scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टआज टूटा हुआ मणिपुर हमारी नज़रों और दिमाग से ओझल है, हम इतने कठोर और अहंकारी नहीं हो सकते

आज टूटा हुआ मणिपुर हमारी नज़रों और दिमाग से ओझल है, हम इतने कठोर और अहंकारी नहीं हो सकते

हममें से अधिकतर लोगों के लिए मणिपुर का संकट नज़र से दूर, ख़यालों से बाहर वाला मामला है. इतने छोटे और इतनी दूर के इस राज्य की खबरों पर हम बड़ी जम्हाई लेने लगते हैं मगर मैं आपको जगाना चाहता हूं.

Text Size:

एक राष्ट्र के तौर पर क्या हम सुदूर पूर्व के अपने राज्य मणिपुर की कोई परवाह करते हैं? आज वह ऐसे संकट में फंसा है जैसे संकट में भारत का कोई राज्य पंजाब की तरह नहीं फंसा था, जो 1983-93 के दशक में हिंदू-सिख संबंधों में दरार के कारण फंसा था या जम्मू-कश्मीर की तरह नहीं फंसा जो कश्मीर घाटी से पंडितों के हिंसक निष्कासन के कारण फंसा था.

ऊपर उठाए गए सवाल का एक जवाब तो ‘हां’ है, और दूसरा जवाब (एक बड़ी जम्हाई के साथ) ‘वास्तव में नहीं’ है. आइए, हम इसकी व्याख्या करें.

एक पल के लिए कल्पना कीजिए कि मणिपुर में एक नया बागी गुट उभर आया है और उसने भारत देश तथा सुरक्षा बलों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी है और यह दावा कर रहा है कि वह अलग राज्य के लिए लड़ रहा है. ऐसा होते ही फौरन हमारा ध्यान उसकी ओर चला जाएगा. यह साफ कर देता है कि हमारा उपरोक्त जवाब ‘हां’ क्यों है.

यह उतना काल्पनिक या नामुमकिन भी नहीं है. हम देख चुके हैं कि इस राज्य में कितने बागी गुट पैदा हुए और वे इंफाल घाटी तथा इसके पहाड़ी जिलों में लड़ाई लड़ चुके हैं. 1980 के दशक में एक समय चुनौती इतनी बड़ी थी कि उसका सामना करने के लिए सेना के एक पूरे डिवीजन (रांची से 23वें डिवीजन को भेजकर) को तैनात करना पड़ा था. मुझे मालूम है कि उस समय मणिपुर को सुर्खियों में शामिल करना कितना आसान था. तब मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के लिए तीन साल (1981-83) तक शिलांग से पूरे उत्तर-पूर्व की खबरें भेज रहा था और उस दौरान पहले पेज पर अपनी बाइलाइन के साथ खबर छपवाना बहुत आसान था.

ऐसा भारत की संप्रभुता के खिलाफ किसी भी खतरे या चुनौती की स्थिति में होता ही है, लेकिन तब क्या होता है जब खतरा किसी अलगाववाद से नहीं बल्कि शुद्ध सांप्रदायिक या जातीय मसले के कारण पैदा होता है?

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

आज मणिपुर में यही हो रहा है और हमें इसकी कोई परवाह नहीं है. यह पहले पेज की या प्राइम टाइम की खबर नहीं बन पा रही है.

हममें से अधिकतर लोगों के लिए यह नज़र से दूर, ख़यालों से बाहर वाला मामला है. मेरे ख्याल से, प्राइम टाइम टीवी के लिए तो यह “ये खबरें कौन देखेगा?’’ वाला सवाल है. इससे तो किसी “केरला स्टोरी’’ की या किसी मस्जिद और वाराणसी-मथुरा के मंदिरों की बात करना बेहतर है. इतने दूर के और इतने छोटे राज्य की खबर तो ऊब ही पैदा करेगी, लेकिन मैं यहां कुछ तथ्य रख रहा हूं जो आपकी नींद तोड़ देंगे और अगर आपको ज्यादा तफसील चाहिए तो हमारी डिप्टी एडिटर मौसमी दासगुप्ता और विशेष संवाददाता करिश्मा हस्नत की मणिपुर से भेजी रिपोर्ट पढ़िए.

  • जब कर्नाटक चुनाव के वोटों की गिनती चल रही थी और चुनाव नतीजों के राजनीतिक प्रभावों के बारे में हम ज्ञान बांट रहे थे, तब मणिपुर में आबादी की बड़ी अदलाबदली हो चुकी थी. ‘हो चुकी थी’ सोच-समझकर, जानबूझकर लिखा गया है. यह सौदा हो चुका है. आज मैतेइ जनजाति के किसी शख्स या आदिवासियों को आप इंफाल घाटी में ‘शरणार्थी शिविरों’ से बाहर या पहाड़ी जिलों में शायद ही पा सकते हैं. मैं यह कल्पना नहीं कर पा रहा हूं कि पिछले कई दशकों में हमारे किसी राज्य में इस तरह आपसी सहमति से पूर्ण ‘जातीय सफाए’ का कोई और उदाहरण मिल सकता है या नहीं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि 10 कुकी विधायकों (जिनमें शासक भाजपा के 7 और उसके सहयोगियों के 3 विधायक शामिल हैं) ने केंद्रीय गृह मंत्री को भेजे संयुक्त ज्ञापन में ‘जातीय सफाए’ और ‘बंटवारा’, दोनों शब्दों का प्रयोग किया है. वे सही हैं. कथित रूप से दबंग मैतेइ समुदाय के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन वे इन दो शब्दों का विरोध नहीं करेंगे. वे कह सकते हैं कि कुकी नहीं बल्कि वे भुक्तभोगी हैं, लेकिन तथ्य यह है कि दोनों समान और दुखद रूप से पीड़ित हैं.
  • 19 मई की शाम को यह लेख लिखा जा रहा है. मणिपुर में इंटरनेट 15 दिनों से बंद है. आज जब हमारा जीवन इंटरनेट से चल रहा है, आप कल्पना कर सकते हैं कि वहां आम लोगों को कितनी परेशानी हो रही होगी. ज़रूरी सामानों की कीमतें आसमान छू रही हैं, रात 3-4 बजे से ही लोग एटीएम के सामने खड़े हो जाते हैं जिनमें नकदी देर रात में भरी जाती है. मणिपुर में सूरज बहुत जल्दी उग जाता है, जैसे आज 4:28 पर उगा. जो लोग राज्य से बाहर जा सकते थे वे चले गए हैं. क्या ‘भारत सरकार’ का हुक्म यहां चलता है? फिलहाल तो किसी का नहीं चल रहा है.
  • अगर आप जानना चाहते हैं कि यहां जातीय विभाजन कितना गहरा हो गया है, तो मौसमी और करिश्मा की खबरें पढ़िए. आज राज्य सचिवालय में किसी कुकी अफसर को ढूंढ पाना नामुमकिन है. पुलिस के महानिदेशक पाओतिनमांग दाउंगेल, जो कुकी हैं, लगभग कुछ नहीं कर पा रहे हैं, और आप इसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते.
  • भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है. मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह (उत्तर-पूर्व में भाजपा के अधिकतर मुख्यमंत्री कांग्रेसी हैं) को अपने चार मंत्रियों, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और राज्य के पारंपरिक तथा नाममात्र के महाराजा लेईशेंबा सनाजाओबा के साथ इस सप्ताह के शुरू में दिल्ली बुलाया गया. ध्यान रहे कि ये सब मैतेइ हैं. कुकी लोग, भाजपा के कुकी, खुद ही दिल्ली पहुंचे, इस मांग के साथ कि उन्हें अपनी ही राज्य सरकार से मुक्त किया जाए और अलग प्रशासन दिया जाए.

मुझे पक्का विश्वास है कि आपने किसी और भारतीय राज्य में कभी ऐसा नहीं देखा होगा. और मुझे यह भी विश्वास है कि हममें से अधिकतर लोगों को यह भी नहीं मालूम होगा कि यह सब हो चुका है. यह इस सवाल का जवाब दे देता है कि क्या हमें वाकई कोई परवाह है? इस पर एक और लंबी जम्हाई!


यह भी पढ़ें: सिर्फ BJP ही नहीं, सभी पार्टियों को क्यों कर्नाटक में कांग्रेस की प्रचंड जीत से सीख लेनी चाहिए


जातीय विभाजन कोई नयी बात नहीं है. मणिपुर में पारंपरिक रूप से एक मैतेइ राजा का राज रहा. 11 अगस्त 1947 को तत्कालीन महाराजा बुधचंद्र ने भारत में विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किया और 21 सितंबर 1949 को विलय समझौता हुआ लेकिन सत्ता मैतेइयों के हाथ में रही. वे बहुमत में थे मगर बहुत मामूली बहुमत में. आज वे 53 प्रतिशत हैं जबकि आदिवासी करीब 45 फीसदी हैं और मुख्यतः कुकी समूहों (कुकी-चिन-ज़ोमी-मिज़ो-हमार) और नगा समूहों (तंगखुल, माओ और कुछ और) में बंटे हैं.

सत्ता पारंपरिक रूप से दबंग हिंदू मैतेइयों के हाथ में रही है. 1963 में पहला मुख्यमंत्री बनने के बाद से जितने भी मुख्यमंत्री बने उनमें केवल दो ही आदिवासी थे. यांगमासो शाइज़ा 1974 और 1977 के बीच दो बार मुख्यमंत्री रहे, लेकिन कुल तीन साल ही सत्ता में रहे. रीशांग कीशांग कुल मिलाकर सात साल सत्ता में रहे, लेकिन कोई भी कुकी समुदाय के नहीं थे. दोनों उखरुल जिले के तंगखुल नगा थे. यह आदिवासी समुदाय इसलिए ताकतवर बन गया था क्योंकि इसके प्रमुख सदस्य टी. मुइवा सत्तर के दशक में काफी अहम बागी नगा नेता के रूप में उभरे थे.

शाइज़ा ने नगा विद्रोह के जनक झापू अंगामी फ़िज़ो की भतीजी राणो से शादी की थी. दोनों ने नई दिल्ली और अंडरग्राऊंड नगाओं के बीच शिलांग शांति समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन मुइवा का संगठन ‘एनएससीएन’ इससे अलग रहा और उसके “लड़ाकों” ने 30 जनवरी 1984 को शाइज़ा की हत्या कर दी.

रीशांग के बाद कांग्रेस के भी कमजोर पड़ने के कारण आदिवासियों की राजनीतिक ताकत कम हो गई.

यह भी आज के अविश्वास और संकट की वजह बनी है. इसे भाजपा-हिंदू-ईसाई (आदिवासी) संबंधों के चश्मे से देखने का लोभ पैदा हो सकता है लेकिन इससे बचिए. यह पूर्ण वास्तविकता नहीं है. सदभाव का पुराना ‘नियम’ कहता है कि जिस मामले के पीछे अक्षमता वजह रही हो उसमें किसी साजिश को तलाशने की कोशिश मत कीजिए.

चार दशक पहले, जब मैं उत्तर-पूर्व से खबरें भेजता था तब मैंने उस राज्य मेघालय की, जहां शिलांग में मैं रहता था, खबर कभी नहीं भेजी, क्योंकि वहां कोई गड़बड़ी नहीं थी. मैं वहां की विचित्रताओं पर रिपोर्ट भेज सकता था, मसलन डॉलीमूर वानखर नाम के आश्चर्यजनक शख्स के बारे में जो एशट्रे, असली तितलियों से वाल-प्लेट (जो अब गैरकानूनी होगा) बनाते थे. या अपनी पुलिस रखने वाले आदिवासी सरदारों की परंपराओं पर रिपोर्ट भेज सकता था, या ‘तीर’ नामक अनोखे खेल पर रिपोर्ट, जो हुनर से ज्यादा जुए का खेल था.

खासी समुदाय के एक अफसर ने तंज़ कसते हुए मुझसे पूछा था कि “तुम्हारे अखबारों के पहले पन्ने पर हेडलाइन पाने के लिए हमें कितने भारतीयों को मारना चाहिए, शेखर?” क्या इसलिए आज हम मणिपुर की परवाह नहीं कर रहे, कि वे ‘हमारे’ किसी भारतीय की हत्या नहीं कर रहे? लेकिन पिछले तीन सप्ताह के दंगों में कम-से-कम जो 73 भारतीय मारे गए वे कौन थे?

मणिपुर एक काफी छोटा, 33-35 लाख की विविध किस्म की आबादी वाला राज्य है. वे आज इतने प्रतिभाशाली हैं कि हम उनके बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकते. वे सिविल सेवाओं में हैं, सेना, आतिथ्य क्षेत्र, खेलकूद, कला-संस्कृति, सभी क्षेत्रों में हैं. जो भी लड़ रहा है, मर रहा है, शरणार्थी बन रहा है उनमें से हर एक ‘हमारा’ भारतीय है. वे हमारे अपने भाई-बहन, बच्चे, साथी हैं.

हम उनकी तकलीफों के प्रति इतने लापरवाह, अज्ञानी, और संवेदनहीन नहीं हो सकते, बशर्ते हम इतने अहंकारी न हों कि हम यह सोच लें कि उन्हें गंवा दिया जा सकता है.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कर्नाटक चुनाव के 10 सबक: मोदी मैजिक की है सीमा, कमजोर CM नुकसानदायक, ध्रुवीकरण से जुड़े हैं जोखिम भी


 

share & View comments