नागालैंड के तिरु–ओटिंग इलाके में 4 दिसंबर 2021 को स्पेशल फोर्स की सब–यूनिट द्वारा घात लगाकर 6 लोगों को मारने और इस वारदात की वजह से भड़की हिंसा में एक सैनिक समेत आठ और लोगों की मौत के बाद सैन्यबलों को विशेष अधिकार देने वाले ‘आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’ (आफ़स्पा) पर फिर से विवाद खड़ा हो गया है. 1958 में बनाया गया यह ‘कथित क्रूर’ कानून नागालैंड समेत जिन राज्यों में लागू है, वहां जनता और राजनीतिक हलके इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने नागालैंड से ‘आफ़स्पा’ को हटाने के मसले की जांच के लिए 26 दिसंबर को एक उच्च–स्तरीय कमिटी का गठन किया है. उम्मीद की जा रही है कि इस कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद इस कानून से प्रभावित सभी उत्तर–पूर्वी राज्यों में इसे लागू रखने की समीक्षा की जाएगी. वैसे भी, एक समय की अलगाववादी जनजातीय बगावत जब जबरन वसूली की आपराधिक गतिविधि में बदल चुकी हो तब इस कानून को अनिश्चित काल तक लागू रखने का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि इन गतिविधियों पर पुलिस की मदद से काबू पाया जा सकता है.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ‘अशांत क्षेत्रों’ में हालात पर काबू पाने के लिए राज्यसत्ता के अंतिम हथियार, सेना को बिना किसी सक्षम कानून के नहीं भेजा जा सकता है. इसलिए, इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि स्थानीय कानून के तालमेल मैं ऐसा कौन–सा मॉडल कानून हो सकता है जिसकी मदद से सेना को ‘अशांत क्षेत्रों’ में तैनात किया जा सके है और वे कौन–सी परिस्थितियां हो सकती हैं जिनमें इस कानून का इस्तेमाल किया जा सकता है या उसे बाद में हटाया जा सकता है.
औपनिवेशिक विरासत
‘आफ़स्पा’ की प्रेरणा अंग्रेज़ शासकों द्वार 15 अगस्त 1942 को लागू किए गए ‘आर्म्ड फोर्सेज़ (स्पेशल पावर्स) ऑर्ड्नेंस’ से ली गई है, जिसे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को दबाने के लिए लाया गया था. 1947 में केंद्र सरकार ने देश के बंटवारे के दौरान आंतरिक सुरक्षा की खराब स्थिति से निबटने के लिए ऐसे चार अध्यादेश जारी किए थे. 1948 में इन चार अध्यादेशों के बदले ‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट, 1948’ को लागू किया गया, जिसे 1957 में रद्द कर दिया गया. एक साल बाद ही इसे ‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट, 1958’ के रूप में वापस लाया गया क्योंकि नागा विद्रोह के चलते ’एकीकृत असम’ में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति खराब हो रही थी.
विडंबना यह है कि ‘आफ़स्पा’ दो कारणों से इसके औपनिवेशिक मॉडल के मुक़ाबले कहीं ज्यादा कठोर है. पुराने अध्यादेश में ‘गोली मारने’, तलाशी लेने और गिरफ्तार करने के विशेष अधिकार ‘कप्तान के ओहदे से नीचे के अफसर को नहीं’ दिए गए थे जबकि आफ़स्पा में इन विशेष अधिकारों का इस्तेमाल ‘कोई भी कमीशंड अफसर, वारंट अफसर, नॉन–कमीशंड अफसर’ कर सकता है.
सैनिकों को मुकदमे और कानूनी कार्रवाई से सुरक्षा देने के लिए पुराने अध्यादेश की धारा 4 में एक शर्त जोड़ी गई थी कि सैनिक की कार्रवाई ’सही निष्ठा’ से की गई हो. आफ़स्पा की धारा 6 में इसी प्रावधान से ‘सही निष्ठा’ वाली शर्त को जानबूझकर या अनजाने में छोड़ दिया गया है.
यह भी पढ़ें: चीन का सीमा भूमि कानून भारत के लिए चेतावनी की घंटी है कि वह अपनी रणनीति सुधार ले
कानून का मकसद
सेना का प्रमुख मिशन बाहरी खतरों से देश को सुरक्षा प्रदान करना और भौगोलिक अखंडता की रक्षा करना है. इसके अलावा सेना को किसी के खिलाफ ताकत या हथियार का इस्तेमाल करने का संवैधानिक और कानूनी अधिकार नहीं हासिल है. सेना को कानून और व्यवस्था बनाए रखने में ‘नागरिक शासन की मदद’ के लिए बुलाया जा सकता है, लेकिन वह मजिस्ट्रेट के लिखित आदेश पर ही ‘न्यूनतम ताकत’ का इस्तेमाल कर सकती है.
सेना को उपद्रवग्रस्त या बगावत वाली स्थितियों से निबटने के लिए कानून के आधार पर ही तैनात किया जा सकता है. आफ़स्पा उसे ताकत का इस्तेमाल करने का कानूनी आधार मुहैया कराता है. खासतौर से इसका मकसद सेना को वे अधिकार देना है जो पुलिस को दंड प्रक्रिया संहिता के तहत हासिल हैं. चूंकि सेना पुलिस की तरह काम नहीं करती इसलिए तलाशी लेने, जब्ती, ध्वंस, ताकत के इस्तेमाल के मामलों में इस कानून के प्रावधान सेना को पुलिस से ज्यादा अधिकार प्रदान करते हैं. इससे भी ज्यादा, यह कानून सेना को केंद्र सरकार की अनुमति के बिना कानूनी कार्रवाई या मुकदमे से बचाव करता है. अनजाने में यह बचाव स्थायी हो गया है क्योंकि केंद्र सरकार ने मभी इसकी अनुमति नहीं दी है और सुप्रीम कोर्ट ने भी उसके इस अधिकार को कायम रखा है.
यह भी पढ़े: बॉडी आर्मर होते तो इतने भारतीय जवानों को न गंवानी पड़ती जान, सेना को इसकी बहुत जरूरत है
विवादास्पद इस्तेमाल
संक्षिप्त, अस्पष्ट होने के कारण और निश्चित नियमों की कमी की वजह से आफ़स्पा का इस्तेमाल विवादों में घिरता रहा है. 2005 में, जस्टिस बी.पी. जीवन रेड्डी ने अपनी रिपोर्ट (पेज 74) में लिखा था— ‘यह कानून अधूरा, नीरस और कई लिहाज से अपर्याप्त है.’
जब तक सेना ‘नेक नीयत’ से काम करती है, अधिकारों के दुरुपयोग और दुष्टतापूर्ण कार्रवाई से निबटने की आंतरिक व्यवस्था दुरुस्त रखती है तब तक तो कोई समस्या नहीं होती है. हाल के वर्षों में दो बातों ने माहौल को खराब किया है. एक बात तो यह है कि सेना को उपद्रवग्रस्त इलाकों में अनिश्चित काल तक तैनात रखा जाता है; दूसरी बात है कानून के दुरुपयोग और दुष्टतापूर्ण कार्रवाई से निबटने के मामले में पारदर्शिता की कमी की.
इस कानून के तहत असाधारण अधिकार शायद इस धारणा के चलते दिए गए कि सेना कम समय के लिए ही तैनात की जाएगी और काम पूरा होने के बाद अपने बैरकों में लौट जाएगी. इसका सबसे अच्छा उदाहरण 1980 के दशक में पंजाब में सेना की तैनाती है लेकिन नागालैंड, मणिपुर और उत्तर–पूर्व के दूसरे राज्यों में इसका उलटा हो रहा है.
उन राज्यों में काफी समय से निर्वाचित सरकारें काम कर रही हैं. प्रशासन और पुलिस वैसे ही काम कर रही है जैसे दूसरे राज्यों में कर रही है. एक बार जब अलगाववादी बगावत आपराधिक उद्योग में सीमित हो गया जिसमें पुराने विद्रोही, नेता, पुलिस और नौकरशाही शामिल हैं तब भी आफ़स्पा जारी है और सेना सफ़ेद घोड़ों पर सवार योद्धाओं की तरह सब कुछ दुरुस्त करने में जुटी है. नागालैंड में घटी हाल की घटनाएं यही साबित करती हैं. इसलिए समय आ गया है कि उत्तर–पूर्व में सेना को बैरकों में वापस भेजा जाए.
कहने की जरूरत नहीं है कि आफ़स्पा केवल ‘नेक नीयत’ से की गई कार्रवाई का बचाव करता है, न कि बदनीयत से की गई दुष्टतापूर्ण कार्रवाई का. इस कानून के तहत निश्चित नियमों की कमी के कारण सेना ने बगावत वाले इलाकों में कामकरने के लिए अपने ही नियम बना रखे हैं. सुप्रीम कोर्ट भी कई दिशानिर्देश जारी कर चुका है. इतने समय में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में सेना की न्याय व्यवस्था की साख संदिग्ध हो चुकी है. समस्या और पेचीदा हुई नियो-नेशनलिस्ट सेंटीमेंट से जिन्होंने फौज को इतना बढ़ावा दे दिया कि उन्हें गलत कार्रवाइयों पर भी सपोर्ट मिलना लगा. इस वजह से फौज भी मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में किसी प्रकार की कार्रवाई से हिचकिचाती है. दुष्टतापूर्ण कार्रवाई करके आफ़स्पा की ओट लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है.
जस्टिस जीवन रेड्डी का कहना है कि सेना की लंबे समय तक तैनाती और मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों में पारदर्शिता की कमी ने आफ़स्पा को ‘दमन का प्रतीक, नफरत का विषय, भेदभाव और ज्यादती का औज़ार बना दिया है.’ इसलिए उसे रद्द करने का समय आ गया है.
आगे का रास्ता
मोदी सरकार और पूरे देश के लिए समय आ गया है कि वह आंतरिक सुरक्षा की समस्याओं के लिए सेना की तैनाती के चलन की नए सिरे से समीक्षा करे. बाहरी खतरे मंडरा रहे हैं और सेना को उनसे निबटने के लिए नया रूप दिया जा रहा है. बगावत के ज़्यादातर अभियानों को काबू में करने लायक बना दिया गया है और अब वे राजनीतिक समाधान की मांग कर रहे हैं. खासतौर से राजनीतिक मसलों के निबटारे के लिए एक पुराने कानून के सहारे सेना को लगातार तैनात रखने के उलटे ही नतीजे मिलते हैं और वे उनकी पेशेगत साख और उनकी मुख्य भूमिका के संदर्भ में उनके कौशल पर बुरा प्रभाव डालते हैं.
राष्ट्रीय राइफल्स और असम राइफल्स का सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स में विलय कर देना चाहिए ताकि वह राज्यों को आंतरिक सुरक्षा के हालात से निबटने में उनकी मदद करें जो कि उनकी सामर्थ्य से बाहर है. दूसरे कानून में भी सेना को न्यूनतम जरूरी अवधि के लिए तैनात करने का प्रावधान हो.
उत्तर–पूर्व के अधिकतर राज्यों में बीजेपी के राजनीतिक दांव लगे हैं और वह वहां के जमीनी हालात और जनता की भावनाओं से वाकिफ है. उसे नई शुरुआत करने का जो मौका मिला है उसे वह न गंवाए.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: नाज़ी युद्ध अपराधियों पर अब भी मुकदमा चल सकता है तो 1971 के नरसंहार के लिए पाकिस्तानियों पर क्यों नहीं