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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमत‘सूचना के मैदान-ए-जंग’ के बारे में सेनाध्यक्ष की चेतावनी की अनदेखी नहीं की जा सकती

‘सूचना के मैदान-ए-जंग’ के बारे में सेनाध्यक्ष की चेतावनी की अनदेखी नहीं की जा सकती

’सूचना युद्ध’ में भारत का नेशनल इन्फोर्मेशन बोर्ड क्या योगदान दे रहा है इसे अभी देखना बाकी है. इसे पटरी पर लाने के लिए फंड की जरूरत है.

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केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने रक्षा मामले का जिक्र अंततः इस बार के अपने बजट भाषण में कर ही दिया. पिछले दो साल से बजट में इसका कोई जिक्र न किया जाना नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को उजागर कर रहा था. अभी रक्षा बजट भारत की जीडीपी के करीब 2 प्रतिशत के बराबर है. 2018 में, रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति ने इसे 3 फीसदी के बराबर करने की सिफ़ारिश की थी लेकिन इसमें केंद्र सरकार के खर्चों के अनुपात के लिहाज से गिरावट ही आती रही है. कोविड की महामारी से पहले यह अनुपात 16.4 प्रतिशत का था जो अब 13.7 प्रतिशत पर आ गया है. भू-राजनीतिक रूप से दिशाहीन दुनिया में भारत की सैन्य शक्ति बढ़ाने की उतनी चिंता नहीं नज़र आती जितनी होनी चाहिए. बशर्ते, देश का नेतृत्व यह मानता हो कि भारत के विकास के सफर में सैन्य शक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन ऐसा हो नहीं सकता.

दुनिया के भू-राजनीतिक वातावरण में गिरावट जारी है और यह साफ हो जाना चाहिए कि भारत चाह कर भी अलग-थलग नहीं रह सकता. उसे अमेरिका और चीन के बीच के व्यापक वैश्विक सत्ता संघर्ष में घसीटा जा चुका है. इस संघर्ष का स्वरूप सैन्य संघर्ष वाला है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. फिर भी, रक्षा बजट से ऐसा संकेत मिलता है कि आवश्यक सैन्य शक्ति कम वित्तीय समर्थन के बावजूद हासिल की जा सकती है. वैचारिक दृष्टि से, बजट में गरीबों और राष्ट्रीय प्रतिरक्षा की चिंताओं का पूरा ख्याल नहीं रखा गया है. दोनों पहलू कमजोर राजनीतिक अर्थव्यवस्था को उजागर करते हैं.

बहरहाल, मोदी सरकार ने बजट के जरिए अपनी प्राथमिकताओं का जब खुलासा कर दिया है तब रक्षा मंत्रालय और सेना को आवंटित संसाधन के हिसाब से अपना काम चलाने की व्यवस्था करनी है और उसका अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश करनी है. यह दुष्कर कार्य है लेकिन यह रक्षा मंत्रालय और सेना के लिए कोई नई बात नहीं है.


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सूचना का मैदान-ए-जंग

हाल में, थलसेना अध्यक्ष एम.एम. नरवणे ने भारत के सामने खड़े खतरों का खुलासा करते हुए कहा कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा के संसाधनों पर काफी दबाव है. उन्होंने कहा कि ‘भावी टकरावों के ट्रेलर दिख रहे हैं और वे ‘सूचना के मैदान-ए- जंग’ नेटवर्कों और साइबरस्पेस में प्रदर्शित हो रहे हैं. वे विवादित और तनावग्रस्त सीमाओं पर भी दिख रहे हैं.’

‘सूचना के मैदान-ए- जंग’ के बारे में सेनाध्यक्ष की टिप्पणी से इस दायरे में भारत की तैयारियों को लेकर भी सवाल उठते हैं और यह रक्षा बजट से आगे की भी बात है. सूचना का दायरा ऐसा है जिसमें पूर्णतः सरकारी पहल की जरूरत है. इसके लिए सर्वोच्च स्तर पर रणनीति बनाई जा सकती है और विभिन्न मंत्रालयों के स्तर पर उसे लागू किया जा सकता है. इस तरह की कोशिश के अभाव में सूचना के दायरे को टुकड़ों में देखा जाता है. इससे भी बुरी बात यह है कि इसके लिए न कोई दिशानिर्देश है और न कोई दूरदर्शिता है.

सभी मानवीय संवादों-संपर्कों की तरह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी प्रभावित करने की क्षमता पक्षों के बीच संवाद के मनोवैज्ञानिक परिणामों पर निर्भर करता है. डिजिटल युग ने उन लोगों को बड़ी बढ़त दी है जो संचार के विभिन्न रूपों द्वारा प्रस्तुत अवसरों का लाभ उठा सकते हैं. खासकर, तब जब इस्तेमाल किए जा रहे सिस्टम पर नियंत्रण हो और टकराव या जंग के दौरान जरूरत पड़ने पर विरोधी के सिस्टम को अपने काबू में किया जा सके.

डिजिटल युग द्वारा पेश की जा रही संभावना के साथ यह तथ्य भी जुड़ा है कि यह दायरा अराजकता से भरा है और इसके नियम-कायदे तय करने वाला कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता नहीं है. सूचना के दायरे में वर्चस्व के संघर्ष ने युद्ध और शांति के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है. साइबर आधारित सूचना व्यवस्था की कम लागत पर ही खुफियागीरी की जा सकती है और उसे नष्ट किया जा सकता है. उसे चोरी से इस्तेमाल किया जा सकता है और इन कोशिशों को सफल भी नहीं होने दिया जा सकता क्योंकि आरोपण आसान नहीं है. चूंकि भू-राजनीतिक टकराव बढ़ रहे हैं इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि सूचना दायरे के अराजक स्वरूप को कोई राहत मिलेगी.


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भारत बेहतर स्थिति में है

सीमित संसाधनों के बावजूद भारत सूचना के दायरे में अवसरों का लाभ उठाने की बेहतर स्थिति में है. यह इसलिए है कि सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में वह ताकतवर है और इसे विशाल मानव पूंजी उपलब्ध है. रणनीति के अभाव के अलावा इस क्षेत्र के लिए विशेष तौर पर निर्धारित फंड की भी कमी है.

करगिल रिव्यू कमिटी रिपोर्ट और 2000 के शुरू में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की रिपोर्ट आने के बाद जो बड़े संरचनात्मक सुधार हुए उसके बाद से नीति निर्माण और निगरानी की संगठनात्मक ज़िम्मेदारी निश्चित कर दी गई थी. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता और सर्वोच्च स्तर की अफसरशाही तथा तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के प्रतिनिधित्व में नेशनल इन्फोर्मेशन बोर्ड (एनआईबी) को सूचना युद्ध और सूचना सुरक्षा पर राष्ट्रीय नीति बनाने का काम सौंपा गया. उसे नीतियों को लागू करने, निर्मित संस्थाओं से काम लेने और उनकी निगरानी करने के लिए आवश्यक संस्थाओं और संरचनाओं के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई.

अपने कामों को पूरा करने में एनआईबी का क्या योगदान है यह पता नहीं है लेकिन एनआईबी को सक्रिय करने की जरूरत साफ नज़र आती है. इसके लिए यह जरूरी होगा कि उन संरचनाओं के निर्माण के लिए फंड के आवंटन में उसकी बात भी सुनी जाए. ये संरचनाएं व्यापक नेशनल इन्फोर्मेशन वारफेयर सिस्टम के अंग होंगे. चूंकि बजट की मंत्रालयों को आवंटित किया जाता है इसलिए एनआईबी को अपनी योजनाओं को ठोस रूप देने के बाद उन्हें लागू करने के लिए वित्तीय अधिकार नहीं प्राप्त होते. इसलिए ऐसा फंड बनाने की जरूरत है जिसका उपयोग सूचना युद्ध के क्षेत्र में भारत की ताकत बढ़ाने में किया जाए. लेकिन सरकार के हाथ तंग हैं. तो क्या किया जा सकता है?

नेशनल डिफेंस फंड का गठन

उपाय नेशनल डिफेंस फंड का गठन है. इसके लिए स्वैच्छिक दान दिया जा सकता है और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) के अधीन रखा जा सकता है और इसकी सलाह पर मंत्रालयों को आवंटन करने के लिए इसका प्रबंधन एनएससी का सचिवालय कर सकता है. फंड का उपयोग ऐसी किसी परियोजना में भी किया जा सकता है जो राष्ट्रीय सुरक्षा की दूसरी तैयारियों को मजबूत करने के लिए बनाई गई हो. सूचना युद्ध के लिए क्षमताओं की मजबूती का काम एनएससी और एनआइबी उनके संरक्षक के रूप में करे.

राजनीतिक अर्थव्यवस्था के फैसलों पर हमेशा बहस होती रहेगी. लेकिन दुश्मन जब दहलीज पर खड़ा हो तब राष्ट्रीय सुरक्षा की कमजोरियों पर बहस नहीं की जा सकती. सेनाध्यक्ष जब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संसाधनों की कमी का जिक्र कर रहे हों तो उसे अनसुना नहीं किया जा सकता. उम्मीद की जाती है कि राजनीतिक नेतृत्व की खामियों की भरपाई भारत के लोग खासकर उसके अमीर और मध्यवर्ग जरूर करेंगे. सौभाग्य से भारत में राष्ट्रीय भावना का भंडार देशभक्ति की भावना से भरा हुआ है जिसका उपयोग राष्ट्रीय सुरक्षा फंड के लिए योगदानों को आकर्षित करने में किया जा सकता है. जरूरत है तो सिर्फ प्रधानमंत्री की ओर से एक अपील की.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन  बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के  स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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