उच्चतम न्यायालय ने पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले में दखल ठीक नहीं है. निश्चित ही शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी केन्द्र सरकार के लिये थी. लेकिन, सवाल उठता है कि ऐसी कौन सी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयीं कि शीर्ष अदालत को इस तरह की टिप्पणी करनी पड़ी?
न्यायमूर्ति कुरैशी की पदोन्नति को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की गयी टिप्पणियां यह संकेत दे रही हैं कि कोलेजियम व्यवस्था मे सब कुछ ठीक नहीं है और इसमें ठोस सुधार की आवश्यकता है.
इस संदर्भ में 2010 में न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्र की टिप्पणियां महत्वपूर्ण थीं इसके बाद, कोलेजियम के सदस्य रहे चुके न्यायमूर्ति चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की टिप्पणियों से यही संकेत मिलता है कि इस व्यवस्था में सबकुछ ठीक नहीं है.
उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियां, उनके तबादले और पदोन्नति का विषय 1993 में शीर्ष अदालत द्वारा अपने हाथ में लिये जाने के बाद से ही किसी न किसी वजह से इस प्रक्रिया को लेकर सवाल उठते रहे हैं.
हालांकि, इस मामले में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच हमेशा ही किसी न किसी मुद्दे पर गतिरोध बना रहता है, लेकिन पहले यह इतना मुखर नहीं होता था. लेकिन राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून असंवैधानिक घोषित करने के 2015 के शीर्ष अदालत के फैसले के बाद अधिक मुखर हो गया है.
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इस संदर्भ में पूर्व सॉलिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने की कोलेजियम की सिफारिश, उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ को पदोन्नति देकर शीर्ष अदालत में नियुक्त करने करने की सिफारिश, कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अनिरूद्ध बोस को दिल्ली उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश और अब न्यायमूर्ति अकील कुरैशी को मप्र उच्च न्यायालय और बाद में त्रिपुरा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने की सिफारिशों का विशेष रूप से ज़िक्र किया जा सकता है.
शीर्ष अदालत की हाल ही में गुजरात हाई कोर्ट एडवोकेट एसोसिऐशन की याचिका पर सुनवाई के दौरान की गयी ये टिप्पणियां न्यायमूर्ति अकील कुरैशी को पदोन्नति देकर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की उच्चतम न्यायालय की 10 मई की कोलेजियम की सिफारिश पर अमल नहीं होने और इसके बाद उन्हें त्रिपुरा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश पर भी अमल में विलंब के संदर्भ में देखी जा रही है.
न्यायमूर्ति कुरैशी को अब त्रिपुरा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की कोलेजियम की सिफारिश पर भी सवाल उठ रहे हैं. प्रमुख सवाल यह है कि आखिर कोलेजियम ने 10 मई की सिफारिश के बाद फिर नये सिरे से न्यायमूर्ति कुरैशी के मामले में सिफारिश क्यों की?
उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर पांच सितंबर को उपलब्ध करायी गयी जानकारी के अनुसार सरकार ने 23 और 27 अगस्त के पत्रों के साथ न्यायमूर्ति कुरैशी के नाम की सिफारिश लौटा दी थी. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कोलेजियम ने सारी सामग्री पर फिर से विचार किया और अपनी 10 मई की सिफारशि को इस संशोधन के साथ दोहराया कि न्यायमूर्ति कुरैशी को त्रिपुरा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाये.
न्यायाधीशों की नियुक्तियां, तबादले और उनके पदोन्नति का मामला लंबे समय से किसी न किसी वजह से विवाद का केन्द्र रहा है. लेकिन राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून और इससे संबंधित संविधान संशोधन कानून निरस्त करने के शीर्ष अदालत के अक्तूबर, 2015 के फैसले के बाद से यह अधिक मुखर होता नज़र आ रहा है.
इसकी एक वजह इस कानून को निरस्त करने वाली संविधान पीठ के बहुमत के फैसले से इतर न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर द्वारा अल्पमत के निर्णय में कोलेजियम की कार्यशैली पर सवाल उठाना भी था. उन्होंने बहुमत के निर्णय से असहमति व्यक्त करते हुये अपने फैसले में कहा था कि कोलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता का अभाव हैं.
संविधान पीठ का फैसला सुनाये जाने वक्त न्यायमूर्ति चेलामेश्वर पांचवे वरिष्ठतम न्यायाधीश थे और उन्होंने कोलेजियम की कार्यशैली को नज़दीक से देखा था.
न्यायाधीशों के पद के लिये नामों के चयन और तबादले आदि में पारदर्शिता के अभाव का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने एक सितंबर, 2016 को को कोलेजियम की प्रस्तावित बैठक में हिस्सा लेने की बजाये तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर को एक लंबा चौड़ा पत्र लिखा था. इसमें उन्होंने न्यायाधीशों के चयन की समूची प्रक्रिया में शामिल इस समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुये उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया. न्यायमूर्ति चेलामेश्वर का यह भी आरोप था कि मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था में बहुमत के सदस्य एकजुट होकर चयन करते हैं और असहमति व्यक्त करने वाले सदस्य न्यायाधीश की राय भी दर्ज नहीं की जाती है.
न्यायमूर्ति चेलामेश्वर का आरोप बहुत ही गंभीर था क्योंकि यह प्रक्रिया तो न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया के मसले पर 1999 में राष्ट्रपति को दी गयी शीर्ष अदालत की राय के विपरीत लगती थी.
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सवाल यह भी उठता है कि क्या 1998 में राष्ट्रपति को दी गयी सलाह पर न्यायाधीशों की समिति अक्षरशः पालन नहीं करती और यदि ऐसा है तो फिर इसकी वजह क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नौ सदस्यीय सविधान पीठ की राय में दी गयी सलाह का पालन नहीं होने के कारण न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव हो गया है और इसमें भी भाई भतीजावाद का बोलबाला होने लगा.
उम्मीद थी कि न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के बगावती तेवरों के बाद कोलेजियम की कार्यशैली में पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा लेकिन ऐसा लगता नहीं है. कम से कम हाल के दिनों में मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश वी ताहिलरमाणी का मेघालय उच्च न्यायालय तबादला और इस पर फिर से विचार करने के उनके अनुरोध पर कोलेजियम का इंकार तथा न्यायमूर्ति कुरैशी की पदोन्नति में लगातार विलंब इसी का संकेत देते हैं.
उच्चतम न्यायालय के 1982 और 1993 के फैसलों और 1998 में राष्ट्रपति को दी गयी सलाह के बावजूद न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले की प्रक्रिया को लेकर लगातार उठ रहे सवालों के आलोक में विधि आयोग ने नवंबर 2008 में अपनी 214वीं रिपोर्ट में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की थी. इसके बाद से केन्द्र सरकार वर्तमान प्रक्रिया को बदलने या इसमें सुधार का प्रयास कर रही है.
अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच गतिरोध अधिक मुखर होने से पहले ही इसका कोई न कोई सर्वमान्य समाधान खोजने का गंभीर प्रयास ज़रूरी है ताकि नियुक्ति और तबादले के मामले में न्यायाधीशों की वरिष्ठता की भी अनदेखी नहीं हो और न्यायमूर्ति ताहिलरमाणी तथा न्यायमूर्ति कुरैशी के मामलों में उत्पन्न परिस्थितियों की पुनरावृत्ति नहीं हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)