दिल्ली के सांप्रदायिक दंगे में पुलिस और नेताओं की भूमिका स्तब्ध करने वाली हैं. यहां तक कहा जाने लगा है कि ये 1947 या राममंदिर आंदोलन के दौर वाली सांप्रदायिकता की वापसी है, जब एक बड़ी आबादी हत्याओं और लूटपाट में समस्याओं का समाधान देखने लगी थी. पुलिस की भूमिका भी निष्पक्ष न होकर, सांप्रदायिक नजर आ रही है.
अगर हम इतिहास को खंगालें तो वहां इसका एक समाधान नजर आता है. इसके लिए हमें भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से सीखना होगा.
दिल्ली दंगे में ऐसे वीडियो आए, जिनमें पुलिस की मौजूदगी में कुछ लोगों की पिटाई के बाद उनसे भारत माता की जय के नारे लगवाए गए और राष्ट्रगान गाने को कहा गया. एक मस्जिद पर चढ़कर भगवा झंडा फहराते, उसके लाउडस्पीकर और प्रतीक चिह्न तोड़ते युवा नजर आए.
तमाम ऐसे लोग हैं, जो मुस्लिम धर्म के लोगों के खिलाफ खुलेआम सोशल मीडिया और समाचार चैनलों पर टिप्पणियां कर रहे हैं. केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा संसद में देश भर में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने की घोषणा और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बनने के बाद एक बार फिर देश में वही हालात नजर आ रहे हैं, जो आज के 75 साल पहले स्वतंत्रता के समय थे.
पटेल, नेहरू और सांप्रदायिकता का विस्फोट
1947 के आस-पास पुलिस और आम लोगों की मानसिकता पर पटेल ने कई बार टिप्पणियां की थीं, जिसके चलते उन्हें शासन संभालने में दिक्कत आ रही थी. सांप्रदायिक पागलपन पर काबू पाने की कवायद में जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारत और पाकिस्तान की ओर से साझा संभावनाओं की तलाश में लाहौर में थे, तो 2 सितंबर 1947 को पटेल ने उन्हें कूरियर से एक पत्र भेजा.
उसमें लिखा था, ‘सुबह से लेकर देर रात तक मेरा समय पूरे पश्चिमी पाकिस्तान से आए हिंदू और सिख विस्थापितों से अत्याचार और भय की कहानियां सुनते हुए बीतता है. यह एक मुंह से दूसरे मुंह तक फैल रहा है. आप पूरे समुदाय के मनोविज्ञान को जानते हैं. लोग खुलेआम कह रहे हैं कि मुसलमानों को दिल्ली औऱ अन्य शहरों से सुरक्षित जाने क्यों दिया जा रहा है. पुलिस और सिविल एडमिनिस्ट्रेशन में मुस्लिम क्यों हैं.’
उन्होंने आगे लिखा, ‘मैं इस मानसिक मूर्खता पर कोई परदा डालने के लिए यह नहीं लिख रहा हूं, बल्कि लोगों के दिमाग में चल रहा है, उससे अवगत करा रहा हूं. पाकिस्तान सामान ले जा रही मालगाड़ी को लोगों ने बहादुरगढ़ में जला दिया. मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं, चाहे वह साइकिल से जा रहे हों, पैदल जा रहे हों, या ट्रेन से. अगर पश्चिमी पंजाब में स्थितियां नहीं बदलीं तो भारत में अन्य इलाकों में भी स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है.’
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इन हालातों में महात्मा गांधी ने पटेल को पत्र लिखा, ‘आपको जल्द ही इस तरह की अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ सकता है. भगवान आपको इससे निपटने के लिए ताकत और बुद्धिमत्ता प्रदान करें.’ (द लास्ट फेज, प्यारेलाल)
सरदार पटेल न सिर्फ पाकिस्तान में हो रही हिंसा से चिंतित थे, जिसकी प्रतिक्रिया भारत में हो रही थी, बल्कि यह सब कुछ अपनी आंखों से देख भी रहे थे. 31 अगस्त 1947 को पटेल नागरिकों की आवाजाही देखने जालंधर गए. उन्होंने नेहरू को पत्र लिखा, ‘मैंने देखा कि अपने साइड में सतलज के किनारे के गांवों में कुछ मकान जल रहे थे.’ उन्होंने माना कि पूर्वी पंजाब में भी अत्याचार हो रहे हैं. धार्मिक पागलपन को रोकने के लिए दिल्ली में सेना लगाई गई. कुछ सिख व राजपूत सैनिकों ने मुस्लिमों पर हमला कर दिया. उस समय पटेल ने देवदास गांधी से बड़े दुख के साथ कहा, ‘हम अपने सैनिकों पर नियंत्रण खो चुके हैं.’ (पटेल- ए लाइफ, राजमोहन गांधी, पेज 429)
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए पटेल ने क्या किया?
सवाल उठता है कि पटेल ने ऐसी स्थिति में क्या किया, जब उनके ऊपर हिंदुओं का पक्ष लेने की बात कही जा रही थी. परिस्थितियां ऐसी थीं कि सेना से लेकर आम नागरिकों के मन में धार्मिक नफरत भरी हुई थी. चौतरफा भय का वातावरण था. पटेल ने कभी यह नहीं दिखाया कि वे हिंदुओं के पक्षधर नहीं हैं. लेकिन जब कानून व्यवस्था और अपने पद के साथ न्याय की बात आई तो दायित्वों का निर्वहन करने से कभी पीछे नहीं हटे. नेहरू और माउंटबेटन के सामने पटेल ने घोषणा की, ‘मैं दिल्ली को एक और लाहौर नहीं बनने दूंगा.’ (मिशन विद माउंटबेटन, कैंपबेल जॉनसन पेज-182) उन्होंने सार्वजनिक रूप से पार्टीशन के कर्मियों को दंडित करने की धमकी दी और 7 सितंबर 1947 को दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पुलिस कार्रवाई में 4 हिंदू दंगाई मारे गए.
इसी तरह से 1 औरंगजेब रोड पर वीपी मेनन और एचएम पटेल दिल्ली की कानून व्यवस्था पर सरदार पटेल से चर्चा कर रहे थे. उसी समय एक व्यक्ति आया और उसने कहा कि उसके घर के नजदीक एक मुस्लिम को काट डाला गया है. पटेल गुस्से में आ गए, उनकी आवाज बदल गई. मेनन ने इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि सरदार ने कहा, ‘यहां बैठकर चर्चा करने व इंतजार करने का क्या मतलब है? आप काम पर क्यों नहीं लगते? जाइए और कुछ करिए.’
दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को लेकर पटेल की चिंता का उल्लेख करते हुए शंकर ने लिखा है..
दरगाह की सुरक्षा को लेकर खतरा हो गया था. दरगाह के आस-पास रहने वाले हजारों बच्चे, महिलाएं व पुरुष डरे हुए थे और अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे. सरदार ने अपने गले में अंगोछा लपेटा और कहा, ‘वह संत नाराज हो जाएं, उसके पहले चलिए हम वहां हाजिर होते हैं.’ हम बगैर किसी सुरक्षा व व्यवधान के वहां पहुंच गए. सरदार ने उस परिसर में 45 मिनट बिताए. वह दरगाह पर गए और वहां उपासना की. लोगों से बात की और उनकी बात सुनी. पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया और कहा कि अगर यहां कुछ भी गलत होगा तो आप लोगों को बर्खास्त किया जाएगा और उस घटना के लिए आप सीधे जिम्मेदार होंगे.
कानून व्यवस्था को लेकर सरदार सख्त थे. मुस्लिमों के गलत आचरण को भी वह किसी भी हाल में बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. 13 सितंबर 1947 को वह दिल्ली के फैज बाजार थाने के पास से वह गुजर रहे थे तो मुस्लिम नियंत्रण वाली एक इमारत से गोलियां चल रही थीं. पुलिस अधिकारी ने कहा कि इस इमारत को ढहाए बगैर शांति बनाना असंभव है. सरदार ने कहा, ‘उसे उड़ा दो.’
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हम उस दौर के साक्ष्यों से पाते हैं कि सरदार पटेल देश को जलने से बचाने में इसलिए सफल हुए थे कि उनके प्रशासन में निष्पक्षता थी. उनके ऊपर हिंदुओं के प्रति सहानुभूति रखने, हिंदू परंपरावादी होने के आरोप लगते थे और वे इन आरोपों का खंडन भी नहीं करते थे. वहीं अपने प्रशासनिक दायित्व निभाते समय वह नागरिकों में जाति, धर्म, संप्रदाय या इलाकाई आधार पर कभी भी भेदभाव नहीं करते थे जिसके चलते जनता का भरोसा उनके ऊपर कायम हुआ और वह स्थिति संभालने में कामयाब रहे.
शांति बनाए रखने के लिए प्रशासन और कानून पर लोगों का भरोसा कायम होना जरूरी है. साथ ही यह भी जरूरी है कि लोगों में आपसी विश्वास कायम हो.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)