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Friday, 22 November, 2024
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कश्मीरी सैनिक को अशोक चक्र ने इख्वान की आतंकवाद से लड़ने की भूमिका की ओर ध्यान खींचा है

मरणोपरांत अशोक चक्र पाने वाले लांस नायक नज़ीर अहमद वानी पूर्व में इख्वान के सदस्य थे. 2004 में भारतीय सेना की प्रादेशिक सेना बटालियन में भर्ती हुए थे.

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गणतंत्र दिवस के मौके पर लांस नायक नज़ीर अहमद वानी अशोक चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित होने वाले भारतीय सेना के पहले कश्मीरी जवान बने. यह सम्मान और भी महत्वपूर्ण इसलिए बन गया कि लांस नायक वानी पूर्व में इख्वान के सदस्य रहे थे, और 2004 में आकर वह भारतीय सेना की प्रादेशिक सेना बटालियन (होम एंड हार्थ) में भर्ती हुए.

जब गणतंत्र दिवस के दिन वानी की पत्नी महजबीन ने पति की वीरता का पुरस्कार ग्रहण किया, इख्वान के उनके अतीत, उनके बटालियन के महत्व और जिस बटागुंड अभियान में उन्होंने प्राण त्यागे उसमें उनकी भूमिका को लेकर बहुत से सवाल अनुत्तरित रह गए.

वास्तव में, इन सवालों पर स्पष्टता लांस नायक वानी की जांबाज़ी को और अधिक अहम बनाएगी, जो कि दुर्भाग्य से कश्मीर के कुछ लोगों के लिए जश्न के बजाय निंदा का विषय बन गया है.

कौन हैं इख्वान?

यह बात खूब प्रचारित की जा चुकी है कि लांस नायक वानी एक पूर्व उग्रवादी थे. यह सच है. इसका सही संदर्भ जानने के लिए हमें घाटी में परोक्ष संघर्ष के शुरुआती वक़्त 1989-90 में जाना होगा. उन दिनों कई छोटे-छोटे गुटों ने हथियार उठा लिए थे. प्रशिक्षण और हौसला पाने के लिए तथा हथियार और अन्य साज़ो-सामान हासिल करने के लिए वे नियमित रूप से नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाते थे.

पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने उन दिनों उभरते उग्रवादी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन को आगे बढ़ाने का फैसला किया, जिसका कि आगे चलकर सैयद सलाहुद्दीन ने नेतृत्व किया था. जबकि बांदीपुरा के पास के हाजेन गांव के पूर्व लोक गायक मोहम्मद यूसुफ़ पारे ने उग्रवादियों के एक समानांतर समूह का गठन किया.

स्थानीय कश्मीरियों के पारे की अगुआई वाले उग्रवादी गुट ने शुरू में तो भारतीय सुरक्षा बलों का प्रतिरोध किया, पर बाद में इसके सदस्य खुले तौर पर सुरक्षा बलों के साथ आकर उनके उग्रवाद विरोधी अभियानों में शामिल हो गए.

यह गुट इख्वान-उल-मुस्लिमीन कहलाया. इख्वान का मतलब होता है- बंधुत्व. इख्वान में अनेक ऐसे लड़ाके शामिल थे जो अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत की मौजूदगी के अंतिम दिनों में आईएसआई से सशस्त्र ट्रेनिंग पाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर बने शिविरों में शामिल हो चुके थे.

1994 आते-आते, इख्वान के प्रमुख लड़ाके तीन इलाक़ों में तैनात किए जा चुके थे- यूसुफ़ पारे (कूका पारे के नाम से भी ज्ञात) बांदीपुरा इलाक़े में, लियाक़त ख़ान दक्षिणी कश्मीर में और जावेद अहमद शाह जम्मू कश्मीर पुलिस के विशेष अभियान समूह (एसओजी) के साथ.

वे अपने परिवार के साथ सुरक्षित शिविरों में रहते थे और सुरक्षा बलों के मुख्यालयों और मुख्यत: राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) से संबद्ध इकाइयों से जुड़े छोटे दस्तों के रूप में काम करते थे. स्थानीय गतिविधियों की जानकारी, भारतीय सेना के प्रतिरोध के अपने अनुभव तथा स्थानीय भाषा और संस्कृति से संबद्धता के कारण उन्होंने भारतीय सेना और एसओजी के अभियानों को ज़्यादा प्रभावी बनाने में योगदान किया.

कूका पारे इख्वान का सबसे ऊंचे कद का नेता था. इख्वान से सेना और जम्मू कश्मीर पुलिस के गहन तालमेल के कारण ही 1996 में चुनाव कराने के अनुकूल परिस्थितियां बन पाईं. घुसपैठ के ज़रिए आईएसआई द्वारा भेजे जाने वाले अफ़ग़ान युद्ध में तपे विदेशी आतंकवादियों में से अधिकांश को सेना और इख्वान के संयुक्त प्रयास से ख़त्म कर दिया गया. इसमें खुफिया जानकारियां जुटाने और अभियानों में इख्वान सदस्यों द्वारा प्रदर्शित दुस्साहस की बड़ी भूमिका रही.

नज़ीर अहमद वानी अनंतनाग और कुलगाम के इलाक़ों में विशेष रूप से सक्रिय लियाक़त ख़ान गुट में शामिल थे. तैनाती के इलाक़े इख्वान कैडर के मूल ज़िलों के हिसाब से निर्धारित किए जाते थे. लियाक़त गुट का मुख्यालय अनंतनाग कस्बे की जंगलात मंडी में था.

इख्वान का भारतीय सेना के अभियानों में साथ देना 1996 के चुनावों के बाद भी जारी रहा. मुझे 13 जनवरी 2000 के एक ख़तरनाक अभियान की याद है जब दो आत्मघाती हमलावर अनंतनाग के खानबल स्थित राष्ट्रीय राइफल्स के मुख्यालय 1 की सुरक्षा को भेदने में कामयाब हो गए थे. उन्होंने एक रिहायशी इलाके में पहली मंज़िल के फ्लैटों में मोर्चाबंदी कर ली थी. उस दौरान गोलीबारी में एक सैन्य अधिकारी की मौत हो गई थी जबकि एक जवान घायल हो गया था. पर, इस बीच उस इलाक़े को घेरा जा चुका था.

मैं सुरक्षा अभियान के दौरान मौजूद था जब स्थानीय इख्वान सदस्यों ने आतंकवादियों को ख़त्म करने के लिए पूरी इमारत को विस्फोटकों से उड़ा दिए जाने से पहले फ्लैट में घुसकर शहीद अधिकारी का शव निकालने की पेशकश की. मैंने उन्हें निडर तथा हथियारों और साज़ो-सामान के उपयोग में कुशल पाया.

प्रादेशिक सेना की इकाइयों का गठन

जैसा कि प्रतिरोधी गुटों के मामले में हमेशा होता है, समय बीतने के साथ इख्वान और उनकी गतिविधियों पर सुरक्षा बलों का नियंत्रण कम होता चला गया. उनकी प्रभावशीलता को बनाए रखने का सबसे बेहतर तरीका होता उनमें सैन्य अनुशासन भरना और उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देना. ऐसा उनको औपचारिक रूप से सेना में भर्ती कर ही किया जा सकता था, ताकि आतंकवादरोधी अभियानों से उन्हें जोड़े रखा जा सके.

2003-2004 में प्रादेशिक सेना (टीए) की होम एंड हार्थ (एच एंड एच) टाइप आठ यूनिटों के गठन का फैसला किया गया. एच एंड एच यूनिट्स में स्थानीय लोगों को भर्ती किया जाता है जो कि स्थाई नौकरी में रहकर सेना और पुलिस के अभियानों को ज़्यादा असरदार बनाने में अपना योगदान देते हैं. लांस नायक नज़ीर अहमद वानी को 2004 में 162 इन्फैंट्री बटालियन टीए जेएके एलआई (एच एंड एच) में भर्ती किया गया था. यह उन आठ यूनिटों में से एक थी जो पूर्णतया इख्वान कैडरों से बनी थीं. बाद के वर्षों में इस यूनिट में इख्वान से असंबद्ध लोगों को भी शामिल किया गया.

टीए (एच एंड एच) के जवानों को थोड़ी संख्या में राष्ट्रीय राइफल्स की यूनिटों के साथ लगाया गया, ताकि अभियान वाले इलाक़ों की स्थानीय परिस्थितियों के बारे में बेहतर जानकारी उपलब्ध हो सके. वानी को नियंत्रण रेखा पर एक कठिन तैनाती से लौटी 34 राष्ट्रीय राइफल्स यूनिट के साथ दक्षिण कश्मीर में तैनाती मिली थी.

टीए (एच एंड एच) के जवान हमेशा कमान अधिकारी के दस्ते के साथ सबसे आगे रहते हुए आतंकवादरोधी अभियानों की नींव बनाते हैं. सैनिक दस्तों के गांवों की गलियों-नुक्कड़ों से होकर सुरक्षित निकलने में इन जवानों की सलाहों और क्षमताओं की अहम भूमिका होती है. वानी 25 नवंबर 2018 को ऐसे ही एक अभियान में अग्रिम पंक्ति में मौजूद थे जब उन्हें जान गंवानी पड़ी.

इससे पहले उन्हें दो बार सेना पदक (वीरता) से सम्मानित किया जा चुका था. उनकी बहादुरी और विशेषज्ञता कमान अधिकारी के लिए बहुमूल्य थी. वह अब देशभर में बहुतों के लिए आदर्श बन चुके हैं.

लांस नायक वानी को मिला अशोक चक्र सम्मान दिखाता है कि आपका अतीत चाहे जैसा भी रहा हो, राष्ट्र के लिए आपके योगदान को भारत के लोग हमेशा सम्मानित करेंगे. हो सकता है कश्मीर में कतिपय लोगों पर उनकी उपलब्धियों का कोई असर नहीं पड़े, पर ऐसे लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं जो उनके बलिदान से सही संदेश ग्रहण करेंगे.

(लेखक श्रीनगर स्थित 15वीं कोर के जीओसी रह चुके हैं. वह विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन तथा इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ से संबद्ध हैं, और सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर के कुलपति हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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