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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतजब तक जनता ‘राजनीतिक उपभोक्ता’ बनी रहेगी, उसे ऐसे ही महंगाई झेलनी पड़ेगी!

जब तक जनता ‘राजनीतिक उपभोक्ता’ बनी रहेगी, उसे ऐसे ही महंगाई झेलनी पड़ेगी!

महंगाई का एक के बाद दूसरा रेला उन लोगों के लिए कहर से कम नहीं है जो दो साल पहले कोरोना के कारण देशव्यापी लॉकडाउन की मार से अभी तक उबर नहीं पाए हैं.

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार द्वारा डीजल-पेट्रोल व रसोई गैस के साथ ही कई आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं के कसकर बांध रखे गए दाम अब हमारी जेबें ढीली करने के लिए खुले छोड़ दिए गए हैं, जबकि सरकार अपना यह भोथरा हो चुका तकनीकी तर्क फिर से रटने लगी है कि इनमें कम से कम डीजल-पेट्रोल व रसोईगैस की मूल्यवृद्धि में अब उसकी कोई भूमिका ही नहीं है क्योंकि उनके निर्धारण का अधिकार तेल कंपनियों के पास हैं. तो, कई महानुभाव समझ नहीं पा रहे कि वे महंगाई के इस अलबेले त्रास को समझें तो किस तरह समझें?

इसे समझने का तरीका बहुत आसान है.

अलबत्ता, इसके लिए देश के अतीत में कुछ दशक पीछे जाना पड़ेगा क्योंकि तभी जाना जा सकेगा कि बीती शताब्दी के आखिरी दशक में हम कैसी परिस्थितियों में भूमंडलीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद की संस्कृति को ‘आत्मार्पित व अंगीकृत’ करने को बाध्य हुए थे या कैसे तत्कालीन सत्ताधीशों ने ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ (कोई और रास्ता नहीं है) कहते हुए बरबस हमें उसकी ओर हांक दिया था. इस आश्वासन के साथ कि वह बहुत दरियादिल या कि उदार है.

पिछले तीन दशकों में यह संस्कृति खूब फूलने और फलने लगी है तो यह कैसे हो सकता है कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में तो उपभोक्तावाद एक के बाद एक मंजिलें तय करता जाए लेकिन देश की राजनीति उससे सर्वथा अछूती, कल्याणकारी और पवित्र बनी रहे?

ऐसा नहीं हो सकता इसलिए हमारी राजनीति में एक अलग ही तरह का उपभोक्तावाद व्यापने लगा है और वह प्रजा, जिसके जनता बनने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हो पाई थी. सरकारों और उनका नेतृत्व करने वाली पार्टियों के राजनीतिक उपभोक्तावाद की शिकार हो गई हैं. यही कारण है कि जब भी चुनाव आते हैं, सरकारें और सत्तारूढ़ पार्टियां उससे अपने उपभोक्ताओं जैसा सलूक करती हैं और वोट पाने के लिए ‘बनाने’ के सिलसिले में जैसे और जिस भी तरह से संभव होता है, उससे साम-दाम, दंड और भेद सब बरतने लग जाती हैं.

यहां समझने की बड़ी बात यह है कि उनके इस बरतने का इस उदारवाद के पहले की सरकारों के उस रवैये से कोई साम्य नहीं है, जिसके तहत वे चुनाव के वक्त उसका थोड़ा ज्यादा ख्याल रखने लगती थीं क्योंकि अब बात ख्याल रखने से आगे बढ़कर मौके की नजाकत के अनुसार अपना काम बनाने के लिए एक हाथ से देने और काम बन जाने पर दूसरे हाथ से उससे कहीं ज्यादा वापस ले लेने तक जा पहुंची है.


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विडम्बना यह कि विपक्षी दलों को, जो अब सत्ता दलों के नीतिगत नहीं बल्कि संख्या आधारित विपक्ष भर रह गए हैं, इस स्थिति से कोई असुविधा है तो सिर्फ यही कि वे इस उपभोक्तावाद में अपनी जगह पक्की नहीं कर पा रहे. फिर भी उनके सपने बरकरार हैं कि एक दिन अपनी विफलता को सफलता में बदल डालेंगे.

यही कारण है कि केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने मान लिया है कि अब विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के बाद वह अगले चुनावों तक सुभीते से अपनी प्रजा को मूल्यवृद्धि के हवाले किये रह सकती है क्योंकि मतदान कर चुकने के बाद वह उन्हें फिलहाल, कोई राजनीतिक नुकसान पहुंचा पाने की स्थिति में नहीं रह गई है.

इस कारण प्रजा के तौर पर वह उनकी आज्ञाओं के अनुपालन के लिए ही होकर रह गई है और उसे समझा दिया गया है कि उनकी द्वारा दी गई कई सहूलियतों की कृतज्ञ उपभोक्ता बने रहने में ही उसका भला है. इसीलिए सोशल मीडिया पर सरकार या महंगाई के समर्थकों के तर्क पढ़िए या कुतर्क, इन्हें इस हद तक पहुंच दिए गए हैं कि अब महंगाई का मुद्दा उठाने या रोना रोते जाने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि चुनाव में मदाताओं ने उसे नोटिस में नहीं लिया और बीजेपी उसको शिकस्त देकर चार राज्यों में चुनाव जीतकर वहां अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही है. जैसे कि चुनाव जीतने का एक अर्थ यह भी होता हो कि उसके बाद जीतने वालों को अनेक दूसरी अनैतिकताओं के साथ लोगों की जेब पर डाके डालने की छूट भी हासिल रहेगी.

लेकिन दूसरे पहलू से देखें तो इस डाके पर सरकार और सरकारी पार्टी की निर्भरता को भी आसानी से समझ सकते हैं. चुनावों के दौरान उन्होंने जिनके समर्थन से अपने राजनीतिक उपभोक्तावाद को परवान चढ़ाया, उनको उनका रिटर्न गिफ्ट तो देना ही है. भले ही इसके लिए ‘जो मांगोगे, वही मिलेगा’ की तर्ज पर उसी प्रजा को, जिसकी धार्मिक भावनाओं को उन्होंने दुर्भावनाओं तक ले जाकर सहलाया व भुनाकर वोट कमाया, भूखे पेट भजन करवाया और महंगाई से सामना कराया.

गौर कीजिए, देश में दूध व खाद्य तेल वगैरह के दाम मतदान के फौरन बाद ही बढ़ चुके थे, जबकि होली जैसा त्यौहार सर पर था. अब सब्जियां भी महंगी हो रही हैं और रूस-यूक्रेन युद्ध से पैदा हुए संकट के बहाने डीजल-पेट्रोल व रसोई गैस के दाम भी बेतहाशा बढ़ा दिए गए हैं. घरेलू रसोई गैस सिलेंडर के दामों में एक झटके में 50 रुपए की बढ़ोतरी कर दी गई है, जिसके बाद कई शहरों में उसकी कीमत एक हजार के आसपास या पार पहुंच गई है. इसी तरह पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी का जो सिलसिला चुनावी गहमागहमी वाले 137 दिनों के बाद शुरू हुआ है. इस बात की पूरी आशंका है कि वह इस साल के अंत में प्रस्तावित अगले विधानसभा चुनावों तक जारी रहे. उसके बाद ‘राजनीतिक उपभोंक्ताओं’ को फिर से खुश करने की मजबूरी आ पड़े तो शायद वह थोड़ा थम जाए.

इससे पहले डीजल की थोक खरीदारी में सीधे 25 रुपए लीटर की बढ़त कर दी गई थी. तब रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न स्थितियों को इसका कारण बताते हुए सरकार की ओर से कहा गया था कि इस वृद्धि का खुदरा कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन अब जाहिर हो चुका है कि वह बात लोगों को गुमराह करने या झांसे में रखने मात्र के लिए कही गई और निरंतर शातिर व चालाक होते जा रहे राजनीतिक उपभोक्तावाद का नया नमूना थी.

हालांकि तब कई लोग उसका यह निष्कर्ष भी निकाल रहे थे कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को समझ ही नहीं पा रही. उनका सवाल था कि विमान सेवा, रेलवे व बड़े वाहनों के संचालन और औद्योगिक गतिविधियों सबके लिए महंगा ईंधन खरीदा जाएगा तो उनसे जुड़े अन्य व्यवसायों पर उसका विपरीत असर क्योंकर नहीं पड़ेगा? खासकर जब माल ढुलाई से लेकर यात्री किराए तक और उत्पादन से लेकर वितरण तक तमाम चीजों की लागत और वसूली दोनों बढ़ जाएंगे.

जो भी हो, महंगाई का एक के बाद दूसरा रेला उन लोगों के लिए कहर से कम नहीं है जो दो साल पहले कोरोना के कारण देशव्यापी लॉकडाउन की मार से अभी तक उबर नहीं पाए हैं. लाॅकडाउन में बड़ी संख्या में लोगों को एक झटके में बेघर-बेदर, बेरोजगार होना पड़ा. करोड़ों लोग इस कारण गरीबी रेखा से नीचे आ गए कि छोटे-मंझोले उद्योग बंद हो गए और होटल, पर्यटन, रेस्तरां, जिम आदि ठप्प पड़ गए. कारीगरों का काम बंद हो गया और रेहड़ी-पटरी वालों की रोजी-रोटी छिन गई.

इस बीच लोकलुभावन राहत पैकेजों के बावजूद अभी उनके हालात बहुत सुधर नहीं पाए हैं. भले ही ‘बड़े खिलाड़ियों’ की राजनीतिक उपभोक्तावाद में बढ़ती हिस्सेदारी ने सत्तादल की चुनावी उपलब्धियों पर इसका असर नहीं पड़ने दिया है और राजनीतिक उपभोक्ताओं में बदल गई उसकी प्रजा अपने हिस्से की तकलीफें बर्दाश्त करती हुई खुशी-खुशी उसके साथ ताली-थाली, दीए व टार्च वगैरह जलाने व बजाने में मगन रहने को तैयार है.

लेकिन इससे आगे का सवाल अब यह है कि यह स्थिति कब तक चल सकती है? क्या सरकार द्वारा राजनीतिक उपभोक्तावाद के हथियार से इस बात को हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है कि महंगाई का यह खेल, जो उसे राष्ट्रवादी करार देने की हद तक जा पहुंचा है, अलोकतांत्रिक भी है और जनविरोधी? कभी न कभी तो राजनीतिक उपभोक्ताओं को भी यह सवाल मथने ही लग जाएगा कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता होने का लाभ उनको तुरंत नहीं मिलता तो फिर महंगा होने पर नुकसान तुरंत क्यों उठाना पड़ता है?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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