करीब एक पखवाड़े से मीडिया अज्ञात सरकारी और सैन्य सूत्रों के हवाले से यह खबर दे रहा है कि सेना में भर्ती की एक नयी ‘अग्निपथ प्रवेश योजना’ जल्द ही लागू होने जा रही है. इस योजना के तहत नियुक्त सैनिक ‘अग्निवीर’ कहाएंगे और उन्हें तीन साल के ‘टुअर ऑफ ड्यूटी’ के लिए भर्ती किया जाएगा जिसमें पेंशन की व्यवस्था नहीं होगी मगर सेवा से मुक्त किए जाने के बाद रोजगार पाने में ‘मदद’ करने का वादा किया जाएगा. यह ‘मदद’ किस तरह की होगी यह स्पष्ट नहीं किया गया है. उनकी मृत्यु लड़ाई में या ‘फौजी सेवा’ में होती है तो उसे नियमित सैनिक की मृत्यु जैसा ही माना जाएगा. इन नियुक्तियों में से एक निश्चित प्रतिशत को योग्यता के आधार पर नियमित सैनिक के रूप में रख लिया जाएगा.
यह योजना मुख्यतः इसलिए लाई जा रही है क्योंकि सेना में बढ़ते पेंशन बिल को घटाना जरूरी हो गया है. इसके दूसरे लाभ ये बताए जा रहे हैं— सेना में सैनिकों की औसत उम्र कम होगी; नियमित सैनिकों का केरियर बेहतर हो सकता है; सेना और समाज के बीच संबंध मजबूत हो सकता है, और युवाओं में फौजी गुण और राष्ट्रभक्ति की भावना भरी जा सकती है; और युवाओं को सेना में सेवा देकर अपनी उम्मीदों को पूरा करने का अवसर दिया जा सकता है.
अफसरों/सैनिकों को अल्प अवधि के लिए नियुक्त करना सेना में मानव शक्ति के बेहतर उपयोग और पेंशन बिल को कम करने का आजमाया हुआ नुस्खा रहा है. भारतीय सेना इससे अपरिचित नहीं है. ‘अग्निपथ प्रवेश योजना’ निश्चित ही सुधार का एक बड़ा कदम है. लेकिन इसके बारे में सार्वजनिक तौर पर जो कुछ जानकारियां उपलब्ध हैं उससे इसकी कई खामियां भी उजागर होती हैं, जो युवकों को इसमें भर्ती के लिए प्रेरित करने, सेवा काल, प्रशिक्षण अवधि, सेना की ऑपरेशन/संगठन संबंधी जरूरतों, और सेवा मुक्त किए जाने के बाद की सुविधाओं से जुड़ी हैं, जो इस योजना को संभव विकल्प बनाती हैं.
मैं यहां इस प्रस्तावित ‘अग्निपथ प्रवेश योजना’ का मूल्यांकन करते हुए एक बेहतर मॉडल प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूं.
अवधारणात्मक खामियां
सेना में किसी भी सुधार की शुरुआत ऐसी रणनीतिक समीक्षा से होनी चाहिए ताकि भावी लड़ाइयों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार हो सके. इसी के आधार पर सेनाओं का आकार, ढांचा, और संगठन का स्वरूप तय होता है. औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के अभाव में हमारा रुख मौजूदा सेना में वैसे ही सुधार करने तक सीमित रहेगा जिससे पिछली सदी के पूर्ण युद्ध लड़े जा सकते हैं, न कि इस पर कि बहुचर्चित बदलाव के बाद वे किस तरह की होंगी. इसके अलावा, इस योजना को मानव शक्ति के प्रबंधन से संबंधित सुधारों से जोड़ा जाए, जो कि उपयुक्त या कम की गई मानव शक्ति से जुड़े हों और पुनर्गठन पर आधारित हों.
भारत में भारी बेरोजगारी के कारण सेना में भर्ती चाहने वालों की कोई कमी नहीं है जबकि विकसित देशों में इस केरियर को प्राथमिकता नहीं दी जाती. मुख्य आकर्षण स्थिर, सम्मानित, जोखिम से बचाव देने वाले और व्यक्ति को, उसके जीवनसाथी और 25 साल से कम के बच्चों को जीवनभर पेंशन देने वाले रोजगार रोजगार का होता है. मुझे अब तक ऐसा कोई अफसर/सैनिक नहीं मिला, जो केवल देशभक्ति/राष्ट्रवाद की भावना से सेना में भर्ती हुआ हो. कोई अपवाद नियम नहीं बनता. सेना की यह मौजूदा सोच गलत है कि ‘बेरोजगारी अपने देश की एक हकीकत है लेकिन देशभक्ति और राष्ट्रवादी भावना का उभार भी हुआ है’. लड़ाई में भी टुकड़ियों की एकता की भावना ही सैनिकों को लड़ने के लिए प्रेरित करती है.
कोई भी अल्पकालिक रोजगार इतना आकर्षक और व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने वाला होना चाहिए कि उसके लिए योग्य उम्मीदवार आगे आएं.
आज भी, अधिकतर उम्मीदवार वही होते हैं हैं जो योग्यता, रुझान या साधन की कमी के कारण ऊंची पढ़ाई नहीं कर पाते. जब तक सरकार ऐसे आकर्षक लाभ प्रस्तावित नहीं करती जिससे ऐसे उम्मीदवार आगे आएं जिनमें से 25-30 प्रतिशत को स्थायी रूप से शामिल किया जा सके, और इसके अलावा सेवा से मुक्ति पर पर्याप्त पैकेज, योगदान के आधार पर पेंशन, कॉलेज में भर्ती और सभी तरह की सरकारी नौकरी में प्राथमिकता, वरिष्ठता कायम रखते हुए सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स में शामिल किए जाने का विकल्प न उपलब्ध कराया गया तो ‘अग्निपथ’ योजना केवल उन्हीं को आकर्षित करेगी जिनके लिए और कोई विकल्प न बचा हो. राष्ट्रवाद को प्रेरणा मानना खतरों से भरा है और इससे यही होगा कि सैन्य प्रशिक्षण पाए राजनीतिक/धार्मिक उग्रपंथियों का विस्तार ही होगा. नेशनल कैडेट कोर और टेरिटोरियल आर्मी अनुशासन और राष्ट्रीयता की अच्छी भावना भरती है और राष्ट्रीय आकांक्षाओं को बेहतर तरीके से पूरा करती है.
लड़ाई में यूनिट/सब-यूनिट एकता मुख्य प्रेरक तत्व होता है. संस्थागत एकता लंबे समय तक साथ रहने, प्रशिक्षण, और फील्ड/ऑपरेशनल/पहाड़ी क्षेत्र/बगावत विरोधी अभियान में साथ-साथ जूझने से बनती है. बगावत विरोधी ऑपरेशान/युद्ध में यह अवधि छोटी हो जाती है. लेकिन राष्ट्रीय राइफल्स इसका अच्छा उदाहरण है, जिसमें सभी शाखाओं के सैनिक दो-तीन साल के लिए सेवा देते हैं. राष्ट्रीय राइफल्स के सैनिक पहले से प्रेरणा से भरे होते हैं. तीन साल एकता स्थापित होने के लिए बहुत छोटा समय है. यूक्रेन युद्ध में रूसी सैनिकों का बुरा प्रदर्शन इसकी मिसाल है.
औसत बुनियादी सैन्य प्रशिक्षण 15 सप्ताह का होता है. सेना की शाखा और सेवा के स्वरूप के हिसाब से छह महीने से लेकर एक साल तक के विशेष प्रशिक्षण की जरूरत होती है. थलसेना के सैनिकों को उच्च स्तर के युद्ध के लिए 21 हफ्ते का अतिरिक्त प्रशिक्षण दिया जाता है. इसकी अवधि थोड़ी कम करने की गुंजाइश है. विशेष काम के लिए तकनीकी प्रशिक्षण पाए सैनिक इस योजना के लिए आगे आएंगे इसकी संभावना नहीं है. अगर हम छूटियों को लेकर औसतन एक साल के प्रशिक्षण को लेकर चलें तो ‘अग्निपथ’ योजना चार या दो साल की ‘टुअर ऑफ ड्यूटी’ बनकर रह जाएगी.
यह भी अटकल लगाई गई है कि फिलहाल जो खामियों से भारी प्रवेश परीक्षा ली जाती है जिसमें मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक परीक्षण नहीं किया जाता है उसे रद्द किया जा सकता है लेकिन मेडिकल परीक्षण को जारी रखा जा सकता है ताकि योजना अधिक आकर्षक बने. आज भी चूंकि उम्मीदवार वही होते हैं जिनके लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं है, इसलिए शामिल होने वालों का स्तर और गिर सकता है जो उन्हें आधुनिक सेना की जरूरतों के लिहाज से अयोग्य बना सकता है.
ज्ञान का भंडार
मेरे विचार से, सेना ने अपने पुराने अनुभवों का सूक्ष्म आकलन नहीं कई है. 1976 तक, हमारे पास एक ‘कलर/ऐक्टिव सर्विस’ (7-10 साल की) और ‘रिज़र्व सर्विस’ (5-8 साल की) योजना थी. यूनिट में एकता पैदा करने और सेना को युवा बनाए रखने के लिए सात साल को उपयुक्त समय माना गया. रिजर्व सर्विस में सैनिक को नाम के लिए स्टाइपेंड मिलती थी लेकिन दो साल में एक बार दो महीने की रिफ्रेशर ट्रेनिंग लेने के लिए पूरा वेतन दिया जाता था. इन सैनिकों को सिविल सेवाओं में प्राथमिकता दी जाती थी.
15 साल की सेवा के अंत में सैनिक को ‘रिजर्विस्ट पेंशन’ दी जाती थी, जो नियमित सैनिक की पेंशन से कम होती थी. ‘प्रशिक्षित कर्मियों की सेवा लेते रहने’ और ‘कल्याण’ के नाम पर हमने जो नीतियां बनाई उन्होंने इसे समाप्त कर दिया और 15 साल (अब 17 साल) वाली न्यूनतम वैधानिक सेवा को लागू कर दिया ताकि पेंशन ली जा सके. यह काफी प्रभावी योजना थी, जिसे मौजूदा जरूरतों के लिए संशोधित किया जा सकता है और इसमें योगदान से चलने वाली पेंशन योजना जोड़ी जा सकती है. अमेरिका में, जहां उम्मीदवारों की कमी है, इसी तरह का मॉडल लागू किया गया है जिसमें न्यूनतम आठ साल की सेवा ली जाती है—चार साल ‘ऐक्टिव सर्विस’ में और चार साल ‘रिजर्व सर्विस’ में. लेकिन कोई सैनिक चाहे तो ‘ऐक्टिव सर्विस’ में और चार की लगातार बढ़ोतरीऔर पेंशन वाली सेवा के 20 साल पूरे कर सकता है. लेकिन केवल 20 फीसदी सैनिक ही 20 साल की सेवा पूरी करते हैं.
एक शोषणकारी मॉडल दूसरे विश्वयुद्ध का है. भारतीय सेना का आकार 1939 में 25 लाख से बढ़कर 1948 में 3.5 लाख का हो गया. निरंतर जारी युद्ध के कारण उसमें एकजुटता बनी. कार्यशर्तें और स्थितियां शोषणकारी थीं. आप तभी तक सेवा में रह सकते थे जब तक सरकार चाहेगी. अधिकतर सैनिक पांच साल की नौकरी के बाद घर लौट गए, उन्हें मामूली ग्रेच्युटी मिली, कोई पेंशन नहीं मिली. दूसरी नौकरी की कोई गारंटी के बिना ‘अग्निपथ’ योजना भी शोषणकारी लगती है और समय से बेमेल लगती है.
अधिकारियों के मामले में हमारा अनुभव 1966 से, शॉर्ट सर्विस कमीशन का ही है. वैधानिक सेवा पांच साल के लिए थी जिसमें पेंशन नहीं थी. 25-30 फीसदी को योग्यता के आधार पर स्थायी कमीशन मिल जाती थी. जिन्हें नियमित कमीशन नहीं दी जाती थी उन्हें ग्रेच्युटी, पूर्व सैनिक की हैसियत के साथ सेवा से मुक्त किया जाता था. इसके अलावा, वरिष्ठता कायम रखते हुए सरकारी नौकरी में प्राथमिकता/छूट दी जाती थी. ‘प्रशिक्षित कर्मियों को बनाए रखने’ और ‘कल्याण’ के नाम पर सरकार/सेना ने नीति ऐसी बनाई की सेवा में पहले पांच साल का और फिर 10 साल का विस्तार दिया गया, जिसे 14 साल तक बढ़ाया जा सकता है.
आगे का रास्ता
इस बात में कोई शक नहीं रहना चाहिए कि अल्प अवधि की नौकरी मानव शक्ति के प्रबंधन और पेंशन बिल में कमी करने का सबसे अच्छा तरीका है. यह सुधार राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति से निकले समग्र सुधारों के तालमेल में होना चाहिए ताकि सेना में बदलाव आए, खासकर कर्मियों की उपयुक्त संख्या और पुनर्गठन के मामले में.
मेरे विचार में अफसरों और सैनिकों के लिए भी ‘टुअर ऑफ ड्यूटी’ की न्यूनतम अवधि पांच साल की हो, जिसमें प्रशिक्षण की अवधि शामिल हो. इस योजना में योगदान वाली पेंशन स्कीम, बड़ी ग्रेच्युटी, बाद में सीएपीएफ में शामिल किया जाना, पूर्व सैनिक की हैसियत, सभी सरकारी नौकरियों में वरिष्ठता कायम रखते हुए प्राथमिकता, कॉलेज/यूनिवर्सिटी में दाखिले और बैंक कर्ज आदि सुविधा शामिल हो. निजी नियोक्ताओं के यहां और कंपनियों में नौकरी के मामले में अनुकूल कार्रवाई के लिए कानून बने. 25-30 फीसदी सैनिकों को पारदर्शी, योग्यता को तरजीह देने व्यवस्था के तहत सेवा में रखा जाए. सेवा में स्वेच्छा से पांच साल का विस्तार की अनुमति हो. इस स्कीम के तहत सेना की 50 फीसदी शक्ति का निर्माण हो.
शैक्षिक योग्यता बढ़ाकर 10+2 की की जाए और प्रवेश के लिए अखिल भारतीय मेरिट वाली कड़ी परीक्षा हो, जिसमें मनोवैज्ञानिक परीक्षण भी शामिल हो. नौकरी योग्य आबादी के 2 प्रतिशत के आधार पर राज्यवार कोटा को खत्म किया जाए. अगर इस सुधार से अखिल भारतीय मिश्रण की यूनिट/रेजीमेंट बनती है और धर्म/जाति/ क्षेत्र पर आधारित रेजीमेंट खत्म होती है तो हो जाए.
दूसरी नौकरी की लगभग गारंटी देने के लिए 10 लाख वाली सीएपीएफ और सेनाओं में नियुक्तियों का कॉमन मेरिट आधारित प्रवेश परीक्षा के जरिए मिश्रण किया जाए. सीएपीएफ के कर्मी सेनाओं में पांच साल या इससे कम समय के लिए ‘टुअर ऑफ ड्यूटी’ करके अपने मूल संगठन में पेंशन वाली लंबी सेवा देने के लिए लौट सकते हैं. इसी तरह, सेनाओं के सैनिक को लंबी अवधि की सेवा के लिए सीएपीएफ में भेजा सकता है. इस तरह की आवाजाही पर संगठनों के प्रतिरोध को लेकर काफी शोर है. तब ताकतवर सरकार है किसलिए? सुधार भावनाओं से नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरतों के कारण होते हैं.
‘अग्निपथ प्रवेश योजना’ अपने वर्तमान स्वरूप में संगठन और व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा नहीं करती. लेकिन अल्पकालिक नौकरी ही बढ़ते पेंशन बिल को काबू में करने का व्यावहारिक तरीका है. सरकार/सेना को इस योजना में संशोधन करना चाहिए, 2022 के अंत तक 2 लाख सैनिकों की आकस्मिक कमी का फायदा उठाते हुए सेना को बदलने के लिए लंबी छलांग लगानी चाहिए.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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