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Friday, 22 November, 2024
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अमित शाह का लोहिया और अनुच्छेद-370 पर बयान तथ्यों पर आधारित नहीं

लोहिया कहते थे कि 1947 में जो बंटवारा हुआ वह अप्राकृतिक था और कभी न कभी वह वक़्त आएगा कि जब भारत और पाकिस्तान मिलेंगे क्योंकि दोनों का एक ही इतिहास, भूगोल और संस्कृति है.     

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कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद से आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा बीजेपी द्वारा संसद से लेकर सड़क तक और मीडिया में एक ज़बर्दस्त दुष्प्रचार चलाया जा रहा है कि समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के समर्थक थे.

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद के दोनों सदनों में कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि राममनोहर लोहिया और मधु लिमये इस प्रावधान के खिलाफ थे. उन्होंने 1964 में लोक सभा में अनुच्छेद 370 को लेकर हुई एक बहस का जिक्र करते हुए कहा कि मधु लिमये से लेकर राममनोहर लोहिया तक इसके खिलाफ थे. उन्होंने विपक्ष और खासकर समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या ये लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं थे?


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लोहिया का भारत-पाक संबंध और 370 पर रुख

अमित शाह अनुच्छेद 370 को लेकर 11 सितम्बर 1964 को लोक सभा में हुई जिस बहस का हवाला दे रहे थे, दरअसल वह बहस एक निर्दलीय सांसद प्रकाशवीर शास्त्री द्वारा अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने के लिए लाये गए एक निजी संशोधन विधेयक पर हुई थी. राममनोहर लोहिया ने इस मुद्दे पर दिए गए अपने 15-20 मिनट के भाषण में एक बार भी कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का ज़िक्र नहीं किया. उनका यह पूरा भाषण लोक सभा की वेबसाइट पर मौजूद है. (पृष्ठ संख्या 1321-1326).

अपने इस भाषण में डॉ. राममनोहर लोहिया लगातार यह कहते रहे ‘मैं तो चाहता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध सुधरें. इसके लिए लचीला दिमाग़ बनाइये. लचीला दिमाग़ तभी हो सकता है जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का महासंघ बने, तभी यह मसला हल किया जा सकता है.’

मधु लिमये ने न तो इस बहस में भाग लिया और न ही उन्होंने कभी कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया. बल्कि वे तो अनुच्छेद 370 को बनाये रखने के पक्षधर थे. 1987 में लिखित अपनी पुस्तक कंटेम्पोरेरी इंडियन पॉलिटिक्स के चौथे अध्याय (पृष्ठ संख्या 81 से 94) में अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने की मांग शीर्षक से विस्तार से उन्होंने इस बारे में लिखा है.

हिन्दी और अंग्रेज़ी में लोहिया के समग्र विचार राममनोहर लोहिया रचनावली  (संपादक- मस्तराम कपूर) द्वारा नौ खंडों में प्रकाशित किए गए हैं. इनमें कश्मीर पर एक पूरी किताब भारत-चीन और उत्तरी सीमाएं शामिल हैं लेकिन इसमें कहीं भी लोहिया ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 लगाए जाने का विरोध नहीं किया है. कश्मीर के मुद्दे पर लगातार उनका यही स्टैंड रहा है कि ‘मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना भारत-पाकिस्तान महासंघ बनाए हल नहीं करूंगा.’ उनका कहना था, ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनना चाहिए जिसमें कश्मीर चाहे किसी के साथ हो या फिर अलग इकाई बने, लेकिन महासंघ में आए.’

भारत-पाकिस्तान महासंघ के हिमायती थे लोहिया

राममनोहर लोहिया का मानना था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक धरती के दो टुकड़े हैं और सोच-समझ कर काम करें तो 10-15 साल में दोनों फिर से एक हो सकते हैं. लोहिया कहते थे कि 1947 में जो बंटवारा हुआ वह अप्राकृतिक था और कभी न कभी वह वक़्त आएगा कि जब भारत और पाकिस्तान मिलेंगे क्योंकि दोनों का एक ही इतिहास, भूगोल और संस्कृति है. जब तक ये दोनों देश आपस में न मिल सकें तब तक इनका एक महासंघ बनना चाहिए.

फ़रवरी 1950 में लोहिया ने एक भाषण दिया था हिन्दू बनाम हिन्दू जिसे बाद में एक लेख की शक्ल में उनकी पत्रिका जन  के जून-जुलाई-अगस्त-सितंबर-अक्तूबर, 1969 में धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया गया. यह भाषण लोहिया रचनावली का हिस्सा है. अपने इस भाषण में लोहिया ने कहा था, ‘मेरा विश्वास है कि पाकिस्तान की घटनाओं के लिए हिंदुस्तान के एक भी मुसलमान को छूना (हाथ लगाना) पाप होगा. ये न सिर्फ़ मनुष्यता के ख़िलाफ़ पाप होगा बल्कि हिंदुस्तान की जनता और हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी होगा.’


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अपने इसी भाषण में उन्होंने ये भी कहा, ‘हिंदुओं को जल्द से जल्द ये बात समझ लेनी चाहिए कि पाकिस्तान के विरोध के लिए ज़रूरी है कि वह मुसलमानों का दोस्त हो. जो मुसलमानों का विरोधी है, वह पाकिस्तान का दोस्त या एजेंट है. मुसलमानों का विरोध करना और उन्हें दबाना दो राष्ट्रों के सिद्धांत का समर्थन करना है और इससे पाकिस्तान को ताक़त मिलती है. इसके अलावा साम्प्रदायिक दंगे कराने वालों के ख़िलाफ़ सरकार को तेज़ी से सख़्त-से-सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए.’

कश्मीर पर पाकिस्तान को रियायत देने के खिलाफ थे लोहिया

इसी भाषण में राममनोहर लोहिया ने कश्मीर के सन्दर्भ में कहा, ‘हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच झगड़ा सिर्फ़ कश्मीर के इलाक़े को लेकर है. अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार, जैसा वह संयुक्त राष्ट्र संघ में माना और लागू किया जाता है, कश्मीर हिंदुस्तान का एक हिस्सा है और पाकिस्तान ने बेशर्मी से उस पर हमला किया है.’

इसके साथ ही अपने इस भाषण में उन्होंने कहा, ‘हिंदुस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह करने के लिए वचनबद्ध है. यह एक लोकतांत्रिक वादा है. लेकिन वादा पूरा करने से पहले (वहां) लोकतांत्रिक स्थिति लाना ज़रूरी है. आक्रमण करने वाली पल्टन को कश्मीर से बाहर निकालना होगा. संयुक्त राष्ट्र संघ अपने निरीक्षक भेज सकता है, लेकिन जनमत संग्रह, क़ानून के मुताबिक बनी हुई कश्मीर की सरकार ही कराएगी. मैं जानता हूं कि ये लोकतांत्रिक शर्तें, यदि संयुक्त राष्ट्र संघ आदेश न दे तो, पाकिस्तान को मंज़ूर न होंगी. लेकिन हिंदुस्तान को भी यह साफ़ कर देना चाहिए कि उसे कोई और शर्तें मंज़ूर न होंगी. हिंदुस्तान की सरकार बहुत रियायतें कर चुकी. यह सिलसिला अब बंद होना चाहिए.’

कश्मीर पर नेहरू से लोहिया के मतभेद

कश्मीर को लेकर जवाहर लाल नेहरू और लोहिया के विचारों में मतभेद की बात जगज़ाहिर है. अगस्त 1953 में जब नेहरू सरकार ने शेख़ अब्दुल्ला सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया तो राममनोहर लोहिया ने इसका पुरज़ोर विरोध किया था. 1958 में जब शेख़ अब्दुल्ला जम्मू की जेल में थे और उन पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जा रहा था तो लोहिया ने अपने दो वरिष्ठ सहयोगियों लोकसभा सांसद कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया और रामसेवक यादव को उनसे मिलने जम्मू भेजा. साथ ही उन्होंने शेख़ अब्दुल्ला को एक खत लिखा. इस ख़त में डॉ. लोहिया ने लिखा था, ‘शेख़ साहब, हम तो आपके साथ हैं और हम चाहते हैं कि आप न केवल कश्मीर का बल्कि पूरे देश का नेतृत्व करें.’ लोहिया के इस ख़त को बाद में अर्जुन सिंह भदौरिया ने अपनी आत्मकथा नींव के पत्थर में प्रकाशित किया.

1948 में जम्मू कश्मीर के हिंदुस्तान में विलय के बाद सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने वहां की समस्याओं की जानकारी के लिए एक उप-समिति का गठन किया था. राममनोहर लोहिया इस उप-समिति के संयोजक थे. समिति की इस रिपोर्ट में कहा गया कि ‘सोशलिस्ट पार्टी, कश्मीर की बहादुर अवाम और उसके नेताओं शेख़ अब्दुल्ला और मौलाना मुहम्मद सईद द्वारा पाकिस्तान, और उसके शैतानी द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ बहादुराना ढंग से डटकर खड़े रहने तथा साथ ही हिंदुस्तानी फ़ौज और वायु सेना के उन जांबाज़ सिपाहियों का अभिवादन करती है, जिन्होंने सेक्युलर डेमोक्रेसी का परचम उठाये रखा. साथ ही पार्टी कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के उन हालिया प्रस्तावों का भी स्वागत करती है जो वहां की जनता की दिली ख्वाहिश है कि वे हिंदुस्तान का अभिन्न अंग बने रहना चाहते हैं.’


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सोशलिस्ट पार्टी की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया, ‘कश्मीर का हिंदुस्तान का अभिन्न अंग बने रहना, हिंदुस्तान की अवाम के ऊपर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. कश्मीरियों ने जिस बहादुरी के साथ पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया है, ऐसे में हर हिंदुस्तानी का अब यह फ़र्ज़ बनता है कि वह दिल से द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत की जो मामूली सी किरच भी रह गयी है, उसे निकाल दे. हिंदुस्तान के हर नागरिक का बराबर का नागरिक होने का सिद्धांत, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, बहुत ही पवित्र और आनंददायक विचार है. साथ ही लोकतंत्र के तक़ाज़े के मुताबिक़ कश्मीर से स्वच्छंद राजशाही का भी अंत होना चाहिए.’

दिलचस्प बात ये है कि 29 मार्च 1977 को जनता सरकार बनने के बाद के बाद जब पहली बार लोक सभा में जम्मू कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई तो उस समय के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बारे में सदन को आश्वस्त कराया था और कहा था, ‘जब मैं प्रतिपक्ष में था तब मांग किया करता था कि अनुच्छेद 370 समाप्त होना चाहिए. आज वही अनुच्छेद 370 के अंतर्गत बना हुआ संविधान कश्मीर में राज्यपाल का राज लागू करने का कारण बना है. लेकिन मैं (यहां) एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि नई सरकार (जनता पार्टी की सरकार) अनुच्छेद 370 में कोई एकतरफ़ा परिवर्तन नहीं करेगी.’

इन ऐतिहासिक संदर्भों के साथ ही अनुच्छेद 370 पर चल रही बहस को देखा जाना चाहिए.

(लेखक समाजवादी आंदोलन का डॉक्यूमेंटेशन करते रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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