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Friday, 15 November, 2024
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अनुच्छेद 370 से लेकर G20 तक, भारत कश्मीर को लेकर सही पाले में है, अब बस अंतिम निशान लगाना बाकी

इस अनुकूल मुकाम तक पहुंचने के लिए भारत ने कड़ी मेहनत की है लेकिन अपने सरोकारों को मजबूती देने का सबसे बुद्धिमानी भरा उपाय जम्मू-कश्मीर को उसका राज्य का दर्जा लौटाना ही है.

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खबरों का मिजाज कुछ ऐसा होता है कि ‘जी-20’ का जो कार्यक्रम (पर्यटन पर वर्किंग ग्रुप की तीसरी बैठक) श्रीनगर में हुआ उसके बारे में जो गंभीर किस्म की सुर्खियां आईं, वे इस बैठक से चीन, तुर्की, सऊदी अरब, मिस्र, और ओमान की गैरहाजिरी को लेकर ही रहीं.

इन सबकी गैरहाजिरी एक झटका है लेकिन इस बैठक के नतीजे राजनीतिक तथा रणनीतिक दृष्टि से व्यापक अर्थ में उल्लेखनीय रूप से सकारात्मक रहे. यह आसान और सुरक्षित निष्कर्ष इस तथ्य के मद्देनजर निकाला जा सकता है कि ‘जी-20’ के 20 में से 17 और ‘पी-5’ के चार देशों, पूरे यूरोप और सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया ने भागीदारी की.

इन सबने जम्मू-कश्मीर को ‘विवादित क्षेत्र’ वाले तमगे को मुक्त कर दिया, यह इस क्षेत्र के 75 साल के इतिहास में अहम मोड़ है. यह प्रगति है, और हमें इसका मजा लेना ही चाहिए. लेकिन हमें कुछ जटिलताओं और अधूरी परियोजनाओं की चर्चा करने से परहेज भी नहीं करना चाहिए.

पहले तो हम इन देशों की गैरहाजिरी, वे जिन मुद्दों को रेखांकित कर रहे हैं उनको, और जम्मू-कश्मीर में बाकी बचे जिन ‘कामों’ की वे याद दिला रहे हैं उनकी बात करें. चीन और तुर्की को हम चाहें तो पहले ही संदिग्ध होने के कारण छोड़ सकते हैं लेकिन अरब के तीन महत्वपूर्ण देशों की गैरहाजिरी एक उल्लेखनीय झटका है. बेशक इनमें से केवल सऊदी अरब ही ‘जी-20; का सदस्य है. बाकी दो आमंत्रित देश थे.

इस पर खास तौर से ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि सऊदी अरब और भारत के बीच पिछले 15 साल से बढ़ रही गर्मजोशी ऐतिहासिक महत्व की है. इसी की वजह से इसके पड़ोस में ‘आइ2यू2’ (इंडिया, इजरायल, यूएई, यूएसए) नामक समूह उभरा है. ओमान का भारत के साथ पुराना दोस्ताना रिश्ता रहा है.

और मिस्र? उसने तो कभी इस्लामी मुल्क होने का दिखावा भी नहीं किया, उस सीमित अर्थ में भी नहीं जिस अर्थ में एर्दोगन तुर्की को बदलने में लगे हैं. इसके विपरीत, जबकि एर्दोगन ने ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ को संरक्षण दिया, सीसी ने उसे और उसकी निर्वाचित सरकार को कुचलकर तानाशाही कायम कर दी है.

भारत मिस्र की ओर मजबूती और उग्रता से हाथ बढ़ाता रहा है. उसने उसके राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल-सीसी को इस साल गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था. फिर, मिस्र ने भ्रामक ‘ओआइसी’ (इस्लामी सहयोग संगठन) के झुंड में लगभग शामिल होने का फैसला क्यों किया?

पाकिस्तान इस मामले पर काफी मेहनत कर रहा था. उसके विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने गोवा में दावा किया था कि श्रीनगर वाले आयोजन में कुछ “अहम मुल्क गैरहाजिर रहेंगे”. तीन इस्लामी मुल्क अलग रहे, यह बिलावल की अधूरी कामयाबी ही है क्योंकि यूएई समेत कई दूसरे मुल्क शामिल हुए.

इन गैरहाजिरियों से पाकिस्तान का एक मकसद सधा, जबकि भारत के लिए इन्होंने कुछ याद दिलाने का काम किया. उन देशों ने चीन के इन शब्दों का इस्तेमाल तो नहीं किया कि “हम विवादित क्षेत्रों में होने वाले आयोजनों में भाग नहीं लेते”, लेकिन संदेश यही दिया. जम्मू-कश्मीर को लेकर हुए संवैधानिक बदलावों की चौथी वर्षगांठ से कुछ सप्ताह पहले ऐसा दिख रहा है कि भारत के लिए महत्व रखने वाले दुनिया के कुछ हिस्सों के लिए यह मसला अभी निबट नहीं गया है. चीन के लिए यह पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत का गला दबाने का एक औज़ार है. इन गैरहाजिरियों ने यह भी याद दिलाया कि बेशक काफी प्रगति हो गई हो लेकिन भारत अगर अपनी जीत का ऐलान करता है तो यह उसकी जल्दबाज़ी ही होगी.


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5 अगस्त 2019 को संवैधानिक बदलाव करके एक नया अध्याय लिखा गया, और खासकर कश्मीर घाटी में कानून-व्यवस्था से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण तक जमीन पर काफी कुछ काम किया गया है. लेकिन मोदी राज में उस पहले अध्याय के बाद जो अध्याय लिखे जाने चाहिए थे वे नहीं लिखे गए हैं. ऐसा लगता है कि इनके लेखकों की कलम ठिठक गई है.

इनमें से राजनीतिक, रणनीतिक, और अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस पूर्व राज्य को अभी तक एक केंद्रशासित प्रदेश ही बनाए रखा गया है, बेशक विशेष अधिकारों के साथ. इस बदलाव के चार साल बाद भी इस ‘राज्य’ का शासन केंद्र के हाथों में है और राजनीतिक प्रक्रिया को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.

इन बदलावों के बाद दिए गए अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर को वापस पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात की थी. तब आपने सोचा होगा कि नये चुनाव भी होंगे. अगले आम चुनाव की प्रक्रिया कुछ महीने बाद शुरू होगी लेकिन वहां चुनाव करवाने की कोई बात नहीं की जा रही. यह उपेक्षा है. यह न केवल कश्मीर के लोगों की बल्कि व्यापक भारतीय सरोकारों की उपेक्षा है.

यह इतना निराशाजनक क्यों है, इसे समझने के लिए उन दशकों को याद कीजिए जब ‘कश्मीर विवाद’ दुनिया के रडार पर एक चिंताजनक धब्बा था. हमें 1948 (युद्धविराम और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों) या 1972 (शिमला समझौते) को याद करने की जरूरत नहीं है. 1989 के आखिरी दिनों से ही शुरुआत करना बेहतर होगा.

तभी से पाकिस्तान की शह पर वहां अलगाववादी बगावत शुरू हुई थी (हालांकि आज वह काफी कमजोर पड़ चुकी है). 1991 तक, जब पी.वी. नरसिंहराव ने बागडोर संभाल ली थी और वे राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले मैं अब तक की सबसे कमजोर वी.पी. सिंह सरकार के द्वारा छोड़ी गई घालमेल की सफाई में जुटे थे तब तक पाकिस्तान ने इस मसले का पूरी तरह अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया था.

पाकिस्तान ने तिहरी मुहिम चलाई. उसने मानवाधिकारों के उल्लंघन, राज्य पर सेना के कब्जे, लोकतंत्र के निषेध तथा आत्मनिर्णय अधिकार के उल्लंघन के सवाल उठाए. यानी उसने घड़ी की सुई को वापस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और रायशुमारी के मुद्दे पर अटका दिया था.

राव ने इस सबका उसी तरह जवाब दिया जिस तरह उनके पूर्ववर्ती देते रहे थे, लेकिन राव काफी आत्मविश्वास और नैतिक शक्ति से लैस थे. जब कश्मीर के लोग बड़ी संख्या में वोट देकर अपनी सरकार चुन रहे हैं तब किसी रायशुमारी का क्या औचित्य है? क्या वे चुनाव आत्मनिर्णय और लोकतंत्र के प्रमाण नहीं हैं? बेशक, न केवल पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर बल्कि पूरे पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति से रोचक तुलनाएं भी की जाती थीं.

राव को ज्यादा आत्मविश्वास इस तथ्य से हासिल हुआ कि भारत अब कश्मीर में पहले के विपरीत निष्पक्ष चुनाव करवा रहा था. तब 1987 में वहां हुआ चुनाव ऐसा आखिरी चुनाव था जो ‘फिक्स’ था. राव ने मानवाधिकार के सवाल पर पड़ रहे दबावों का जवाब देने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया और विदेशी पत्रकारों की कश्मीर यात्रा पर रोक हटा ली. आज भारत राव के दौर वाले भारत से कहीं ज्यादा मजबूत है.

सबसे पहली बात यह है कि पिछले तीन दशकों में इसने आर्थिक ताकत बना ली है. इसके अलावा 2014 में मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली दक्षिणपंथी-राष्ट्रवादी सरकार सत्ता में आ गई है. भू-रणनीतिक परिवर्तनों, चीन के अनिष्टकारी उभार, युद्धोन्मुख रूस, और भारत-अमेरिका करीबी, इन सबने मिलकर भारत को इतिहास के अब तक के सबसे अनुकूल मुकाम पर ला खड़ा किया. यह वह वक़्त और मौका है जब अपनी योजनाओं और वादों को आगे बढ़ाया जा सकता है. तब नहीं जब यह चक्र घूम जाएगा, जो कि घूमेगा ही. वैश्विक मामलों में, सत्ता संतुलन, दोस्ताना रिश्ते, सब निरंतर बदलते रहते हैं.

इस अनुकूल मुकाम तक पहुंचने के लिए भारत ने कड़ी मेहनत की है. यही वजह है कि दुनिया की कोई बड़ी ताकत और कोई महत्वपूर्ण देश (चीन और तुर्की को छोड़ दें, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं) कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलावों पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है. लेकिन निश्चिंत होकर बैठ जाना जोखिम भरा और गैरजरूरी होगा.

कश्मीर पर दिल्ली से अनंत काल तक राज करने का विचार लुभावना लग सकता है, खासकर उन लोगों को जिनके हाथ में बागडोर है. जब आप इस तरह के जोश के आदी हो जाते हैं तब यह लंबे समय तक रस्सी पर चलने के करतब जैसा हो सकता है. गैरहाजिर रहे पांच देशों ने हमें यह याद दिला दिया है कि वे कश्मीर को अभी भी एक ‘विवाद’ के रूप में देखते हैं. बाकी कई देश यह कहते नहीं लेकिन कोई यह नहीं कह रहा कि यह विवाद 5 अगस्त 2019 को सुलझ गया.

यहां तक कि हमारा ‘स्वाभाविक रणनीतिक सहयोगी’ अमेरिका चीन के दावे का खंडन करते हुए यह प्रस्ताव तो पास करता है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है, लेकिन वह लद्दाख/अक्साई चीन के मामले पर खामोश रहता है.

कूटनीति में, कड़वी बातें खुलकर नहीं कही जातीं, न ही लंबे समय तक वे निजी बातचीत में दोहराई जाती हैं. लेकिन अमेरिका भी लद्दाख को ऐसे क्षेत्र के रूप में देखता है जिसको लेकर विवाद है और जिस पर भारत के दावे को उसने स्वीकार नहीं किया है.

अपने सरोकारों को मजबूती देने का सबसे अच्छा, बुद्धिमानी भरा और सबसे उचित उपाय जम्मू-कश्मीर को उसका राज्य का दर्जा लौटाना और वहां राजनीतिक गतिविधियों को मजबूती से शुरू करना ही है. कश्मीर में संवैधानिक बदलाव की जब हम चौथी वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं, मोदी के रिपोर्ट कार्ड में यह बॉक्स खाली पड़ा है.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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