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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअसदुद्दीन ओवैसी का हर राज्य की विधानसभा में 'अपना एक विधायक' का सपना सच हो रहा है

असदुद्दीन ओवैसी का हर राज्य की विधानसभा में ‘अपना एक विधायक’ का सपना सच हो रहा है

एआईएमआईएम की उपस्थिति अब प्रतीकात्मक मात्र नहीं रह गई है, बल्कि यह पश्चिम से पूरब तक के राज्यों के चुनावों में धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा मुस्लिम मतदाताओं को ब्लैकमेल किए जाने को चुनौती दे रही है.

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असदुद्दीन ओवैसी से पहली बार मैं बिहार के उत्तर-पूर्वी सीमांचल इलाके के किशनगंज में मिला था. मैंने बिना लाग-लपेट के उनसे वो सवाल पूछा जो हर कोई पूछना चाहता है: क्या आप भाजपा के एजेंट हैं? उनके पास एक तार्किक जवाब था: ‘अगर मैं भाजपा का एजेंट होता, तो केवल कुछ सीटों पर ही चुनाव क्यों लड़ रहा होता? क्या भाजपा हर जगह मुस्लिम वोटों को नहीं तोड़ना चाहेगी?’

तब से, मैंने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के चुनावी प्रयासों के पैटर्न पर बारीकी से गौर किया है. वे मुट्ठी भर सीटें चुनते हैं, जहां कि मुस्लिम मतदाताओं की निर्णायक भूमिका निभाने लायक संख्या हो. वे इन चुनावों में खुद जीतने के लिए लड़ते हैं, न कि भाजपा को जिताने के लिए. उदाहरण के लिए, एआईएमआईएम ने 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा था क्योंकि सपा और बसपा मिलकर लड़ रहे थे और एआईएमआईएम के उम्मीदवारों से सिर्फ भाजपा को ही मदद मिलती.

तब मुझे यकीन था कि एआईएमआईएम के भाजपा का एजेंट होने की बात कांग्रेस ने फैलाई है. कांग्रेस पार्टी और उनके चाटुकारों की नजर में, हर वो व्यक्ति सांप्रदायिक है जो कि उनके साथ नहीं है.

लेकिन इसके बाद भी मैं ये नहीं जान पाया कि ओवैसी चाहते क्या थे. उनका लक्ष्य क्या था? वह क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे थे? वैसे भी जब वह हर सीट पर चुनाव तक नहीं लड़ रहे थे, या किसी बड़े गठबंधन में शामिल नहीं हो रहे थे, तो चुनावी राजनीति से आखिर क्या हासिल कर सकते थे? उनके गृहराज्य तेलंगाना के मुसलमान भी हैदराबाद के बाहर एआईएमआईएम को भाव नहीं देते हैं. ओवैसी कभी अपने गृहराज्य तक में मुख्यमंत्री बनने का सपना नहीं देख सकते. निकट भविष्य में भी एआईएमआईएम शासन करने वाली पार्टी नहीं बन पाएगी. इसलिए मैं इस बड़े सवाल का जवाब चाहता था: असदुद्दीन ओवैसी चाहते क्या हैं?


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ओवैसी क्या चाहते हैं?

उन्होंने कहा, ‘मैं ये चाहता हूं कि हर राज्य की विधानसभा में अपना एक विधायक हो. बस एक ही काफी है. और मैं चाहता हूं कि वह विधानसभा में खड़े होकर धर्मनिरपेक्ष दलों से पूछे कि आपने भाजपा के नाम पर ब्लैकमेल कर मुसलमानों के वोट तो ले लिए, इसलिए अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सड़कों और स्कूलों के निर्माण का विचार कैसा रहेगा?’

मुझे वो लक्ष्य प्रशंसनीय लगा था. मुस्लिम मतदाता अक्सर महसूस करते हैं कि चुनावों में उनके पास कोई विकल्प नहीं है. उन्हें किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी के धूर्त उम्मीदवार को वोट देना पड़ता है क्योंकि भाजपा उनके वोट लेना भी नहीं चाहती. भाजपा-आरएसएस कार्यकर्ता किसी मुस्लिम इलाके तक पहुंचते ही मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे परिदृश्य में, मुसलमानों के धर्मनिरपेक्ष दलों का स्थाई वोट-बैंक होने के विचार पर चोट करने वाली एक मुस्लिम पार्टी की उपस्थिति अच्छी बात है.

इसका मतलब ये भी है कि ओवौसी भारतीय मुसलमानों का ‘एकमात्र प्रवक्ता’ – मोहम्मद जिन्ना के लिए प्रयुक्त शरारतपूर्ण शब्द – बनने की कोशिश नहीं कर रहे. ओवैसी सबसे पहले एक संविधानवादी हैं. इस्लाम उनका धर्म है, संविधान उनकी विचारधारा है. और वह ये साबित करना चाहते हैं कि ये दोनों ही बातें साथ-साथ चल सकती हैं.

युवाओं में लोकप्रिय

मैंने 2015 में किशनगंज में देखा कि कैसे युवा मतदाता ओवैसी को लेकर दीवाना हो रहे थे, जैसे कि लोग अपने नायकों के प्रति दीवानगी दिखाते हैं. ये बात महान खिलाड़ियों से प्रेरित होकर नायक पूजा करने की परिघटना के समान थी. इसकी व्याख्या करते हए अलीगढ़ में एक मुस्लिम पत्रकार ने मुझसे कहा था कि ओवैसी बाबरी मस्जिद के बाद की मुस्लिम राजनीति की पैदाइश हैं. बाबरी मस्जिद के 1992 में विध्वंस ने उन मुखर मुस्लिम नेताओं को चुप करा दिया जो मुख्यधारा की सार्वजनिक बहस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे. उस घटना ने इस विचार को लगभग अंतिम रूप से स्थापित कर दिया कि बंटवारे के बाद भारतीय राजनीति में एक ‘मुस्लिम पार्टी’ के लिए कोई जगह नहीं रह गई है.

ओवैसी इन सभी धारणाओं को चुनौती देते हैं, और 1992 के बाद पैदा हुए मुस्लिम युवाओं को अपने स्वत:प्रवृत्त समर्थकों के रूप में पाते हैं. इस तरह ओवैसी की लोकप्रियता के संदर्भ में मुसलमानों के बीच एक पीढ़ीगत विभाजन दिखता है: 1992 से पहले की पीढ़ी उन्हें एक बुरा किरदार मानती है, जबकि इस सदी के युवाओं को लगता है उन्हें ऐसा ही नेता तो चाहिए था. युवाओं को लगता है कि मुस्लिम होने को लेकर उन्हें खेद जताने और दूसरे दर्जे की हैसियत को स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं है. उनका मानना है कि भारतीय संविधान के तहत उन्हें अन्य भारतीयों की तरह ही समान दर्जे वाले नागरिक के रूप में अपने अधिकारों की दावेदारी करनी चाहिए, और उनके वास्ते ओवैसी यही काम करते हैं.

जाहिर है, एआईएमआईएम सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे सीटें नहीं जीत सकती. और हिंदू मतदाता भला किसी मुस्लिम पार्टी को वोट क्यों देंगे?

इसीलिए एआईएमआईएम का संविधानवाद उसके आंबेडकरवादी दलितों में पैठ बनाने का भी एक साधन है. तभी एआईएमआईएम दलितों और हाशिए पर छूटे अन्य वर्गों के साथ एक गठजोड़ बनाने की कोशिश करती रही है, जिसमें उसे थोड़ी सफलता मिली भी है. अपना एक मुस्लिम वोट-बैंक होने की वजह से एआईएमआईएम किसी दलित उम्मीदवार को मुसलमानों का वोट दिला सकती है. और इस विचार की बुनियाद पर ही एआईएमआईएम का महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर के साथ गठजोड़ हुआ था.

फिर भी, एआईएमआईएम को 2015 में किशनगंज में हार का मुंह देखना पड़ा था. मैंने युवा मतदाताओं को ओवैसी के पास जाकर ये कहते देखा था कि वे उनको पसंद करते हैं लेकिन वोट अगली बार देंगे. तब, भाजपा को हराने के लिए नीतीश-लालू-कांग्रेस गठबंधन का साथ देने की दरकार जो थी.

खाता खुला

एआईएमआईएम 2019 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज में बढ़िया प्रदर्शन करते हुए तीसरे स्थान पर रही थी. ये सीट कांग्रेस के खाते में गई थी और जदयू दूसरे स्थान पर रही थी. अगर एआईएमआईएम का उम्मीदवार नहीं होता, तो इस सीट पर भाजपा की सहयोगी जदयू को जीत मिलती. एआईएमआईएम द्वारा काटे गए वोटों की बदौलत ही किशनगंज बिहार की वो एकमात्र सीट बनी जिस पर कि यूपीए को जीत और एनडीए को हार मिली थी.

लोकसभा चुनाव में विजयी कांग्रेस उम्मीदवार के तत्कालीन विधायक होने की वजह से वहां की विधानसभा सीट पर उपचुनाव कराने की नौबत आई. गुरुवार को आए नतीजे में एआईएमआईएम विजेता बनकर उभरी. इस तरह बिहार में ओवैसी की पार्टी का खाता खुल गया है. इससे भी बड़ी बात ये है कि इस चुनाव में भाजपा दूसरे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही. अब बिहार के नवंबर 2020 के विधानसभा चुनावों में ओवैसी ये कहने की स्थिति में होंगे कि किशनगंज में मुकाबला एआईएमआईएम-बनाम-भाजपा का है. और इसका असर पूरे सीमांचल में दिखेगा.


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नए मोर्चे

एआईएमआईएम ने 2014 में महाराष्ट्र विधानसभा में जो दो सीटें जीती थीं, उसे इस बार के चुनावों में गंवा दिया. पर उनकी जगह इसने दो नई सीटें जीती हैं: मालेगांव सेंट्रल और धुले सिटी. दूसरे शब्दों में, एआईएमआईएम एक नियमित चुनावी पार्टी बन गई है, और लोगों को ईवीएम पर उसके चुनाव चिन्ह पतंग का बटन दबाने की आदत-सी बन रही है. एआईएमआईएम को कभी अकेले सांसद की पार्टी कहा जाता था, लेकिन अब लोकसभा में इसके दो सांसद हैं: 2019 के लोकसभा चुनाव में औरंगाबाद की सीट इसके उम्मीदवार इम्तियाज जलील को मिली थी.

उत्तर प्रदेश में, एआईएमआईएम के पास विभिन्न नगर निगमों में 30 सीटें हैं – इसका उम्मीदवार गाजियाबाद में डासना नगरपालिका परिषद का अध्यक्ष चुना गया था. गुरुवार को प्रतापगढ़ विधानसभा उपचुनाव में एआईएमआईएम का उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहा. ओवैसी का सपना सच हो रहा है: उनके पास अब बिहार और महाराष्ट्र की विधानसभाओं में अपने विधायक हैं और भारतीय राजनीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में भी जीत ज़्यादा दूर नहीं रह गई है.

एआईएमआईएम की बढ़ती चुनावी सफलताएं धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए एक चेतावनी है कि वे मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में रहने को बाध्य नहीं मान सकते. यदि उदासीनता या हिंदू वोट खोने के डर से ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल खुद ही मुसलमानों से मुंह फेर रहे हों, तो इसमें ओवैसी का क्या दोष?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

 

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