अमित शाह गलत कह रहे हैं कि 2024 में मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना इस बात पर निर्भर करता है कि 2022 में योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं या नहीं.
लखनऊ में पिछले शुक्रवार को भाजपा के सदस्यता अभियान का उद्घाटन करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि वे यूपी के लोगों को यह कहने आए हैं कि ‘मोदी जी को फिर एक बार ‘24 में प्रधानमंत्री बनना है तो ’22 में फिर एक बार योगी जी को मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा.’
दिल्ली और लखनऊ में पार्टी के लिए मीडिया का मोर्चा संभालने वाले जानते थे कि शाह गलत बोल रहे थे, वे अखबारों और टीवी चैनलों में भाजपा के बीट रिपोर्टरों को फोन करके कह रहे थे कि शाह के इस बयान की अनदेखी कर दें या गौण रूप से जारी करें.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि 80 सीटों वाला उत्तर प्रदेश मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की कुंजी है. यह भी एक तथ्य है कि यूपी विधानसभा के नतीजे 2024 के आम चुनाव के लिए सत्ता दल और विपक्ष, दोनों के चुनाव अभियान को गति प्रदान कर सकते हैं.
तो भाजपा के नेताओं की नींद अपने पूर्व पार्टी अध्यक्ष के बयान के कारण क्यों उड़ी हुई है?
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गलत धारणा
इसकी वजह शायद यह है कि इसने यह आभास दिया कि प्रधानमंत्री मोदी का दोबारा चुना जाना किसी नेता, या यूपी अथवा और कहीं भाजपा के प्रदर्शन पर निर्भर करता है. यह सच भले न हो, उनसे सहमत हुआ जा सकता है.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जब यह कहते हैं कि मोदी को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ‘विचार’, एक ‘दर्शन’ के रूप में देखा जाना चाहिए, तब यह ‘मोदीनामा’ के पाठ जैसा लग सकता है. और उनका यह कहना भी ऐसा ही लग सकता है कि महात्मा गांधी के बाद मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्हें भारतीय समाज और उसके मन की गहरी समझ है.
अब कोई चाहे तो रक्षा मंत्री जी को बड़बोला कह सकता है या उन पर जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल सरीखे नेताओं की अनदेखी करने का आरोप लगा सकता है, जो जनता को दिशा देने की क्षमता रखते थे. अगर बहुत मीन-मेख न निकालें तो कहा जा सकता है कि रक्षा मंत्री की बातों में एक मुद्दा है. ध्यान दीजिए कि प्रशांत किशोर ने पिछले सप्ताह गोवा में यह बयान देते हुए क्या संकेत किया. ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के मुताबिक किशोर ने कहा मोदी सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ाती जा रही है और ‘मोदी के खिलाफ कोई असंतोष नहीं दिख रहा है.’ वे कोई नासमझ नहीं हैं कि वहां दखल दे रहे हैं जहां राहुल गांधी जैसे देवदूत (पोप माफ करें) दखल देने से डरते हैं. वे एक सफल चुनाव रणनीतिज्ञ इसलिए हैं क्योंकि वे अपने ग्राहकों से खरी बात करते हैं. वे केवल इसलिए चिकनी-चुपड़ी बातें करने से परहेज नहीं करते कि किसी (राहुल गांधी) के सपने न टूटें. याद कीजिए, नोटबंदी के बाद विपक्षी नेता और कई राजनीतिक विशेषज्ञ किस तरह भविष्यवाणी कर रहे थे कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सफाया हो जाएगा. लेकिन मोदी का जलवा ही चला. राजनाथ सिंह ठीक कह रहे हैं कि मोदी भारतीय समाज और उसके मन को कई लोगों से बेहतर समझते हैं.
जहां तक यूपी के चुनाव नतीजों से 2024 के आम चुनाव के अभियान को गति मिलने का सवाल है, हम यह न भूलें कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव हारी थी. उसके बाद जो हुआ वह सब इतिहास है.
2019 में भाजपा ने यूपी में लगभग 50 फीसदी वोट हासिल किए थे, जो 2017 के विधानसभा चुनाव में हासिल वोट से 10 प्रतिशत-अंक से ज्यादा और 2014 के लोकसभा चुनाव में हासिल वोट से 7 प्रतिशत-अंक से ज्यादा थे. कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा ने 2017 के चुनाव में मोदी की बदौलत करीब 40 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, जबकि 2012 में उसे 15 फीसदी वोट ही हासिल हुए थे. 2017 में योगी आदित्यनाथ का असर केवल गोरखपुर और आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित था.
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योगी तो खुश नहीं हुए होंगे
अमित शाह के उपरोक्त बयान से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नाखुश होने की वजहें भी हो सकती हैं. योगी आदित्यनाथ उन मुख्यमंत्रियों में से नहीं हैं जिन्हें वोट पाने के लिए मोदी के नाम की जरूरत हो. एक नेता और प्रशासक के तौर पर उन्होंने अपनी एक पहचान बनाई है. 2017 से वे बहुत आगे निकल आए हैं. राजनीति और शासन चलाने की उनकी शैली से कोई सहमत हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन यह एक तथ्य है कि आज पूरे यूपी पर उनकी एक पकड़ है, भले ही वह अलग तरह से हो.
योगी आदित्यनाथ ने खुद को मोदी के उस रूप में सफलता से पेश कर लिया है जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे— एक ताकतवर नेता, हिंदू हृदयसम्राट के रूप में (ध्रुवीकरण वाली उनकी राजनीति, माफिया से निबटने के उनके तौर-तरीके, नागरिकता कानून का विरोध करने वालों के प्रति उनके व्यवहार से उनके विरोधी सहमत हों या नहीं); एक विकासपुरुष (विकास के उनके दावे पर भले ही सवाल खड़े किए जाते हों) के रूप में; भ्रष्टाचार-मुक्त नेता के रूप में, जो अपने पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए भी नहीं गया ताकि महामारी के दौरान जनता की सेवा कर सके (जैसा कि उन्होंने अपनी माताजी को लिखा).
वे कभी आरएसएस के सदस्य नहीं रहे मगर उसने उन्हें अपना मान लिया है. उनकी कार्यशैली को लेकर भाजपा में जब असंतोष उभरने लगा तो आरएसएस के बड़े पदाधिकारी— महासचिव दत्तात्रेय होसबले से लेकर संयुक्त सचिव कृष्ण गोपाल और भाजपा में तैनात आरएसएस के शख्स बी.एल. संतोष तक और भी लोग— लखनऊ पहुंच गए.
इस स्थिति में भाजपा आलाकमान यूपी पार्टी के आंतरिक पचड़े में दखल देने से हिचक रहा था. आपसी मतभेदों को सुलझाने के लिए होसबले ने योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के साथ खाने पर बैठक की. याद कीजिए, आरएसएस के बड़े पदाधिकारियों को किसी मुख्यमंत्री के लिए इस तरह खुल कर राजनीतिक मध्यस्थता करते इससे पहले कितनी बार देखा था?
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी भाजपा के ‘यूएसपी’ हैं. लेकिन अब वे ऐसे नेता नहीं रहे हैं जो अपने दम पर राज्यों में चुनाव नतीजों को बदलवा सकें. जब वे विपक्षी दलों के राज की गड़बड़ियों का इलाज करने वाली उम्मीद की एक किरण बनकर राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर आए तब विधानसभा चुनावों में भाजपा उनके नाम पर वोट खींचती रही. इसलिए, नवंबर-दिसंबर 2013 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, और छत्तीसगढ़ से शुरू करके भाजपा ने कई राज्यों में विपक्ष को सत्ता से बाहर कर दिया. मतदाताओं को मोदी पर भरोसा था कि वे अच्छा शासन दिलाएंगे, चाहे वे मुख्यमंत्री किसी को भी बनाएं.
लेकिन पांच साल का चक्र पूरा होते ही लोगों ने मोदी और उनके मुख्यमंत्रियों के बीच भेद करना शुरू कर दिया. यह नवंबर-दिसंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनावों से स्पष्ट रूप से सामने आने लगा, जब भाजपा को तीन राज्यों में हार का मुंह देखना पड़ा. वैसे, नवीन पटनायक (ओड़ीशा), के. चंद्रशेखर राव (तेलंगाना), ममता बनर्जी (प. बंगाल), और अरविंद केजरीवाल (दिल्ली) सरीखे कई क्षेत्रीय नेता मोदी लहर में भी अपना खूंटा बचाए रहे.
लेकिन विधानसभा चुनावों में अपने घटते प्रभाव से मोदी हतोत्साहित नहीं हैं. वे इन चुनावों में उसी जोश से प्रचार करते हैं और जरूरी हो तो भाजपा की राजनीतिक मजबूरियों के साथ-साथ विदेश नीति से जुड़े अपने प्रयासों को भी जोड़ दिया करते हैं. पश्चिम बंगाल के चुनाव के दौरान वे बांग्लादेश में स्थित मटुआ मंदिर भी गए. इस सहनिवार को वे वैटिकन में पोप फ्रांसिस से गले मिल रहे थे और उन्हें भारत आने का निमंत्रण दे रहे थे. भाजपा इसका फायदा गोवा और मणिपुर के अलावा केरल में होने वाले चुनावों में उठा सकती है. इन तीन राज्यों में ईसाइयों की अच्छी आबादी है.
योगी आदित्यनाथ को अपनी पार्टी वालों का लोगों से यह कहना शायद ही खुश करेगा कि मोदी को 2024 में फिर प्रधानमंत्री बनाना है तो वे उन्हें (योगी को) फिर चुनाव जिताएं. योगी तो दूसरी बार चुनाव जीतने का खुद ही लेना चाहेंगे, क्योंकि यही उन्हें भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों से अलग साबित करेगा और 2024 या उसके आगे केंद्र में बड़ी भूमिका का दावेदार बनाएगा.
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