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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतमीरवाइज मोहम्मद फारूक के हत्यारों की गिरफ्तारी कश्मीरी जिहाद के पीछे छिपे झूठ का पर्दाफाश कर सकता है

मीरवाइज मोहम्मद फारूक के हत्यारों की गिरफ्तारी कश्मीरी जिहाद के पीछे छिपे झूठ का पर्दाफाश कर सकता है

कुछ नेताओं ने अपने अपराधों के लिए पाकिस्तान में जिहादी समूहों और उनके स्पॉन्सर्स को दोषी ठहराया है. सच बोलना सुनिश्चित करना कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा.

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एक चश्मदीद ने याद करते हुए कहा कि मरे हुए लोग गिरे हुए सेब की तरह सड़कों पर पड़े थे, जब श्रीनगर के मौलवी मीरवाइज मोहम्मद फारूक के जनाजे में मशीन-गन की फायरिंग होने लगी. शहर की संकरी गलियों से घायलों को निकालने के लिए फलों के ठेलों का इस्तेमाल किया गया. पचास लोग मारे गए, और सैकड़ों घायल हुए. केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने जुलूस पर गोलियां चलाईं, जम्मू और कश्मीर के मानवाधिकार आयोग ने दशकों बाद रिकॉर्ड किया, और इसकी कभी भी ठीक से जांच नहीं की गई, और किसी पर मुकदमा नहीं चलाया गया.

अलगाववादी नेता मौलवी उमर फारूक के पिता, मीरवाइज कश्मीर के भारत विरोधी आंदोलन को खड़ा करने में एक प्रमुख व्यक्ति थे. वह तब मारा गया जब जिहादियों को भारत के साथ शांति स्थापित करने के उसके गुप्त प्रयासों के बारे में पता चला.

अंत में, मीरवाइज को श्रीनगर में मजार-ए-शुहादा, या शहीदों के कब्रिस्तान में दफनाया गया. चार हफ्ते बाद उनकी हत्या करने वाले जिहादी मोहम्मद अब्दुल्ला बांगरू को पुलिस ने मार गिराया. एक जुलूस उसे भी कब्रिस्तान- मजार-ए-शुहादा – ले जाने के लिए फिर से इकट्ठा हुआ और उसे मीरवाइज के बगल में दफनाया गया. समर्थकों के मन यह धारणा बिल्कुल स्पष्ट थी कि दोनों शहीद हैं और उन्होंने एक ही उद्देश्य के लिए जान गंवाई है.

इस हफ्ते की शुरुआत में, कश्मीर में पुलिस ने मई 1990 में मीरवाइज की हत्या में शामिल होने के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया था – एक ऐसी हत्या जिसने दशकों में होने वाले एक बड़े नरसंहार और हत्याओं को जन्म दिया.

कातिलों को भूलना

दशकों से, कथित भगोड़े, जावेद भट और जहूर भट छिपकर रह रहे थे. जिहाद शुरू होने से पहले एक कार मैकेनिक के रूप में काम करने वाला 1974 में पैदा हुआ आठवीं कक्षा का स्कूल ड्रॉपआउट जहूर, काठमांडू भाग गया था. फिर, 2007 में, वह श्रीनगर लौट आया और फिर से अपने घर पर रहने लगे.

जहूर की तरह, जावेद भी -जिसने हाई स्कूल खत्म करने के तुरंत बाद पाकिस्तान में एक जिहाद ट्रेनिंग कैंप ज्वाइन कर लिया था – हत्या के बाद नेपाल चला गया. फिर, वह 2003 में श्रीनगर के पास सोलिना में आकर रहने लगा.

कश्मीर पुलिस के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया है कि ख़ुफ़िया सेवाओं को दो लोगों की वापसी के बारे में पता था, लेकिन उन्हें उन पर मुकदमा चलाने के बजाय हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन के खिलाफ प्रयोग करने की उम्मीद थी. दो प्रमुख संदिग्ध, हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन के कमांडर अब्दुल्ला बांगरू और उनके डिप्टी अब्दुल रहमान शिगन, 1990 के दशक में एक मुठभेड़ में मारे गए थे. सेल के तीसरे सदस्य मोहम्मद अयूब डार को सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में दोषी ठहराया था.

हवाल हत्याकांड की तरह, मीरवाइज के हत्यारों को आधिकारिक तौर पर जानबूझकर छोड़ कर रखा गया.

शत्रु और मित्र

पिछली शताब्दी की शुरुआत से, शेर और बकरा की सेनाओं – पहला शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के पसंदीदा ‘द लायन ऑफ कश्मीर’ के सम्मान के संदर्भ में, दूसरा मीरवाइज के समर्पित समर्थकों की बकरी जैसी लंबी दाढ़ी के लिए — ने श्रीनगर की सड़कों पर नियंत्रण के लिए संघर्ष किया था. डोगरा सम्राट, महाराजा हरि सिंह ने उनकी सत्ता की खिलाफत करने वाले शिक्षित राष्ट्रवादी राजनेताओं की नई पीढ़ी के विरुद्ध श्रीनगर में जामिया मस्जिद को नियंत्रित करने वाले मीरवाइज यूसुफ शाह के साथ गठबंधन किया था.

यहां तक कि दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर सहयोग और पारंपरिक विचारों से अलग विचार रखने का आरोप लगाया, पर वे अक्सर कश्मीर में भारतीय राज्य के प्रभाव को रोकने के लिए एक साथ आए.

1963 में हजरतबल दरगाह से एक पूज्य धार्मिक अवशेष के गायब होने के बाद, दोनों पक्षों ने एक साथ मिलकर नई दिल्ली पर दबाव बनाया. विद्वान नवनीता बेहरा लिखती हैं कि जैसे ही भीड़ ने मुख्यमंत्री गुलाम मुहम्मद बख्शी के परिवार के स्वामित्व वाली संपत्तियों पर हमला किया, और राज्य सरकार विघटित हो गई, दोनों ने “एक अनाधिकृत समानांतर प्रशासन चलाया, जो यातायात, कीमतों और वाणिज्य को नियंत्रित करता था”.

अपने मंच से, मीरवाइज फारूक ने 1965 के युद्ध में पाकिस्तान की जीत के लिए अस्पष्ट अपील की. दोनों गुटों के सदस्यों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों के परिवारों द्वारा आयोजित विवाह, अंत्येष्टि और धार्मिक समारोहों का भी बहिष्कार किया.

बाद में, 1983 में, पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने एक चुनाव अभियान में मीरवाइज मोहम्मद फारूक के साथ गठबंधन किया, जिसकी सांप्रदायिक बताकर निंदा की गई. हालांकि, गठबंधन ने अब्दुल्ला को जमात-ए-इस्लामी कश्मीर से प्रतिस्पर्धा को दूर करने में मदद की- जबकि कांग्रेस ने जम्मू में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हरा दिया- राज्य में जातीय-धार्मिक गलतियां काफी गहरी हो गईं.

शांति व्यवस्था के खतरे

जिहादी समूहों के उदय ने श्रीनगर और जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (JKNC) में धार्मिक आकाओं को खतरे में डाल दिया और दोनों पक्षों ने संकट को कम करने के लिए काम करना शुरू कर दिया. मीरवाइज मोहम्मद फारूक ने पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण के लिए सार्वजनिक रूप से जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों की निंदा की. बाद में, विद्वान बलराज पुरी ने खुलासा किया कि उन्होंने पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस सहित नई दिल्ली में कई लोगों से संपर्क करना शुरू किया.

राजनीतिक शांति-निर्माण के आगामी प्रयासों के विफल हो जाने से दसियों हज़ार लोगों की जान चली जाने वाली थी. मीरवाइज की हत्या ने भविष्य में शांति वार्ता के प्रयासों पर भी पानी फेर दिया.

1998 के बाद से, अलगाववादी नेताओं मीरवाइज उमर फारूक और अब्दुल गनी लोन ने हिंसा को समाप्त करने के लिए एक नया प्रयास शुरू किया. तीन साल बाद पाकिस्तान में नेताओं के साथ एक गुप्त बैठक में, विद्वान लॉरेंस लिफ़शुट्ज़ ने कहा कि लोन ने जिहादियों से “हमें अकेला छोड़ देने” की याचना की.

“उनकी उपस्थिति हमारे संघर्ष के लिए हानिकारक है,” लोन ने कहा, “विशेष रूप से क्योंकि उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय जिहादी एजेंडा शुरू किया है.” लोन ने इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के प्रमुख एहसान-उल-हक को एक डॉयलाग प्रोसेस का समर्थन करने के लिए भी लॉबिंग की.

2001 में उमर फारूक के पिता मीरवाइज मोहम्मद फारूक की हत्या की याद में हथियारबंद लोग मंच के चारों ओर इकट्ठा हो गए और लोन डाउन के नारे लगाए. “हाथ में हाथ दो, लश्कर को साथ दो” [लश्कर-ए-तैयबा के साथ हाथ में हाथ मिलाकर चलो] के नारे लगे. “हुर्रियत में रहना होगा तो पाकिस्तान कहना होगा” [वे जो हुर्रियत में रहना चाहते हैं उन्हें पाकिस्तान का समर्थन करना चाहिए] एक और था. हालांकि, लोन ने झुकने से इनकार कर दिया.

भारतीय खुफिया सेवाओं द्वारा सक्षम, और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन से, शांति प्रक्रिया हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन के प्रमुख नेताओं को युद्धविराम स्वीकार करने के लिए राजी करने में सफल रही. हालांकि युद्धविराम विफल हो गया, लोन ने इसे फिर से जीवित करने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 2002 के एक हस्ताक्षरित लेख में, हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के डिप्टी कमांडर-इन-चीफ अब्दुल अहमद भट ने वादा किया था कि एक शांति प्रक्रिया उनके कैडर को “तुरंत बंदूकें छोड़ने और वास्तविक युद्धविराम का पालन करने” के लिए प्रेरित करेगी.

लोन को कुछ ही दिनों में गोली मार दी गई, ठीक उसी तरह जैसे मीरवाइज मोहम्मद फारूक को मारी गई थी. किसी भी मामले में मारे गए नेताओं के परिवार वालों ने सार्वजनिक रूप से उनके हत्यारों की पहचान नहीं की है. लोन के कथित हत्यारे रफीक लिद्री को भी मजहर-ए-शुहादा में दफनाया गया था और अंत्येष्टि में मीरवाइज उमर फारूक ने भाग लिया था.

झूठ लंबे समय से कश्मीर अलगाववादी आंदोलन के केंद्र में है. इसके कुछ नेता अपने अपराधों के लिए पाकिस्तान में जिहादी समूहों और उनके स्पॉन्सर्स को दोषी ठहराने का साहस जुटाते रहे हैं. हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में भारतीय राज्य की विफलता, और गलत निर्णयों व अवसरवाद के अपने लंबे रिकॉर्ड ने अलगाववादियों को अपनी छल की राजनीति को बनाए रखने में सक्षम बनाया है.

कश्मीर में बड़ी मुश्किल से जीती गई लेकिन नाजुक शांति को हासिल करने के लिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि सच्चाई बताई जाए.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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