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Friday, 1 November, 2024
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भाजपा विरोधी गठबंधन तो बिना दूल्हे की शिवजी की बारात है, मोदी भी यह जानते हैं

भारतीय राजनीति में देवेगौड़ा का अवतार बनने को तैयार नेताओं की कमी नहीं है क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री का तमगा पूर्व मुख्यमंत्री के तमगे से लाख गुना बेहतर है.

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‘इंडियन एक्सप्रेस’ (जहां मैं दो बार और कुल मिलाकर 25 साल काम कर चुका हूं)  से जुड़ी कथाओं में से एक कथा यह भी है. दिवंगत रामनाथ गोयनका से उनके एक प्रसिद्ध मित्र ने पूछा कि आप अपने संपादक का कंट्रेक्ट क्यों नहीं बढ़ा रहे हैं,  जबकि ‘वह इतना संत आदमी है कि मैं विश्वास नहीं कर सकता कि आप उसकी छुट्टी करना चाहेंगे.’ गोयनका का जवाब था, ‘भाई, मैं मानता हूं कि वे सेंट जॉर्ज वर्गीज हैं. लेकिन मेरा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ शिवजी की बारात है, जिसे संभालना किसी संत के बूते में नहीं है.’

हजारों वर्षों से ‘शिवजी की बारात’ जुमला उस बिंदास जमावड़े के लिए एक उपमा के तौर प्रयुक्त होता रहा है, जो तमाम तरह के जीवों, भूत-प्रेतों, औघड़-डायनों से बना हो और मनपसंद नशे का सेवन करके मस्त-मनमौजी हो रहा हो. अब आप ही बताइए कि आज देश भर में भाजपा का विरोध कर रहे विपक्षी दल क्या ऐसे ही बाराती नहीं दिखते हैं?


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‘शिवजी की बारात’ तो इसके भावी दूल्हे शिवजी के प्रताप और निर्विरोध नेतृत्व के कारण नियंत्रण में रही थी, लेकिन आधुनिक ‘शिवजी की बारात’ में तो हरेक बाराती भावी दूल्हा है. यही वजह है की नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकार खुश हैं और राज्यों में मिले चुनावी सदमों को झटक रहे हैं.

अब जरा गिनती शुरू करें. एक तो काँग्रेस है, भारत के सबसे प्रसिद्ध शिवभक्त के नेतृत्व में, जिसके काफी हद तक विश्वसनीय माने जा सकने वाले चार सहयोगी हैं- शरद पवार की एनसीपी, एम.के. स्टालिन की द्रमुक, लालू यादव का राजद, और एच.डी. देवेगौड़ा का जेडीएस. इसे दूसरा मोर्चा मान लें (पहला एनडीए है). इसके बाद उत्तर प्रदेश ‘गठबंधन’ के रूप में अपने रास्ते चल रही सपा-बसपा है. फिलहाल जो स्थिति है उसके मुताबिक, चुनाव अभियान शुरू होगा तो ये दोनों दल भाजपा पर हमला तो करेंगे ही, काँग्रेस पर भी हमला करेंगे और काँग्रेस इन पर हमला करेगी. सुविधा के लिए इस गठबंधन को तीसरा मोर्चा कहें.

उधर ममता बनर्जी के शक्ति-प्रदर्शन के साथ एक और मोर्चा उभरता नज़र आ रहा है. इसमें काँग्रेस, सपा, बसपा और द्रमुक, चंद्रबाबू नायडु की टीडीपी, अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ सरीखी क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टियां इकट्ठी होती दिख रही हैं. इसे एक तरह का चौथा मोर्चा कह लीजिए.

इसके बाद नवीन पटनायक का बीजेडी, के. चंद्रशेखर राव का टीआरएस और जगन मोहन रेड्डी की वाइएसआरसीपी है. ये सब उपरोक्त मोर्चों से अलग हैं और अपने लिए मौके तलाश रहे हैं. इन्हें पांचवां, छठा, सातवां…. मोर्चा कह सकते हैं.

और आखिर में हैं वाम दल, जिन्हें कोई पूछ नहीं रहा है. तो आज ये है भाजपा विरोधी दलों की स्थिति— बिना दूल्हे की ‘शिवजी की बारात’ जैसी.

आगे इनमें काट-छांट, हेरफर तो हो ही सकती है. आप ममता के मंच पर नज़र डालेंगे तो वहां काँग्रेस और ‘आप’ मौजूद मिलेंगी, जो दिल्ली और पंजाब में एक-दूसरे की जान की दुश्मन हैं. टीडीपी ने अभी काँग्रेस के साथ रिश्ता नहीं जोड़ा है, क्योंकि तेलंगाना के चुनाव में शिकस्त के बाद वे आपस में वोटों की अदलाबदली को लेकर अनिश्चय में हैं. सपा, बसपा काँग्रेस से टक्कर लेने और उसे उत्तर प्रदेश में फिर शर्मसार करने को तैयार दिख रही हैं. पटनायक ने हमेशा की तरह अपने पत्ते खुले रखे हैं. तमाम क्षेत्रीय दलों में उनकी पार्टी विचारधारा का सबसे कम आग्रह रखती है. वे ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि मुस्लिम वोटों पर उनकी निर्भरता लगभग शून्य है.

केसीआर का पक्का विश्वास है कि वे तो प्रधानमंत्री पद के सबसे सक्षम उम्मीदवार हैं. केरल में काँग्रेस और वाम दल एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं. इन विविध दलों के नेताओं को अगर कोई चीज़ एकजुट करती है या उन्हें किसी रैली के मंच पर इकट्ठा करती है तो वह है भाजपा का विरोध. लेकिन इनमें से किसी के बीच बंधन बनने वाला कोई विचारधारात्मक सूत्र शायद ही नज़र आता है.

काँग्रेस के सिवाय इनमें से किसी दल को 50 सीटें मिलने की संभावना नहीं दिखती. उनके लिए सबसे बड़ी उम्मीद यह है कि भाजपा को 170 से, और काँग्रेस को 100 सीटों से नीचे रखो और तब बाकी सबको मिलकर ऐसा गठबंधन तैयार करो कि काँग्रेस उसे बाहर से समर्थन देने को मजबूर हो जाए. पिछली बार हमने यह सिनेमा जो देखा था उसका नाम था देवेगौड़ा का संयुक्त मोर्चा. ऐसे चुनाव नतीजे के बाद इनमें से हरेक दिग्गज को लोक कल्याण मार्ग पर ठिकाना मिलने की संभावना बढ़ जाती है, चाहे वह छोटी अवधि के लिए ही क्यों न मिले. फिर बाकी जीवन पूर्व प्रधानमंत्री के तमगे के साथ जीना पूर्व मुख्यमंत्री के तमगे के साथ जीने से तो बेहतर ही है. दिवंगत कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत को 1996 में देवेगौड़ा को कहीं से लाकर प्रकट कर देने का जादू करना पड़ा था. आज तो विपक्षी खेमे में ‘मैं भी देवेगौड़ा’ की मुद्रा में खड़े नेताओं की लाइन लगी है.

भारत 1996 को 2019 में दोहराने और फिर से मूर्ख बनने को शायद ही तैयार होगा. यही वजह है कि आप भाजपा वालों के चेहरों पर आत्मविश्वास और मुस्कराहट देख रहे हैं. मोदी और उनके रणनीतिकारों का मानना है कि इस बार गर्मियों में वही नहीं दोहराया जाएगा, जो हाल के विधानसभा चुनावों और कई उपचुनावों में हुआ, जिनमें उसे हार का मुंह देखना पड़ा.

विपक्ष में बिखराव, महत्वाकांक्षाओं की टक्कर, व्यक्तिगत नापसंदगी, और ‘मोदी हटाओ’ के एकसूत्री एजेंडा ने भाजपा वालों में यह विश्वास पैदा किया है कि भारत 1971 के ‘इंदिरा बनाम बाकी सब’ वाले चुनाव की ओर बढ़ रहा है. उस समय राजनीति के तमाम पंडितों ने तो वोटों के जोड़-घटाव के बाद घोषणा कर दी थी कि इंदिरा तो हारने वाली हैं, मगर ‘इंदिरा हटाओ’ के मुक़ाबले ‘गरीबी हटाओ’ के नारा देकर इंदिरा ने जोरदार जीत हासिल की थी.

किसी विधानसभा चुनाव में- जैसा कि हाल में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़ में हुआ– आप मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा न करके भी सत्ताधारी दल को चुनौती दे सकते हैं, क्योंकि आपके मतदाताओं को पता होता है कि आपकी ओर से इस पद के दो-तीन दावेदार कौन हैं; और मतदाता खासकर व्यक्तियों के प्रति वफादारी के आधार पर ध्रुवीकृत नहीं होते. लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में यह कहना खतरनाक हो सकता है कि हम राज्य-दर-राज्य मोदी का मुक़ाबला करेंगे, और साथ-ही-साथ आपस में भी भिड़ेंगे. मोदी इसे ‘तो इनमें से कौन बनेगा आपका नया देवेगौड़ा?’ अभियान में बदल देंगे और आपकी खाट खड़ी कर सकते हैं, कर देंगे.

भाजपा जबकि 2019 की तुलना 1971 से कर रही है, तथ्य यह है कि दो कारणों से 2019 उसके लिए और भी बेहतर साबित हो सकता है. एक कारण यह है कि 1971 के विपरीत, आज बड़ी संख्या में सीटें क्षेत्रीय दलों की झोली में जाएंगी. दक्षिण के दलों से लेकर मायावती और ममता तक कई क्षेत्रीय दल न के बराबर विचारधारात्मक आग्रह रखते हैं और भाजपा या काँग्रेस के साथ तालमेल भी कर चुके हैं और उनका विरोध भी कर चुके हैं. इसलिए वे अपने लिए विकल्प खुले रखेंगे. किसी भी आम चुनाव में भाजपा+काँग्रेस की सीटों का योग 543 में 350 के आसपास रहता है. यह योग 300 से नीचे गया तो फिर कई संभावनाएं खुल सकती हैं. अगर यह 275 से नीचे चला गया तब ये दल पूरी तरह से दोतरफा रुख अपना सकते हैं. वे भाजपा के भी सहयोगी बन सकते हैं.

दूसरा कारण यह है कि 1971 में खासकर हिन्दी पट्टी के बड़े विपक्षी दलों के लिए महज काँग्रेस-विरोध के नाम पर एकजुट होना संभव था. आज, तीव्र भाजपा-विरोध तो है मगर काँग्रेस-विरोध की भावना भी जीवित है. खंडित जनादेश की संभावना 50 के आसपास सीटें पाने वाले दलों के दिग्गजों को गैर-भाजपा, गैर-काँग्रेस सरकार के सपने देखने को प्रेरित कर रही है. ऐसी संभावना के सबसे मुखर पैरोकार हैं तेलंगाना के केसीआर.

अब जरा देखें कि शुद्ध गणित क्या कहता है-

भाजपा और काँग्रेस की सीटों का योग अगर 250 से कम रहा, तो इसकी कोई गुंजाइश नहीं है कि बाकी सब मिलकर 272 का आंकड़ा इन दो में से किसी एक पार्टी के बाहर से समर्थन के बिना जुटा लेंगे. इसका मतलब यह है कि हमें वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा या आइ.के. गुजराल के जैसा एक प्रधानमंत्री मिलेगा, जो दिहाड़ी पर गद्दी संभालेगा.


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दूसरी संभावना यह है कि मोदी या राहुल गांधी के सिवाय दूसरा कोई ऐसा नेता नहीं है, जो सिद्धांततः भी 50 सीटों का आंकड़ा पार कर सके. ऐसे में बाकी दल किसी गैर-भाजपा/गैर-काँग्रेस नेता को पूरे पाँच साल सम्मान देंगे यह तो दूर की बात है, उसे साल भर भी शायद ही बर्दाश्त करेंगे. ऐसी सरकार, बिना दूल्हे की मनमौजी ‘शिवजी की बारात’, जल्द ही गिर जाएगी. याद कीजिए, जयप्रकाश नारायण सरीखे संत भी 1979 में ऐसी जमात को एकजुट रखने में असफल रहे थे.

अंततः  अगर विपक्ष बिना नेता के चुनाव में उतरने पर आमादा होगा, तो मोदी  के लिए बस इतना काफी होगा कि वे इस कथा को सुनाते रहें. और मतदाता उन्हें ध्यान से सुनते रहेंगे. वे न भी सुनें और खंडित जनादेश चार दिन की चाँदनी वाली सरकार को सामने ला दे, तो फिर यह अमित शाह को यह दावा करने का मौका दे देगा कि भाजपा अब पचास साल राज करेगी.

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