भारतीय जनता पार्टी के तमाम पर्यवेक्षक पूछ रहे हैं कि राम मंदिर भूमि पूजन, अनुच्छेद 370 और तीन तलाक के बाद अब ‘आगे क्या?’ भाजपा के भविष्य के एजेंडे का सुराग दो कारकों में निहित है: एक यह कि अतीत में, 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पार्टी की राजनीति कैसे बदली और दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी खुद की भूमिका को कैसे देखते हैं.
विध्वंस के बाद, जैसा राजनीति विज्ञानी जॉन मैकगायर कहते हैं, भाजपा ने ‘संकट के क्षण’ का सामना किया था. इसने राम मंदिर आंदोलन का राजनीतिक लाभ भुनाया लेकिन अब जब यह मुद्दा पूरा हो चुका है तो इसे खुद को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा.
भाजपा अगले चार वर्षों तक ऐसा करेगी, खुद को एक कट्टर हिंदुत्व वाली पार्टी से शासन वाली पार्टी बनाना— जो कांग्रेस का एक राष्ट्रीय विकल्प हो. जब 1996 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे, लालकृष्ण आडवाणी ‘सुराज’ (सुशासन) यात्रा पर थे और अटल बिहारी वाजपेयी बहुलतावाद और सहिष्णुता को लेकर भाजपा की प्रतिबद्धता पर जोर दे रहे थे.
कुछ आशावादी लोग हैं जिन्हें उम्मीद है कि इसके दक्षिणपंथी मुद्दों- राम मंदिर, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, अनुच्छेद 370, तीन तलाक का सफल अंजाम इसी तरह फिर ‘केंद्र में पहुंचाने’ में मददगार होगा. भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संभावित लाभ की सीमा तक पहुंच गई है और अंततः शासन के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगी.
इस राय को एकदम गलत समझा गया. पिछले साल एक लेख में मैंने तर्क दिया था कि मोदी का पहला कार्यकाल हिंदुत्ववादी विचारक दीन दयाल उपाध्याय के सामाजिक कल्याण के साथ मिश्रित ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ से परिभाषित था लेकिन इसका दूसरा कार्यकाल वी.डी. सावरकर के ‘कट्टर हिंदुत्व’ वाले भारतीय राष्ट्र के पुनर्निर्माण से परिभाषित होगा. पहले कार्यकाल का इस्तेमाल मोदी ने भारतीय राजनीति के ‘केंद्र’ और ‘मुख्यधारा’ को धैर्यपूर्वक परिभाषित करने में किया, जबकि ‘मुख्य मुद्दों’ पर अमल को रोककर रखा. इस पुनर्परिभाषित केंद्र से मोदी ने आखिरकार अपने परिवर्तनकारी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को पूरा किया और यह संभवतः उनके दूसरे कार्यकाल के लिए बाकी समय में भी जारी रहेगा. अगले बड़े राजनीतिक मुद्दे यूसीसी (समान नागरिक संहिता) और एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) होने की संभावना है.
मोदी के नेतृत्व में भाजपा ‘हिंदू पहचान’ और ’राष्ट्रीय पहचान’ दोनों को पुनर्निर्धारित कर रही है, जो एक ऐसा काम है जो अभी अपने अंतिम पड़ाव से काफी दूर है.
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सहयोगी दलों के लिए बदलाव की जरूरत
1990 के दशक के मध्य में भाजपा का विस्तार राजनीतिक मॉडरेशन पर आधारित था. 1996 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली उसकी गठबंधन सरकार 13 दिनों में गिर गई क्योंकि शिवसेना, समता पार्टी और शिरोमणि अकाली दल को छोड़कर कोई भी बड़ी पार्टी सांप्रदायिक छवि के कारण इसकी सहयोगी नहीं बनना चाहती थी. जैसा कि राजनीति विज्ञानी माइकल गिलन ने अपने अध्ययन असेसिंग द ‘नेशनल’ एक्सपेंशन ऑफ हिंदू नेशनलिज्म: द बीजेपी इन साउदर्न एंड ईस्टर्न इंडिया 1996-2001, में जिक्र किया है कि भाजपा ने इस चरण में आक्रामक रूप से एक कांग्रेस-विरोधी समान मंच के आधार पर गठबंधन सहयोगियों को जोड़ा और हिंदुत्व को एक बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के बजाये क्षेत्रीय संदर्भों के अनुरूप हिंदुत्व का पुनर्निर्धारण किया. वास्तव में भाजपा के 1999 के घोषणापत्र में आश्चर्यजनक रूप से राम मंदिर का कोई उल्लेख नहीं था.
भाजपा अब अपने प्रभुत्व के चरण में है और क्षेत्रीय सहयोगियों की बाध्यताओं से मुक्त हो चुकी है. भाजपा के वैचारिक एजेंडे के अनुरूप समझौता क्षेत्रीय दलों को करना पड़ रहा है जैसा हाल ही में आप और बसपा के साथ देखा गया, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है.
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राज्यों के लिए एक राष्ट्रीय ‘मॉडल’
हिंदुत्व अब भाजपा के सुदृढ़ीकरण और विस्तार का मार्ग है. पश्चिम बंगाल में राजनीतिक लड़ाई भाजपा के हिंदुत्व और ममता बनर्जी के बंगाली गौरव के बीच है, जो दिल्ली के एकाधिकार का विरोध करता है. तेलंगाना में भाजपा टीआरएस पर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के तुष्टीकरण का आरोप लगाती है, राज्य के पुनर्गठन दिवस को मुस्लिम उत्पीड़न से मुक्ति के रूप में मनाती है और इसके प्रदेश अध्यक्ष ने यूसीसी का वादा किया है. असम में, भाजपा की पूरी राजनीति ‘बांग्लादेशी मुस्लिमों के खतरे पर आधारित है. इन राज्य-स्तरीय सांप्रदायिक एजेंडों को आवश्यक रूप से एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में पेश किया जाना है.
ऐसे में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की तरफ से अल्पसंख्यकों के विशेष संरक्षण, एक ऐसा आरोप जिस पर वह राजनीतिक तौर पर कमजोर है, को चुनौती देते हुए भाजपा पश्चिम बंगाल में 2021 के चुनाव से पहले यूसीसी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकती है. इसे बंगाल (और अन्य प्रमुख राज्यों) में पूरक रूप से लाया जाएगा जिसे राजनीति विज्ञानी सुधा पई और सज्जन कुमार दंगे का उत्तर प्रदेश ‘मॉडल’ बताते हैं. लेखकों ने अपनी किताब एवरीडे कम्युनलिज्म: रॉयट्स इन कंटेम्परेरी उत्तर प्रदेश में लिखा है- ‘शुरुआती चरण में बड़े और हिंसक राज्यव्यापी दंगों को उकसाने के बजाए भाजपा-आरएसएस ने रोजमर्रा में अमूमन अक्सर ही होने वाले छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर बुनियादी स्तर पर निरंतर और कम तीव्रता वाले हल्के-फुल्के सांप्रदायिक तनाव को उकसाने और उसे जारी रखने का प्रयास किया ताकि इसे लेकर राजनीतिक उबाल बना रहे.’
वास्तव में, हम बंगाल में पहले से ही इस मॉडल का खेल देख रहे हैं, इसका ताजा उदाहरण तेलिनिपारा दंगे हैं. उत्तर प्रदेश में, हम ‘हिंदू चेतना’ फिर जागृत करने के नाम पर 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राम मंदिर को पूरा होते देख सकते हैं.
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मोदी की ‘भूमिका’
नरेंद्र मोदी की अगुवाई में व्यापक हिंदू एकीकरण अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है. जाति और क्षेत्रीय पहचान अब भी बुनियादी स्तर पर मजबूत है. यदि भाजपा ‘हम बनाम वह (मुस्लिम)’ के अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवादी एजेंडे में थोड़ी भी ढील देती है तो क्षेत्रीय और जातिगत पहचान के मुद्दे राजनीतिक रूप से मजबूत होंगे और पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करेंगे. यही वजह है कि पिछड़ी जातियों की पहचान को धीरे-धीरे हिंदुत्व का हिस्सा बनाया जा रहा है, जिसे ‘सबाल्टर्न हिंदुत्व ‘ के रूप में जाना जाता है. प्रधानमंत्री का अयोध्या में अपने भाषण के दौरान राजा सुहेलदेव का जिक्र करना इस रणनीति का सबसे ताजा उदाहरण है, जो पिछड़ी जाति के एक आइकन हैं जिन्होंने मुस्लिम आक्रामकता का विरोध किया था.
मोदी अब शायद ही कभी राहुल गांधी, मनमोहन सिंह या राजीव गांधी का नाम लेते हैं क्योंकि वह उनके साथ प्रतिस्पर्धा कर ही नहीं रहे हैं. उन्होंने अपनी प्रतिस्पर्धा के लिए आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रख्यात वास्तुकार, जवाहरलाल नेहरू को चुना है, जिन्होंने आजादी के बाद शुरुआती चार दशकों के लिए देश की दशा-दिशा निर्धारित की थी.
मोदी खुद को उसी तरह एक ऐतिहासिक संदर्भ में प्रस्तुत करते हैं, एक आर्थिक सुधारक या सामाजिक कल्याणकारी लोकप्रिय हस्ती के बजाये एक राष्ट्र निर्माता— या पुनर्निर्माता— एक ‘भगवा नेहरू’ के रूप में. पूर्व राजनेताओं को एक या दो बार में जवाबदेह ठहराया जा सकता है लेकिन लोग समझते हैं कि राष्ट्र का पुनर्निर्माण एक लंबी चलने वाली प्रक्रिया है. जिस तरह देश ने नेहरू को अपनी परियोजनाएं पूरी करने के लिए तीन कार्यकाल दिए, मोदी भी परोक्ष रूप से भारतीयों से कह रहे हैं कि उसी तरह एक लंबी अवधि के लिए उन पर भरोसा करें.
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अर्थव्यवस्था अब राष्ट्रीय मुद्दा नहीं
लोग तो लगता है कि इस तरह की राजनीति में उलझ गए हैं. राज्यों में तो आर्थिक मुद्दों पर विफलता- जैसे किसान संकट और बेरोजगारी— आदि पर भाजपा को दंडित कर सकते हैं जैसा हमने महाराष्ट्र और हरियाणा में देखा लेकिन राष्ट्रीय राजनीति से आर्थिक मुद्दा एकदम हट गया है. अब जबकि भारत आजादी के बाद से सबसे खराब आर्थिक मंदी की स्थिति में है, तब भी मोदी की लोकप्रियता एक सर्वकालिक शीर्ष स्तर पर है.
यह भाजपा के लिए मददगार है क्योंकि आर्थिक मंदी से इतना तो तय है कि मोदी सरकार 2024 में किसी भी बड़ी आर्थिक उपलब्धियों के साथ मैदान में नहीं उतरेगी. इतनी गहरी मंदी से उबरने में अर्थव्यवस्था को सालों लगते हैं. चूंकि राजकोषीय स्थिति का बड़ा हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य/आर्थिक संकट के दुष्प्रभावों को दूर करने में लगेगा, इसलिए भाजपा के लिए सामाजिक क्षेत्र की कोई नई बड़ी योजना शुरू करने या कल्याणकारी कार्यों के लिए मौका नहीं होगा.
यह तथ्य कि, मोदी अब ‘2022 तक भारत’ के बारे में लगभग न के बराबर बात करते हैं— जिसके तहत आवास, बिजली, इंटरनेट और पेयजल जैसे क्षेत्रों में महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए गए थे, इस बात का संकेत है कि उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा. न ही यह संभावना है कि मोदी बड़े आर्थिक सुधारों पर अधिक राजनीतिक पूंजी खर्च करेंगे, न ही आर्थिक मुद्दे राजनीतिक बहस के केंद्र में वापस आएंगे.
यदि विपक्ष यह सोच रहा है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवादी मुद्दे खुद ब खुद हाशिये पर चले जाएंगे और भौतिक मसले फिर केंद्र बिंदु बन जाएंगे तो उसे काफी लंबे समय तक इंतजार करना होगा. यह लगभग तय है कि भाजपा 2024 में हिंदू राष्ट्रवाद के रथ पर सवार होगी क्योंकि यह न केवल सबसे मजबूत विकल्प है बल्कि कई मायने में तो एकमात्र विकल्प भी है.
माओ ने अपनी शासन प्रणाली को ‘स्थायी क्रांति’ बताया था. ‘क्रांति के लिए किसी को तब चोट करनी चाहिए जब लोहा गर्म हो— एक के बाद दूसरी क्रांति होनी चाहिए, क्रांति लगातार जारी रहनी चाहिए.’ यही वह रास्ता है जिस पर चलकर सदियों लंबे सामंतवाद और साम्राज्यवाद के दौर के बाद नए चीनी राष्ट्र का निर्माण हुआ है.
मोदी वाली हिन्दुत्व की विचारधारा में सदियों तक चले मुस्लिम/ब्रिटिश/धर्मनिरपेक्ष शासन- मोदी के ही शब्दों में कहें तो ‘1200 साल की गुलाम मानसिकता’ के बाद भारतीयता उभर रही है. अनुच्छेद 370, सीएए, और राम मंदिर का भूमि पूजन नई ‘स्थायी क्रांति’ का सिर्फ एक चक्र है— ‘नए भारत’ के निर्माण के लिए ‘क्रांति’ के ऐसे कई चक्र अपनी भूमिका निभाने का इंतजार कर रहे हैं.
(लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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