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Tuesday, 19 November, 2024
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आर्यन -वानखेड़े प्रकरण के बाद IPS-IRS-IAS खुद से सवाल पूछें कि अपनी शपथ को लेकर वो कितने ईमानदार हैं

यह मामला ऑल इंडिया और क्लास वन सेवा के कुछ अफसरों में नाम कमाने या ‘स्टार’ बनने के जुनून की ही एक मिसाल है, जबकि कई ऐसे अफसर भी हैं जो गुमनाम रहते हुए पूरी ईमानदारी से काम कर रहे हैं.

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जब तक आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, आर्यन खान शायद जेल से बाहर निकल रहे होंगे- बेशक 25 दिन की देरी से. इस मामले के बारे में अब तक हम जो कुछ जान पाए हैं वे यही बताते हैं कि उनकी गिरफ्तारी, उन्हें जेल में रखना और उन पर एक कठोर कानून के तहत मामला दायर करना कतई जायज नहीं था. उनके कड़वे प्रकरण ने समीर दाऊद/ज्ञानदेव वानखेड़े के रूप में एक तरह के एक और ‘स्टार’ को सामने ला दिया है.

अब यह फैसला आपके ऊपर है कि वे किस तरह के स्टार हैं, अच्छे हैं या बुरे, नाइंसाफी के शिकार हीरो हैं या विलेन जिसे अंततः धर लिया जाता है. लेकिन उन्होंने लोगों को दो खेमों में बांट दिया है. कुछ लोगों के लिए वे आरक्षण की व्यवस्था में फर्जीवाड़ा करने वाले शख्स हैं जिसने अपने बारे में यह तथ्य छिपाते हुए कि वह मुसलमान है, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कोटे पर दावा करके नौकरी हासिल की. इसमें कोई मुश्किल नहीं थी सिवा इसके कि उन्हें जाति आधारित आरक्षण का लाभ नहीं मिलता. लेकिन कुछ लोगों के लिए वे एक मुस्लिम और दलित हैं, जिसे कुलीन तबका इसलिए निशाना बना रहा है कि उन्होंने उनके खिलाफ कार्रवाई करने का दुस्साहस किया.

और कुछ लोगों के लिए वे एक ‘दादा’ हैं या कहें एक ‘ब्लैकमेलर’ जिसने नाम कमाने और कथित रूप से दाम भी कमाने के लिए अमीरों और मशहूर लोगों, खासकर बॉलीवुड वालों को निशाना बनाया. और कुछ लोगों के लिए वे नार्कोटिक्स विभाग के बहादुर अधिकारी हैं जिसने अपना फर्ज निभाया और यह परवाह नहीं की कि वह कितने प्रभावशाली लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है.

हम किसी पक्ष का समर्थन नहीं कर सकते और न कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास तथ्य नहीं हैं. हम व्यक्तिपरक धारणा पर चलते हैं क्योंकि इसी आधार पर हम अपने सामने उपस्थित तथ्यों पर विचार कर सकते हैं. हम पटरी से हट कर कुछ और बात पर ज़ोर देंगे, जो कम मूर्त है और जो लोगों को बांटता नहीं है. इसे सरकारी सेवा में, खासकर ऑल इंडिया और क्लास वन वाली सेवाओं में शिष्टाचार और ईमानदारी का पालन कहा जाता है.

मैं आपसे एक पहेलीनुमा सवाल पूछता हूं- देश के कितने आईएएस अधिकारियों के नाम आप जानते हैं? उनके नहीं जो आपके रिश्तेदार या साथी हैं बल्कि उनके, जो खबरों में आए और खासकर हाल के दिनों में? या आईपीएस अधिकारियों के? या उस सेवा के, जिसका ताल्लुक हमारे सामान्य जीवन से कम ही रहता है, भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) के अधिकारियों के, जिन्हें ‘टैक्स वाला’ कहा जाता है?

तो क्या आप अभी फौरन किसी आईआरएस अधिकारी का नाम ले सकते हैं? मैं दावा कर सकता हूं कि वह नाम समीर वानखेड़े होगा. आज देश में वही सबसे मशहूर आईआरएस अधिकारी हैं, लेकिन यह नाम लंबे समय बाद उभरा है. और यह भी एक आकस्मिक संयोग ही है कि आज अखिल भारतीय सरकारी सेवाओं, आईएएस और आईपीएस के दो सबसे मशहूर नाम अच्छे कारणों से चर्चा में नहीं हैं.

पूर्व सीएजी विनोद राय को 2-जी घोटाले में कांग्रेस नेता संजय निरुपम पर गलत आरोप लगाने के लिए माफी मांगने की शर्म झेलनी पड़ी है. 2007 में पेश अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इस घोटाले से देश को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा.

जाहिर है, यह आंकड़ा बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिया गया था. लेकिन उस समय ऐसा माहौल बना हुआ था कि आप उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते थे क्योंकि आपके ऊपर ‘भ्रष्टाचार समर्थक’ का ठप्पा लग सकता था. अब कहानी सामने आ रही है. बदकिस्मती से मामला भारत के टेलिकॉम सेक्टर का था. लेकिन जल्दी ही यह कोयला के मामले में भी हुआ.

अब आईपीएस की बात करें. जिस मुंबई ने हमें वानखेड़े जैसा ज़ोनल नार्कोटिक्स चीफ दिया- जो आज अपने बचाव में उसे युवक का बयान (‘देखिए, आर्यन ने भी मेरे खिलाफ जबरन वसूली का आरोप नहीं लगाया है’) उदधृत कर रहा है जिस पर उसने वह अपराध करने का आरोप लगाया है जिसके लिए उसे 10 साल तक की जेल हो सकती है- उसी मुंबई ने एक ऐसा पुलिस कमिश्नर भी दिया है जो फरार हो गया है. और पूरी महाराष्ट्र पुलिस अपने एक सबसे बड़े अधिकारी को नहीं ढूंढ पा रही है और उसके खिलाफ हर जगह गैर-जमानती वारंट भेजे जा रहे हैं.


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अगर आईपीएस, आईआरएस और आईएएस हमारी बहुप्रशंसित सिविल सेवा की त्रिमूर्ति जैसी है और परमबीर सिंह, समीर वानखेड़े और विनोद राय आज उसके सबसे प्रमुख चेहरे- और सबसे बुरी सुर्खियां हैं तो इससे क्या साबित होता है?

हमने उपरोक्त क्रम जानबूझकर बनाया है. आईपीएस वाला शख्स सबसे ऊपर इसलिए है क्योंकि वह भगोड़ा है, कई गंभीर अपराधों के आरोप से बचना चाह रहा है, आईआरएस वाला शख्स उसके बाद है क्योंकि वह गिरफ्तारी से बचने के लिए अदालत की शरण में पहुंचा है और उसे अपने आचरण के बारे में उठे कई सवालों का जवाब देना है और आईएएस वाले महाशय सबसे अंत में हैं क्योंकि विनोद राय के बारे में इतना तो हम जानते हैं कि पैसे के मामले में उनका रिकॉर्ड बेदाग रहा है. बस इतना है कि उससे भारत को उत्तम लाभ नहीं हासिल हुआ है.

आज के ये तीन सितारे हमारी सिविल सेवाओं की अपनी-अपनी तरह से बुरी तस्वीर पेश करते हैं. इन सेवाओं में शामिल होने के लिए हमारे प्रतिभाशाली युवा वर्षों तक कोचिंग में सिर खपाते हैं, जिनके लिए उनके माता-पिता अपनी जमीन-जायदाद, मवेशी तक बेच दिया करते हैं बस इस उम्मीद में कि एक दिन उनके बच्चे यूपीएससी परीक्षा में कामयाब हो जाएंगे. इसके बाद वे दिल में गर्व भरकर और आंखों में सितारों सी चमक भरकर अपनी-अपनी एकेडमी में दाखिल होंगे. यह सब मैं इन एकेडमियों और उनमें दाखिल नये प्रशिक्षुओं के साथ अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं, जो आदर्शवाद से ओतप्रोत होते थे.

नहीं, मैं व्यापक निंदा अभियान में शामिल नहीं होने जा रहा. मैंने कभी यह नहीं माना के ‘सब चोर हैं ’. बल्कि मैं इसका एकदम उलटा विचार रखता रहा हूं, जिसे जाहिर करने की हिम्मत मैंने अन्ना आंदोलन के दौरान भी की थी. यहां मुद्दा यह है कि हर एक परमबीर सिंह के जवाब में हजारों ऐसे अधिकारी हैं जो मामूली सरकारी वेतन पाते हुए अपना काम ईमानदारी, गंभीरता से कर रहे हैं. ऐसे ही कई आईएएस और आईआरएस अधिकारी भी जरूर हैं. बस हम उनके बारे में जानते नहीं हैं. दरअसल, चर्चा में वही आते हैं जो गलत काम करते हैं.


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अब, पहेलीनुमा एक सवाल और. जरा उन छह पूर्व अधिकारियों के नाम बताइए जो कैबिनेट सचिव, खुफिया ब्यूरो के निदेशक, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष के पदों पर काम कर चुके हैं. अगर आपने हरेक पद पर काम कर चुके छह-छह अधिकारियों यानी इन सेवाओं के शीर्ष पदों के कुल 18 अधिकारियों के नाम बता दिए तो आपको मैं शानदार प्रतियोगी मान लूंगा. लेकिन अफसोस कि आपको केवल तीन नाम याद आएंगे, जो आज सुर्खियों में हैं. या आपमें से कुछ लोगों को उस युवा आईएएस अधिकारी का नाम याद हो, जिसने अपनी पुलिस से कहा था कि हरियाणा में प्रदर्शन कर रहे किसानों के ‘सिर फोड़ देना’. या शायद आपको छत्तीसगढ़ के उस अधिकारी का नाम याद हो जिसने लॉकडाउन तोड़ने वाले की पिटाई कैमरे के सामने ही कर दी थी. अच्छे अधिकारी गुमनाम ही रह जाते हैं, कोई उनकी तारीफ नहीं करता. यह अफसोसजनक है क्योंकि वे खरे, पेशेवर और नियम से चलने वाले होते हैं.

नियम क्या हैं? बॉलीवुड का हमें सदा आभार मानना चाहिए कि वह हमेशा हमें आगाह कराता रहता है. लोगों ने बड़बोली किस्म की फिल्म ‘तिरंगा ’ (1993 में मेहुल कुमार द्वारा निर्मित) से एक दृश्य ढूंढ निकाला है जिसमें अभिनेता राज कुमार अपने खास अंदाज में अपनी जेब से दो कागजात निकालकर भ्रष्ट देशद्रोही पुलिस अधिकारी के सामने रखते हुए कहते हैं कि एक तो जेल से मेरी रिहाई का ऑर्डर है और दूसरा तुम्हारी गिरफ्तारी का ऑर्डर है. इस दृश्य के साथ कैप्शन लगाया गया है- ‘वानखेड़े से आर्यन खान ने कहा’.

यूट्यूब पर इस फिल्म को देखिए तो आपको इस दृश्य का संदर्भ समझ में आ जाएगा. राज कुमार पूछते हैं- ‘जब तुम इस नौकरी में आते हो, यह वर्दी पहनते हो तब क्या शपथ लेते हो?’ फिर वे वह शपथ पढ़कर सुनाते हैं, जो ऑल इंडिया सर्विसेज की अपनी नौकरी शुरू करने से पहले हरेक हरेक भारतीय को अनिवार्य रूप से लेनी पड़ती है- ‘मैं…. शपथ लेता हूं और सत्यनिष्ठा से वचन देता हूं कि मैं भारत के संविधान के प्रति निष्ठावान रहूंगा और उसका सच्चे दिल से पालन करूंगा… कि मैं अपने पद के कर्तव्यों का पूरी निष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से निर्वहन करूंगा ’.

अब हम सिविल सेवाओं के इन नये ‘सुपरस्टारों’ के जमीर के ऊपर छोड़ते हैं कि वे खुद से यह सवाल पूछें कि वे इस शपथ के प्रति कितने ईमानदार रहे हैं. यह सवाल इन सेवाओं के उन दूसरे सभी अधिकारियों को भी खुद से पूछना चाहिए, जिन्होंने छात्रों को देशद्रोह के आरोप में या ‘यूएपीए’ के तहत सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया है कि उन्होंने अमुक क्रिकेट टीम का समर्थन किया, या ग्रेटा थनबर्ग की टूलकिट को शेयर किया या किसी पर भी फर्जी आरोप इसलिए थोप दिए क्योंकि उनके राजनीतिक आका उन्हें ‘सबक’ सिखाना चाहते थे.

आज, 2021 में वे सोवियत संघ के सत्तर साल पहले के कुख्यात सेवक लावरेंती बेरिया से कम नहीं हैं, जो हर उस शख्स को गिरफ्तार करने को तैयार रहता था जिसे स्टालिन नापसंद करता था. स्टालिन उससे पूछता कि आखिर किस आरोप में पकड़ोगे? उसका जवाब होता- आप आदमी बताओ, मैं आरोप बता दूंगा.

अविस्मरणीय पुराने आईसीएस अधिकारियों में एक अग्रणी नाम दिवंगत एस.एस. खेरा का है, जो इतने विनम्र और आत्मप्रचार से दूर रहने वाले व्यक्ति थे कि आपको गूगल पर भी उनके बारे में कम जानकारी ही मिलेगी. वे भारत के पहले सिख कैबिनेट सचिव (1962-64) थे.

1947 में बंटवारे के बाद मेरठ में हुए दंगों को रोकने के लिए टैंक तक का इस्तेमाल करने के कारण मशहूर हुए खेरा सिविल सेवा के अधिकारियों द्वारा नाम कमाने की कोशिशों पर नाक-भौं सिकोड़ते थे. उनका कहना था कि आपका नाम एक बार भी अखबार में आ गया तो इसका मतलब है आपके ऊपर एक कलंक लग गया. दो बार नाम आया तो आपका ‘एसीआर’ खराब हो गया और आपकी फोटो छप गई तो इसका मतलब है कि आपने अपनी बर्खास्तगी को न्योत लिया.

हम जानते हैं कि छह दशक बाद आज समय बदल गया है. लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि मशहूर होने और स्टार बनने के जुनून ने इन महान सेवाओं के कुछ लोगों का क्या हश्र कर दिया है, जबकि अधिकतर दूसरे लोग लगभग गुमनाम रहते हुए गंभीरता से अपना काम कर रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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