते देखा जा सकता है – कथनी एवं करनी दोनों ही तरह से. गत माह, गहलोत ने गरीबों को रियायती दर पर पौष्टिक भोजन मुहैय्या कराने के लिए एक योजना की घोषणा की, जिसे उन्होंने अपने प्रथम ‘राजनीतिक गुरु’ के नाम पर ‘इंदिरा रसोई योजना’ का नाम दिया. उन्होंने कहा कि इस योजना को आरंभ करने का उद्देश्य ये है कि राज्य में ‘किसी को भी खाली पेट नहीं सोना पड़े’.

गहलोत का गरीबों के लिए भोजन उपलब्ध कराने पर विशेष ज़ोर देना कोई नई बात नहीं है. अपने पहले कार्यकाल में उन्हें बहुत वाहवाही मिली थी जब राज्य में भारी सूखे के बाद उन्होंने बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवारों में गेहूं की बोरियां पहुंचवाई थी. अभी हाल में भी, कोविड-19 महामारी और संबंधित लॉकडाउन के कारण छिने रोज़गार की भरपाई के लिए गहलोत ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मनरेगा योजना के तहत रोज़गार सीमा को 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन करने का आग्रह किया था.

शाकाहारी, पूर्ण मद्यत्यागी और पारले-जी प्रेमी गहलोत खुद को ‘गांधीवादी’ बताते हैं – और चाहते हैं कि कांग्रेस के अन्य नेता, विशेष रूप से युवा गांधीवादी तौर-तरीके अपनाएं. लेकिन अपने इस ‘अलग अवतार’ में गहलोत को एक ‘माहिर’ और ‘चतुर’ राजनेता की छवि को सामने करने से परहेज नहीं है.

नया गहलोत उससे कम पर समझौता नहीं करेगा वह खुद को जितने के लायक मानता है, भले ही उसके आग्रह को हठ के रूप में देखे जाने की आशंका हो. उदाहरण के लिए, विश्लेषक अनिल शर्मा कहते हैं, ‘गहलोत किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय का काम ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं सौंपेंगे जोकि वफ़ादार नहीं है.’

राजनीति में चार दशक बिताने के बाद, अशोक गहलोत को अपने लिए कुछ नया करने की चाहत नहीं है, बल्कि वह अपने अब तक के कार्यों को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं. गहलोत के निकटतम सहयोगियों का कहना है कि राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष के स्टैंप वाले उनके पहले लेटरहेड ने उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाई थी, जिसे उऩ्होंने हमेशा ही अत्यधिक महत्व दिया है. वह अभी ये सब छोड़ने नहीं जा रहे – किसी महत्वाकांक्षी युवा नेता को एक झटके में छीनने देने का तो सवाल ही नहीं है.

(व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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