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Saturday, 27 December, 2025
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अरावली ज़ोनिंग योजना को ताकतवर लोग आसानी से मोड़ सकते हैं, सरकार को डेटा पब्लिक करना चाहिए

शब्दों की ‘तकनीकी’ पुनर्परिभाषा एक खामी बन सकती है. निचली पहाड़ियां और उन्हें जोड़ने वाली संरचनाएं—जो अक्सर पारिस्थितिकी के लिहाज़ से बेहद अहम होती हैं, उनको गैरज़रूरी मानकर नज़रअंदाज किए जाने का खतरा है.

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अरावली क्षेत्र में खनन को लेकर जंग तीन मोर्चों पर लड़ी जा रही है. एक मोर्चा है अदालत, दूसरा है हवा और तीसरा है ज़मीन, जहां सड़कों और अरावली के रास्तों पर चल रहे स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शन और कूच जन-आंदोलन का रूप लेने जा रहे हैं. कभी जो एक ‘टेक्निकल’ विवाद था वह हवा, पानी, धूल, भ्रष्टाचार, और जीवन जीने योग्य क्षेत्र के सवालों पर हिसाब-किताब मांगने का मुद्दा बन गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय से अवैध खनन और प्रशासनिक कार्रवाई के कारण तबाह इलाके को पारिभाषिक स्पष्टता और नियोजन व्यवस्था देने की कोशिश की है. अदालत के बाहर, केंद्र सरकार ने नुकसान पर रोक लगाने के इस पुराने उपाय, एक सुविधाजनक आंकड़े का सहारा लेने की कोशिश की है और बताया गया है कि अरावली क्षेत्र के “केवल 0.19 फीसदी” ही प्रभावित होगा, मानो दशमलव के एक बिंदु पर एक खदान बन सकता है.

‘परिभाषा’ तय करेगी पहाड़ियों की किस्मत

तो शुरुआत उससे करें जो सुप्रीम कोर्ट ने सच में किया है. मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले, 21 नवंबर को उनकी अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने उस बुनियादी समस्या का हल करने की कोशिश की जिसने अरावली के शासन को लंबे समय से परेशान कर रखा था. वह समस्या थी: परिभाषा को लेकर अराजकता. वर्षों से, ‘अरावली हिल्स’ और ‘अरावली रेंज’ का अर्थ इतना लचीला रखा जाता रहा कि उसके साथ खेल किया जा सके.

परिभाषाएं महत्वपूर्ण होती हैं. अगर आप किसी टीले को पहाड़ी में शुमार नहीं करते, या किसी पहाड़ी को अरक्षित भूभाग बता सकते हैं, तो किसी रक्षित क्षेत्र के दायरे को छोटा कर सकते हैं और अपने इस कदम से इनकार भी कर सकते हैं. बेंच ने इन बदलती कसौटियों को खत्म करने के लिए एक कमिटी द्वारा समर्थित क्रियाशील परिभाषा को स्वीकार कर लिया. इसके बाद उसने वह रेखा खींच दी जो अब अधिकृत संदेश का केंद्रीय पहलू है: मौजूदा वैध खदान सुरक्षा नियमों के साथ बने रहेंगे, लेकिन जब तक टिकाऊ खनन का प्रबंध योजना (एमपीएसएम) नहीं तैयार हो जाती तब तक कोई नई लीज़ नहीं दी जाएगी या कोई नवीकरण नहीं होगा. ‘एमपीएसएम’ के तहत पहाड़ी क्षेत्र का नक्शा और ज़ोन तय होगा, यह तय किया जाएगा कि कहां खनन की इजाजत होगी और कहां यह प्रतिबंधित होगी.

यह निर्धारण कागज़ पर होगा. असली सवाल यह है कि इसे सुरक्षा के रूप में लागू किया जाएगा या इज़ाज़त के रूप में.

अदालत ने अपने ही सहयोगी का खंडन किया

सुप्रीम कोर्ट ने अदालत को निष्पक्ष, निवारक फैसले पर पहुंचने में मदद करने के लिए प्रख्यात वरिष्ठ वकील के. परमेश्वर को ‘एमिकस क्यूरी’ (अदालत के सहयोगी) नियुक्त किया था. परिभाषाएं तय करने में परमेश्वर ने अधिक रूढ़िवादी नज़रिया अपनाने की अपील की. अदालत इससे असहमत होने को स्वतंत्र थी और उसने यह किया भी. जब कोई अदालत किसे सुरक्षा प्रदान करनी है और किसका भांडा फोड़ना है, इस सवाल पर अपने ही एमिकस की हिदायत की अनदेखी करती है तब जनता को उसके तर्कों की जांच करने का अधिकार मिल जाता है.

अरावली के मामले में शर्तें किस तरह परिभाषित की जाती हैं यह कोई तटस्थ मामला नहीं होता, जिस क्षेत्र में निगरानी लंबे समय से लचर रही हो और अवैध खनन बुरी तरह लचीला रहा हो वहां के लिए ‘टेक्निकल’ पुन:परिभाषा एक खामी बन जाती है. छोटे टीले और उनसे जुड़ीं बनावटों को, जो अक्सर पारिस्थितिकी के लिहाज से निर्णायक होती हैं, उपेक्षणीय माने जाने का जोखिम रहता है.

केंद्र इतना कमज़ोर क्यों?

यह कोई हैरानी की बात नहीं है की राज्य अपनी आमदनी बढ़ाना चाहते हैं और सस्ते निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इस गिरावट की रोकथाम करने में केंद्र सरकार की कमज़ोरी और चिंताओं को एक दशमलव के बूते शांत करने की उसकी कोशिश चिंताजनक है. दिल्ली-एनसीआर में पर्यावरण सुरक्षा सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित एक राष्ट्रीय ज़रूरत है.

अगर केंद्र सरकार गंभीरता दिखाना चाहती थी तो उसे ऐसे सुरक्षात्मक उपायों की मांग करनी चाहिए थी जिनके साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता: समयसीमा का सख्त पालन, स्वतंत्र निगरानी, क्रियान्वयन को सार्वजनिक करना, पारिस्थितिकी पर आधारित बफर ज़ोन बनाने की प्रक्रिया पूरी होने और पारदर्शिता की समीक्षा किए जाने तक सख्त प्रतिबंध लागू करना, लेकिन सरकार ने इसके बदले आंकड़ों से आश्वस्त करने का रास्ता चुना, जो लोगों को और उलझन में ही डालते हैं.

जब राजस्थान और हरियाणा में विरोध बढ़ गया तब केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों यही दोहराना शुरू किया कि घबराइए मत, अरावली के केवल 0.19 हिस्सा ही कुप्रभावित होगा. खतरे से निबटने का यह पुराना तरीका है: सुरक्षा के उपाय, समयसीमा का सख्त पालन, निगरानी और जवाबदेही तय करके लोगों की नाराज़गी को दूर मत करो, बल्कि छोटे लगने वाले आंकड़े सामने रख दो, लेकिन आंकड़े वास्तव में सच्चाई को उजागर नहीं करते.

करीब 1.44 लाख वर्ग किलोमीटर वाले अरावली क्षेत्र का 0.19 फीसदी हिस्सा करीब 274 वर्गकिमी या 27,000 हेक्टेयर या 67,000 एकड़ का क्षेत्र बनता है. यह क्षेत्र विस्फोटों, खनन, क्रशर, कच्ची सड़क, धूल-डीजल का विशाल कैनवास बनने के लिए काफी है. इससे बुरी बात यह है कि यह निगरानी लायक इकट्ठा क्षेत्र नहीं रह सकता; यह पहाड़ियों, ढलानों, घाटियों, और जिलों की सीमाओं तक फैला-बिखरा होगा जहां ट्रकों की आवाजाही के लिए कई सड़कें बन जाएंगी और पूरा भूभाग बरबाद हो जाएगा. अपमानजनक बात यह है कि यह मान लिया जाता है कि लोग यह हिसाब नहीं लगा पाएंगे कि हज़ारों एकड़ क्षेत्र का क्या हश्र होगा, वह कैसा दिखेगा, लेकिन हमें लोगों की बुद्धि को कमतर नहीं आंकना चाहिए. वे कमिटी वाली शब्दावली में भले न बोलें, उनकी आंखें जो देखती हैं उसे समझती हैं और उनके फेफड़े महसूस करते हैं.

‘एमपीएसएम’ : सुरक्षा या बहाना?

यह हमें मुख्य उपाय ‘एमपीएसएम’ तक पहुंचाता है, जिसे शासन की कमज़ोरी को नक्शेबंदी और ज़ोन निर्धारण के जरिए दूर करने के विज्ञान के रूप में पेश किया गया है. अगर यह योजना पहाड़ियों की सुरक्षा कर सकती है, तो यह नुकसान को वैधता प्रदान कर सकती है. ज़ोन निर्धारण में नए स्वीकृत क्षेत्रों की ‘खोज’ की जा सकती है, और एक बार जब यह दर्जा बन जाएगा तब यह पैरवी करने और सीमा परिवर्तन का निशाना बन जाएगा.

उपयुक्त निगरानी के बिना इस योजना में वही सब होगा जो सबसे ताकतवर पक्षों के हित में होगा. अगर लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे ‘एमपीएसएम’ पर भरोसा करें, तो पारदर्शिता को गौण नहीं किया जा सकता: नक्शे, आंकड़े, तरीके और मान्यताओं को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. उन पर आपत्ति करने की छूट हो और उनकी स्वतंत्र समीक्षा की जाए और यह सब तटस्थ क्षेत्र में नहीं किया जा रहा है: अरावली एनसीआर की ‘कंस्ट्रक्शन मशीन’ के बगल में ही है, जहां पत्थर और दूसरी उपलब्धियां राजनीतिक जीन्स जैसी हैं. ‘कार्टेलों, अवैध खनन नेटवर्कों, सुरक्षा के कमजोर उपायों और खामोश साठगांठ के परिवेश में आंकड़े अगर पूरी तरह पारदर्शी नहीं होंगे तो ज़ोन निर्धारण की एक अपारदर्शी कोशिश को दिशाहीन किया जा सकता है.

आंदोलन की शुरुआत

खासतौर से राजस्थान और हरियाणा में जन-आंदोलन उभर रहा है, क्योंकि सरकारी बातों और हकीकत में अंतर इतना तीखा हो गया है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. इस मामले को तूल देने वाला भी एक स्रोत है एनसीआर का नेशनल मीडिया जिसे राजधानी क्षेत्र को तकलीफ देने वाली हवा, पानी और गर्मी के बारे में खबरें देने का पूरा प्रोत्साहन उपलब्ध है. अरावली पर बहस जब दिल्ली-एनसीआर के वजूद पर बहस का हिस्सा बन जाएगा तब यह पर्यावरण के बारे में आला लोगों की कहानी भर नहीं रह जाएगी. यह राजनीतिक कहानी बन जाएगी.

अंत में, मामला केवल खनन का नहीं है. यह हकीकत को प्रस्तुत करने के तरीके का मामला है, और इसका कि इस प्रस्तुति से किसे फायदा हो रहा है. छोटा प्रतिशत बड़े घाव को ढक सकता है. बिखरे निशान व्यवस्था जनित बिखराव बन सकते हैं. अगर सरकारें 0.19 फीसदी ज़मीन की ओट लेकर नीचे हज़ारों हेक्टेयर क्षेत्र को, जो टुकड़ों में फैली भारत की सबसे प्राचीन और पारिस्थितिकी के लिहाज़ से सबसे महत्वपूर्ण पर्वत शृंखला है, अरक्षित छोड़ने का फैसला करती हैं तो लोग अगर उसकी लोरी सुनने से इनकार कर देते हैं और ज़मीन, पानी, हवा और नुकसान की सच्चाई के बारे में सरल, भौतिक पैमाने के हिसाब से जानकारी दिए जाने की मांग करते हैं तो उन्हें आश्चर्य नहीं करना चाहिए.

आंकड़े सच्चाई को कागज़ पर धूमिल कर देते हैं, लेकिन वे पहाड़ों के लोप के कारण क्षितिज पर उभरती सच्चाई को धूमिल नहीं कर सकते.

(के बी एस सिद्धू पंजाब के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और स्पेशल चीफ सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उनका एक्स हैंडल @kbssidhu1961 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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