केंद्र सरकार का हाल का प्रेस नोट, जिसमें अरावली में “कोई नया खनन पट्टा नहीं” देने और संरक्षित इलाका बढ़ाने की बात कही गई है, एक तरह से पीछे हटना है—अच्छी बात है, लेकिन यह देर से हुआ है. यह मामला पहले ही सरकारी फाइलों से निकलकर राजस्थान और हरियाणा में लोगों के गुस्से का कारण बन चुका था. दिल्ली की सर्दियों की ज़हरीली हवा ने पर्यावरण की बात को हर किसी की रोज़मर्रा की परेशानी बना दिया है.
आसान शब्दों में कहें तो, ढील वाली सोच अब लोगों को मंज़ूर नहीं थी. यह फैसला गुस्सा कुछ समय के लिए कम कर सकता है, लेकिन इससे पहाड़ अपने आप सुरक्षित नहीं हो जाएंगे.
प्रेस नोट से असली वजहें नहीं बदलतीं, सिर्फ सरकारी रुख बदलता है. अगर सोच अब भी “पहले खनन, बाद में सुधार” वाली रही, तो अरावली फिर उसी चक्कर में फंस जाएगी—कानूनी लड़ाइयां, समितियां, ढीला अमल और समय-समय पर कार्रवाई, जो नुकसान होने के बाद आती है.
हम यहां तक कैसे पहुंचे
यह कहना आजकल आम हो गया है कि 21 नवंबर के सुप्रीम कोर्ट के विवादित फैसले ने ही यह “आग” शुरू की, लेकिन अदालतें उसी नीति की जगह पर काम करती हैं, जो सरकारें बनाती हैं. जब सरकार सावधानी के साथ ढील वाला रुख अपनाती है और नियंत्रित खनन को ठीक मानती है, तो अदालतों के फैसले भी खनन को पूरी तरह रोकने के बजाय “नियंत्रित खनन” के ढांचे बनाने लगते हैं.
फैसले के बाद राजनीति का रुख बदल गया. विरोध सिर्फ राजनीतिक नहीं था; यह नागरिक स्तर पर, स्थानीय और साफ दिखने वाला था. जो लोग इस इलाके के पास रहते हैं और एनसीआर की हवा में सांस लेते हैं, वे जानते हैं कि अरावली एक अहम पर्यावरणीय ढाल है. पहाड़ियों के कमज़ोर होने का असर पहले ही एनसीआर में धूल, गर्मी और पानी की कमी के रूप में दिख रहा है. यही वजह है कि यह प्रेस नोट एक तरह से हार मानने जैसा लगता है.
लेकिन अगर हम सिर्फ इतना मानकर रुक जाएं कि हमने सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया, तो हम एक खबर तो जीत लेंगे, लेकिन पूरी ज़मीन और पहाड़ खो देंगे.
आर्थिक सोच में बदलाव
अरावली दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, लेकिन इसकी अहमियत सिर्फ इतिहास तक सीमित नहीं है. ये मिट्टी को संभालती हैं, रेगिस्तान फैलने की रफ्तार कम करती हैं, धूल को रोकती हैं, जैव विविधता को सहारा देती हैं और बड़े इलाके में भूजल को फिर से भरने में मदद करती हैं.
अगर हम पहाड़ियों को सिर्फ निर्माण के लिए पत्थर और सामग्री का स्रोत बताते रहेंगे, तो खनन की सोच बार-बार लौटेगी—कभी कानूनी खनन के रूप में, कभी अवैध खनन के रूप में, या फिर “ज़रूरी” बताकर दी गई छूट के रूप में. संरक्षण सिर्फ नैतिक अपील नहीं हो सकता; इसके पीछे मजबूत और टिकाऊ आर्थिक आधार होना चाहिए. हमें यही बदलाव चाहिए: खनन वाली अर्थव्यवस्था से हटकर ऐसी योजना की ओर, जो रोज़गार भी दे और पहाड़ियों की रक्षा भी करे.
नियंत्रित इको-टूरिज़्म इसकी सबसे व्यवहारिक शुरुआत है. यह सिर्फ रोक-टोक की बात नहीं करता, बल्कि सही प्रोत्साहन देता है. अगर इसे गलत तरीके से किया गया, तो यह भीड़भाड़ वाला पर्यटन, बेकार निर्माण और ग्रीन नेम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला बन सकता है, लेकिन अगर इसे सही ढंग से किया जाए, तो संरक्षण को आमदनी से जोड़ा जा सकता है और स्थानीय लोगों को पहाड़ियों की देखभाल की पहली जिम्मेदारी दी जा सकती है.
राजस्थान पहले से जानता है कि जगहों को कैसे संभाला जाए, बिना हर चीज़ को कंक्रीट के बाज़ार में बदले. भारत में पहले से ही संवेदनशील इलाकों में नियंत्रित पर्यटन चलता है. अरावली के पास वह फायदा है जो ज़्यादातर इको-टूरिज़्म जगहों के पास नहीं है—दिल्ली के पास होना, हवाई संपर्क, और शहरों में प्रकृति के अनुभव की बढ़ती मांग, जो जलवायु संकट बढ़ने के साथ और तेज़ होगी.
सवाल यह नहीं है कि लोग आएंगे या नहीं. सवाल यह है कि क्या हम इस आर्थिक दबाव को सीमा में रखेंगे, सही दिशा देंगे और सभ्य बनाएंगे या फिर इसे उसी तरह बिगड़ने देंगे, जैसा हमने साल भर में कई हिल स्टेशनों में होते देखा है.
सामुदायिक ज़मीन की त्रासदी
अरावली क्षेत्र का बड़ा हिस्सा सरकारी है, पंचायत के नियंत्रण में है या राज्य के अधिकार में आता है. इसके साथ ही जंगल और सामूहिक ज़मीन जैसी जगहें हैं, जिनके बीच निजी ज़मीन भी फैली हुई है. इससे “कॉमन्स की त्रासदी” पैदा होती है—कोई जिम्मेदारी नहीं लेता, लेकिन सब फायदा उठाते हैं. हमें सामुदायिक ज़मीन को सार्वजनिक भरोसे की संपत्ति मानना होगा और “सामूहिक ज़मीन” को “सामूहिक लाभ” में बदलना होगा.
इसके लिए आसान और लागू हो सकने वाले नियम चाहिए—जैसे संवेदनशील इलाकों में सीमित प्रवेश, साफ-सुथरी फीस व्यवस्था और ऐसा तय पैसा जो सीधे स्थानीय संस्थाओं तक पहुंचे और संरक्षण से जुड़े रोज़गार में लगे. जब गांव वालों को साफ दिखे कि सुरक्षित पहाड़ी, सुधरा हुआ जलाशय या संभाला गया रास्ता गांव की आमदनी और स्थानीय काम को पैसा दे रहा है, तो संरक्षण आर्थिक रूप से समझदारी लगेगा, लेकिन जब पैसा सिर्फ ट्रकों से आता दिखेगा, तो खनन ज़रूरी लगेगा, भले ही सही न हो.
जहां ज़मीन निजी है—खासकर खेती और उससे जुड़ी ज़मीन, वहां सुधार की योजना को संविधान का सम्मान करना होगा. संरक्षण के नाम पर मालिकों से अपनी ज़मीन और रोज़ी-रोटी संभालने का हक नहीं छीना जाना चाहिए.
कई जगहों पर निजी देखरेख गलत इस्तेमाल के खिलाफ एक मजबूत सुरक्षा है. ऐसे में सही तरीका सहमति पर आधारित भागीदारी है—फार्म स्टे, गाइड के साथ प्रकृति भ्रमण, स्थानीय उत्पादों के अनुभव और हस्तकला व खान-पान के रास्ते. ये कम नुकसान वाले काम हैं, जो बिना दबाव डाले आमदनी बढ़ाते हैं और खेती व उससे जुड़े काम के हक को कमज़ोर नहीं करते.
एक भरोसेमंद योजना को साफ रेखा खींचनी होगी. सार्वजनिक और सामूहिक ज़मीन पर नियंत्रित ट्रेल और समुदाय द्वारा चलने वाली सुविधाएं हो सकती हैं, जबकि निजी ज़मीन मालिक चाहें तो ही शामिल हों. इसके लिए सरकार को ऐसे फायदे देने होंगे, जिससे देखरेख करना लाभकारी लगे.
पर्यावरण को सबसे पहले रखें
अरावली को बड़े हाईवे और पक्के “पर्यटन ढांचे” की ज़रूरत नहीं है, जो हमेशा के लिए दबाव बढ़ा दें. यहां हल्के ढांचे चाहिए, जैसे पैदल चलने के रास्ते, साइकिल ट्रैक, पक्षी देखने के सर्किट, भू-विज्ञान और विरासत की सैर और छोटे इन्फॉर्मेशन सेंटर.
बड़े होटलों की जगह ठहरने की व्यवस्था घरों में और छोटे, स्थानीय मालिकों वाले इको-लॉज में होनी चाहिए, जिन पर डिजाइन रुल्स, पानी का अनुशासन और कचरा प्रबंधन लागू हो. सबसे ज़रूरी बात यह है कि इको-टूरिज़्म से पर्यावरण की मरम्मत के लिए पैसा मिले. इसमें स्थानीय पौधों को फिर से उगाना, पानी जमा करने के काम, हरित गलियारों की रक्षा और लगातार निगरानी शामिल है.
क्योंकि अरावली कई राज्यों और सरकारी विभागों में बंटी हुई है, इसलिए सुधार की योजना के लिए एक साझा व्यवस्था चाहिए. एक अरावली इको-ट्रस्ट यह भूमिका निभा सकता है. इसमें स्थानीय समुदायों, पर्यावरण विशेषज्ञों, पर्यटन पेशेवरों, नागरिक समाज और सरकार के प्रतिनिधि होने चाहिए. इसकी साख पारदर्शिता से आएगी. इसे इको-ज़ोन के नक्शे सार्वजनिक करने होंगे, हर क्षेत्र और मौसम के हिसाब से पर्यटकों की सीमा तय करनी होगी, ऑपरेटरों के लिए लाइसेंस नियम लागू करने होंगे और एक सार्वजनिक डैशबोर्ड बनाना होगा, जिसमें पर्यटकों की संख्या, जमा हुआ पैसा, संरक्षण पर खर्च और नियमों के पालन की जानकारी दिखे.
डेटा जितना ज़्यादा खुला होगा, उतनी ही कम गुंजाइश रहेगी उन दबाव समूहों की, जो इको-टूरिज़्म को चुपके से निर्माण के उछाल में बदलना चाहते हैं.
सरकार का प्रेस नोट एक राजनीतिक समझौता है, न कि बहाली की योजना, लेकिन अगर हम अभी खनन से हटकर नियंत्रित इको-टूरिज़्म और सुधार की ओर मुड़ें, तो यह समझौता भरपाई और इलाज का रास्ता बन सकता है.
(के बी एस सिद्धू पंजाब के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और स्पेशल चीफ सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उनका एक्स हैंडल @kbssidhu1961 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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