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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतजंग का फैसला तो जीती या हारी गई जमीन से होता है, भारत को अपनी थल सेना मजबूत करनी चाहिए

जंग का फैसला तो जीती या हारी गई जमीन से होता है, भारत को अपनी थल सेना मजबूत करनी चाहिए

नौसेना और वायुसेना तो किसी ‘मंच’ से केंद्रित होती हैं और एक ही माध्यम से कार्रवाई करती हैं इसलिए उनका आधुनिकीकरण आसान है.

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अपनी किताब ‘सेपिएन्स’ में युवल नोआह हरारी ने कहा है कि जमीन को मनुष्यों ने नहीं बल्कि जमीन ने ही मनुष्य को अपने बस में किया और अपने ऊपर बसाया. एक बार जब फसल बो दी गई तब मनुष्य के समुदायों के लिए घुमंतू वाला जीवन जीना संभव नहीं रह जाता है. उसे उस जमीन पर टिके रहना जरूरी हो गया, केवल फसल काटने के लिए ही नहीं बल्कि उसे जानवरों और प्रतिद्वंद्वी कबीलों से बचाने के लिए भी. सदियों तक जब जमीन पर ज्यादा से ज्यादा निवेश किए गए, उस पर झोपड़ियों से लेकर गगनचुंबी इमारतों से लेकर सड़कें, रेलवे, खेत और कारखाने तक बनाई गईं तब जमीन मनुष्य के सभी उपक्रमों का केंद्र बन गई. समुदायों ने जब एक भौगोलिक स्थान से अपनी पहचान जोड़ ली और उस पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया तब अपनी जमीन की ही नहीं बल्कि एक कबीले या साम्राज्य या देश के रूप में अपनी पहचान की रक्षा करना जरूरी हो गया. इस तरह लड़ाई के बीज भी बोए जाने लगे, जो आज तक जारी है.

जमीन से जुड़ाव इतना गहरा हो गया है कि उसकी हर इंच के लिए लड़ाई की जाते है, चाहे वह किसानों के बीच हो या देशों के बीच. 60 फीसदी से ज्यादा घरेलू मुकदमे जमीन पर विवाद से ही जुड़े होते हैं, और किसी भी समय देशों के बीच एक दर्जन से ज्यादा लड़ाई जमीन पर कब्जे को लेकर ही हो रहे होते हैं.

इसलिए आश्चर्य नहीं कि भारत ने भी जितनी लड़ाइयां लड़ी हैं वे जमीन के विभिन्न इलाकों पर नियंत्रण के लिए ही रही हैं. जमीन को लेकर ये विवाद पाकिस्तान और चीन के साथ होते रहे हैं, आज भी जारी हैं और वे भविष्य की लड़ाई की भी वजह होंगे. जिसे ‘अपने जूते तले की जमीन’ कहा जाता है यानी जमीन पर वास्तविक कब्जा मालिकाना का पहला और शायद एकमात्र तत्व बना रहेगा.


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जमीन की रक्षा के लिए है एक-एक सैनिक

किसी भी देश की सेना का सर्वोपरि लक्ष्य देश की भौगोलिक अखंडता और संप्रभुता की रक्षा करना ही होता है. यह भूमिका वह किस तरह निभाती है उसमें अंतर हो सकता है. उसके मूल व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयासों का परिणाम जमीन पर कब्जा बनाए रखना ही होता है. अमेरिकी आर्मी वॉर कॉलेज के जी.के. कनिंघम ने टी.आर. फेहरेनबाख की किताब ‘दिस काइंड ऑफ वॉर: द क्लासिकल कोरियन वॉर हिस्टरी’ के हवाले से कहा है कि जमीन ही ठोस स्थान है जहां मनुष्य सभ्य बनता है और अपनी मानवीयता की संपूर्णता की रक्षा करता है. कनिंघम से जब यह पूछा गया कि युद्ध का निर्णायक क्षेत्र कौन सा हो सकता है और क्यों, तो उन्होंने अमेरिकी आर्मी वॉर कॉलेज के लिए टी.आर. फेहरेनबाख का जवाब देते हुए कोट किया  कि “आप जमीन के ऊपर से हमेशा उड़ सकते हैं, आप उस पर बम या परमाणु बम गिरा सकते हैं, और उसे मानवविहीन कर दे सकते हैं लेकिन अगर आप उसे एक सभ्यता की खातिर बचाकर रखना चाहते हैं तो आपको इसके लिए जमीन पर ही आना होगा, अपने जवानों को उसकी धूल-मिट्टी में उतारना होगा.”

बेहतर होगा कि भारत यह याद रखे कि अपनी भौगोलिक अखंडता की रक्षा करने के लिए उसे अपने जवानों, अग्निवीरों को धूल-मिट्टी में ही नहीं बर्फ और रेत में भी भेजना होगा.

रूस और यूक्रेन के बीच जंग अपने दूसरे साल में भी जारी है और उसके खत्म होने के आसार नहीं हैं. यह उपरोक्त तथ्य की और पुष्टि ही करता है. यह जंग 2,500 किमी में फैले मोर्चे पर चल रही है जिसमें से 1,000 किमी का मोर्चा सबसे ज्यादा सक्रिय है और वहां चल रही लड़ाई इतनी बदतर हाल में पहुँच चुकी है कि वह दोनों विश्वयुद्धों की याद दिलाती है. बढ़त चंद सौ मीटरों में नापी जा रही है जो जान के भारी नुकसान से हासिल की जाती है. यह इस बात को भी रेखांकित करती है कि तकनीक के मामले में बहुचर्चित विकास, जिसे सैन्य मामलों में क्रांति (आरएमए) कहा जाता है, के बावजूद जंग के स्वरूप में कोई मौलिक अंतर नहीं आया है.

अंततः, इस सारी नयी तकनीक का एक ही मकसद है— युद्धक्षेत्र में सैनिकों के अस्तित्व की सुरक्षा को बढ़ावा देना. और सैनिकों का एकमात्र लक्ष्य अपनी जगह पर अडिग रहना, चाहे वह “किसी विदेशी खेत का कोना” हो या बंजर जमीन जिस पर “घास तक नहीं उगती”. 20वीं सदी के कोरियाई युद्ध से लेकर 21वीं सदी के यूक्रेन युद्ध तक कुछ बदला हो, ऐसा नजर नहीं आता.

थल सेना के आधुनिकीकरण में निवेश जरूरी

ऐसे में, भारत को अपनी थल सेना पर कहीं ज्यादा खर्च करना बहुत जरूरी है. खासकर बजट की सीमाओं के कारण प्रतिस्पर्द्धी चुनौतियां हमेशा मौजूद रहेंगी. थल सेना, नौसेना, वायुसेना सबकी अपनी-अपनी अनूठी और महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं. लेकिन इस हकीकत की अनदेखी नहीं की जा सकती कि जीत या हार को इसी पैमाने से नापा जाएगा कि कितनी जमीन जीती गई या कितना गंवाई गई.

मई-अगस्त 2020 में पूर्वी लद्दाख में जो हाथापाई हुई या दिसंबर 2022 में यांगत्से में जो टक्कर हुई वे इस जरूरत को ही रेखांकित करते हैं की अपनी जमीन पर अडिग रहने की ताकत का कितना महत्व है. जमीन पर तैनात सैनिक को उस हथियार सिस्टम में तब्दील करने की जरूरत है, जो अस्पष्ट क्षेत्र से लेकर लगभग पारंपरिक किस्म के युद्ध और पारंपरिक किस्म से लेकर ‘एनबीसी’ (परमाण्विक, जैविक, और रासायनिक) किस्म की जंग से उभरने वाले खतरों का सामना कर सके. पाकिस्तान और चीन के साथ लगी सीमाओं पर इलाके की विविधता के मद्देनजर यह कोई आसान काम नहीं है.

नौसेना और वायुसेना तो किसी मंच से केंद्रित होती हैं और एक ही माध्यम से कार्रवाई करती हैं इसलिए उनका आधुनिकीकरण आसान है. जरूरी संख्या तुलनात्मक रूप से कम होती है लेकिन यूनिट की लागत ऊंची होती है जिसकी वज़ा से शुरू में बड़ा निवेश करना पड़ता है और जिम्मेदारियां इकट्ठी होती हैं. 36 राफेल विमानों की लागत करीब 59 हजार करोड़ रुपये आई, जबकि विमान रहित एक विमानवाही पोत की लागत 23 हजार करोड़ रु. बताई जाती है.

दूसरी ओर, सेना का आधुनिकीकरण सैनिक केंद्रित होता है और उसे विभिन्न सेनाओं के लिए तमाम तरह के साजोसामान की व्यवस्था करनी होती है. इनमें से हर एक में सबसे कठिन इलाकों और तापमान, रेगिस्तान में 40 डिग्री तापमान से लेकर बर्फीली पहाड़ियों में शून्य से 40 डिग्री नीचे के तापमान में काम करने की क्षमता होनी चाहिए. मिसाल के तौर पर रेगिस्तान और मैदानी इलाकों के लिए मीडियम टैंक की जरूरत होगी जो 40 डिग्री से अधिक के तापमान में काम कर सकें और दूसरी ओर लाइट टैंक भी चाहिए होंगे जो पहाड़ी क्षेत्रों और हाई एल्टीट्यूड में काम कर सके जहां तापमान माइनस में होता है.

तोपखाने के आधुनिकीकरण के लिए 2000 से ज्यादा तोपें चाहिए. एक-एक तोप की कीमत 10-15 करोड़ रु. है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन पर 20 से 30 हजार करोड़ रु. के बीच का खर्च आ सकता है. यह एक विमानवाही पोत की कीमत के बराबर है. दुर्भाग्य से, इन आकर्षणविहीन साजोसामान में वह ग्लैमर नहीं है और जनता के बीच भी वे बहुत लोकप्रिय नहीं हैं इसलिए उन्हें प्रायः टाल दिया जाता है.

अतीत में हुई लड़ाइयों की तरह भविष्य की लड़ाइयों का आकलन इस पैमाने से होगा कि कितने वर्गकिलोमीटर जमीन जीती या हरी गई. बैलेंस शीट अगर भारत के पक्ष में आनी है, तो जमीनी जंग की महत्ता को समझना होगा और थल सेना के आधुनिकीकरण को प्राथमिकता देनी होगी. तभी हम अखंड भारत के सपने को साकार कर पाएंगे.

जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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