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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतमुशर्रफ़ को सजा-ए-मौत: क्या पाकिस्तानी अदालतें अब बिल्कुल स्वतंत्र और दबावमुक्त हैं?

मुशर्रफ़ को सजा-ए-मौत: क्या पाकिस्तानी अदालतें अब बिल्कुल स्वतंत्र और दबावमुक्त हैं?

लगता नहीं कि फैसले का कार्यान्वयन हो पाएगा. पर पाकिस्तानी न्यायपालिका का इस हद तक जाने का तथ्य सेना प्रमुख बाजवा के पक्ष में नहीं जाता है.

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पाकिस्तानी राजनीति में दिन की शुरुआत अक्सर बुरी खबरों से हुआ करती है, पर 17 दिसंबर 2019 को ऐसी बात नहीं थी. उस दिन पूर्व सैनिक तानाशाह सेवानिवृत जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के खिलाफ देशद्रोह के मामले की सुनवाई करने वाली इस्लामाबाद की विशेष अदालत ने 3 नवंबर 2007 को देश में आपातकाल लगाने वाले पूर्व राष्ट्रपति को मौत की सजा सुनाई. अनेकों सैनिक तख्तापलट झेल चुके देश के लिए अदालत की तीन-सदस्यीय पीठ का 2-1 के बहुमत से आया ये फैसला अभूतपूर्व है. वैसे लगता नहीं कि अदालत के फैसले को लागू किया जाएगा या फिर इससे नागरिक-सैन्य संबंधों का असंतुलन दूर हो सकेगा, जैसा कि ‘डॉन’ के संपादक फहद हुसैन उम्मीद करते हैं.

पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) ने 2013 में जब देशद्रोह का मामला दायर किया था तो मैं उसके समर्थन में नहीं थी क्योंकि इससे असैनिक सरकार का ध्यान बंटने और उसके पाकिस्तानी सेना के साथ बेमतलब की तनातनी में फंसने का भय था, और हूबहू यही हुआ भी. तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ ने ना सिर्फ जनरल मुशर्रफ की मदद की, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की निर्वाचित सरकार के विरुद्ध एक दुष्प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया. देशद्रोह का मामला निरर्थक था क्योंकि तब इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि पाकिस्तान में किसी वरिष्ठ सेना अधिकारी पर सत्ता पर कब्ज़े के आरोप में देशद्रोह का मुकदमा चल सकता है, या फिर उसे किसी मामले में दोषी ठहराया जा सकता है.

आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तानी सेना ने 18 अप्रैल 2013 को मुशर्रफ को इस्लामाबाद हाईकोर्ट परिसर से निकलने और गिरफ्तारी से बचने में मदद की. उस वक्त पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी थे, जिन्हें मुशर्रफ ने 2007 में इसी पद से जबरन हटा दिया था – हालांकि बाद में उस फैसले को पलट दिया गया था. जस्टिस चौधरी के शेष कार्यकाल में मुशर्रफ किसी उच्चतर न्यायालय की कार्यवाही में शामिल नहीं हुए. हालांकि उनके विदेश जाने पर पाबंदी लगा दी गई थी, बाद में जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 23 जून 2014 को हटा दिया.


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जनरल मुशर्रफ 16 मार्च 2016 को ‘इलाज कराने’ के नाम पर विदेश चले गए. उसके बाद से वह स्वास्थ्य संबंधी कारणों के बहाने पाकिस्तान आकर मुकदमे का सामना करने से इनकार करते रहे हैं. पर यूएई की यात्रा के दौरान समारोहों में भाग लेने या लोगों से मिलने-जुलने में मुशर्रफ़ का स्वास्थ्य बाधक नहीं बना. आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नवंबर 2013 में गठित विशेष अदालत ने 11 मई 2016 को जनरल मुशर्रफ़ को फरार घोषित कर दिया.

चाहे जिस नज़रिए से देखा जाए, जनरल मुशर्रफ़ को मौत की सजा सुनाने का अदालत का फैसला नि:संदेह सनसनीखेज है. पाकिस्तान के इतिहास में इससे पहले मुशर्रफ़ के दर्जे के किसी वरिष्ठ जनरल को कभी भी दोषी नहीं ठहराया गया था. अक्टूबर 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सेना प्रमुख मिर्ज़ा असलम बेग और आईएसआई के पूर्व प्रमुख ले.ज. असद दुर्रानी को 1990 के आम चुनाव में धांधली के लिए नेताओं को रिश्वत देने का दोषी ठहराया था, पर ये फैसला निष्प्रभावी साबित हुआ क्योंकि सरकार सेना के खिलाफ कदम उठाने और जनरलों पर मुकदमा चलाने के लिए तैयार नहीं हो पाई.

फैसले का यथार्थ में कोई मतलब नहीं

परवेज़ मुशर्रफ़ को सजा सुनाए जाने से ये संकेत मिलता है कि अब भी तमाम खामियों वाली पाकिस्तान की न्यायपालिका ने सैनिक अधिकारियों के 1973 के संविधान या कानून से खिलवाड़ कर सत्ता पर प्रत्यक्ष नियंत्रण की आशंकाओं को दूर करने के लिए 2007 के बाद से एक-एक कर कई कदम उठाए हैं.

इफ्तिखार चौधरी के कार्यकाल के बाद की न्यायपालिका भले ही दोषरहित नहीं हो, पर यह अतीत से अलग दिखती है जब केल्सन के अपरिहार्यता के सिद्धांत के आधार पर सैनिक तख्तापलट को सही ठहरा दिया जाता था. निश्चय ही न्यायपालिका ने कई मौकों पर खुद को कानूनी ताकत वाली एक वैकल्पिक संस्था के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है जोकि नेताओं और पाकिस्तान की सर्वशक्तिमान सेना दोनों को ही चुनौती दे सकती है.

फिर भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जनरल मुशर्रफ़ को सुनाई गई सजा की तामील की जाएगी, कम-से-कम निकट भविष्य में तो नहीं ही. अभी ये ध्यान भटकाने का एक बढ़िया मुद्दा मात्र है. गले तक समस्याओं में डूबी इमरान ख़ान सरकार मौजूदा सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा को एक और कार्यकाल के लिए सेवा विस्तार देना चाहती है, इसलिए सजा को कार्यान्वित नहीं करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. सेना की नज़र में अच्छा दिखने की कोशिश में सरकार फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है. सरकार के एक मंत्री फवाद चौधरी ने ‘देश को बांटने वाले’ फैसले पर सवाल उठाकर पहले ही इस बात का संकेत दे दिया है.

सूत्रों का मानना है कि सरकार जनरल बाजवा के कार्यकाल को तीन साल बढ़ाने, जिस पर प्रधानमंत्री ख़ान सहमत हो चुके थे, के बजाय मात्र छह महीने बढ़ाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी चुनौती दे सकती है. जो भी हो, सरकार की कानूनी चुनौती से मुशर्रफ़ को थोड़ा वक्त मिल जाएगा, जो बचने के नए रास्ते ढूंढने के लिए अपने ‘स्वास्थ्य’ से जुड़े मसलों पर गौर कर रहे हैं.

बातें जो स्पष्ट नहीं हैं

लेकिन अदालत का फैसला एक अहम सवाल उठाता है: क्या इसका मतलब ये है कि पाकिस्तान की अदालतें अब बिल्कुल स्वतंत्रत और तमाम दबावों से मुक्त हो चुकी हैं? बेशक नहीं. तो फिर पाकिस्तानी सेना ने ऐसा होने क्यों दिया?

इसका जवाब फैसले के कार्यान्यवयन में है, जिसके लागू नहीं किए जाने की पूरी संभावना है. पर न्यायपालिका के इस हद तक जाने का तथ्य मौजूदा सेना प्रमुख जनरल बाजवा के पक्ष में नहीं जाता है, क्योंकि उनके मातहत अधिकारी पहले ही उन्हें सेवा विस्तार दिए जान के मुद्दे पर विभाजित हैं और अब वे बाजवा को और भी कमज़ोर मानने लगेंगे. सशस्त्र सेनाओं के कई उग्र अधिकारियों की नज़र में पूर्व चार-सितारा सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ़ कहीं ज़्यादा प्रभावशाली थे क्योंकि उन्होंने मुशर्रफ़ को अपमानित नहीं होने दिया और देश से पलायन में उनकी मदद की, जिसे मुशर्रफ़ ने एक इंटरव्यू में स्वीकार भी किया. इसलिए यदि अदालत के फैसले को लागू किया जाता है तो इससे बाजवा के पाप ही बढ़ेंगे, न कि इसे न्यायपालिका की जीत के रूप में देखा जाएगा.

इसके अलावा इस फैसले से असैनिक शासन के मुकाबले पाकिस्तानी सेना की असल ताकत में कोई कमी नहीं होने जा रही. वास्तव में, फैसला ऐसे समय आया है जब एक संस्था के रूप में सेना ने कमान और नियंत्रण को लेकर अपनी सोच बदल ली है – अब उसका फोकस सरकार पर नियंत्रण के बजाय शासन के नियंत्रण पर है. रहील शरीफ़ के समय से ही सेना अन्य साधनों के सहारे अपने नियंत्रण की व्यवस्था कायम करने का प्रयास कर रही है. सेना प्रमुख जनरल बाजवा आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य हैं और उन्हें नियमित रूप से अहम आर्थिक और राजनीतिक किरदारों – बड़े किसानों और व्यवसायियों से लेकर मीडिया कारोबारियों तक – से मेलजोल करते देखा जाता रहा है.

आधुनिक पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष नियंत्रण से बचती दिखती है, और यही वजह है कि भुट्टो और शरीफ़ खानदान की जगह इमरान ख़ान को प्रधानमंत्री और प्रमुख नेता के रूप में आगे बढ़ाने के विचार को कुछ जनरलों के बजाय सेना के शीर्ष स्तर पर व्यापक समर्थन मिला था. ख़ान जैसा नौसिखिया और कमज़ोर नेता सेना मुख्यालय को बुरे परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार किए बिना दांवपेंच का पूरा मौका देता है. लेकिन सेना की इस सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ है कि तमाम सामरिक मामलों में पाकिस्तान का नेतृत्व उसी को करना है. सेना का यह रवैया असैनिक शासन पर उसकी श्रेष्ठता के भाव से जुड़ा हुआ है.


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सवाल देश के व्यापक सत्ता तंत्र में दरार के इस रणनीतिक अवसर का फायदा उठाने की राजनीतिक दलों की काबिलियत का भी है. अदालत के ताज़ा फैसले से मौके की संवेदनशीलता और भी बढ़ जाती है जब अगले तीन वर्षों या उससे भी आगे के लिए सत्ता पर असल नियंत्रण के वास्ते बाजवा समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच खींचतान चरम पर है. जनरल बाजवा और प्रधानमंत्री ख़ान को पद से हटाए जाने जैसे अल्पकालिक लाभ हो सकते हैं पर आगे और कुछ नहीं. मौके का फायदा उठाने की पीएमएल-एन और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की क्षमता इस वक्त न्यूनतम स्तर पर है. निजी और संकीर्ण हितों में फंसे ये दल शायद उतना फायदा नहीं उठा पाएं जितना कि
न्हें उठाना चाहिए.

विचारों की उधेड़बुन में फंसे एक नागरिक के रूप में मुझे पूर्व तानाशाह के लिए एक सरायकी कहावत/प्रार्थना याद आती है: जीवो ते हलाक़ थीवो – आपकी लंबी उम्र हो ताकि आप अपने कर्मों का फल भुगत सकें.

(लेखिका यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के एसओएएस केंद्र में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने मिलिट्री इंक: इनसाइड पाकिस्तांस मिलिट्री इकोनॉमी नामक पुस्तक लिखी है. उनका ट्विटर हैंडल @iamthedrifter है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(यह लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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