इस बार के चुनावी मौसम में पश्चिम बंगाल की राजनीति अपना सबसे अच्छा चेहरा पेश कर रही है या सबसे खराब चेहरा? इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर करेगा कि आप कहां खड़े हैं.
आपको केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह या बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का, या कभी शाह के प्रिय कॉमरेड रहे और अब तृणमूल कांग्रेस प्रमुख के चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर में से किसी का प्रशंसक होने की जरूरत नहीं है. इनमें से एक ने अगर आधुनिक चाणक्य के रूप में अपना नाम कमाया है, तो दूसरी ने जबरदस्त जुझारू नेता के रूप में ख्याति अर्जित की है. वे एक-दूसरे को परास्त करने के लिए ग्लव्स पहने बिना बेलाग घूंसेबाजी पर उतारू भले नज़र आते हों, लेकिन दुनिया के सामने बाहुबल और जबानी जंग का जो प्रदर्शन हो रहा है उसके पीछे शातिर जोड़-तोड़ और रणनीति पर आधारित तीक्ष्ण दिमागी खेल का भी हाथ है.
इसलिए, उनकी चालों का उसी तरह मजा लीजिए जिस तरह शतरंज के खेल में विश्वनाथन आनंद और मैगनस कार्लसेन की चालों का लेते हैं. चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, शाह-ममता की टक्कर में हर दिन एक नयी चाल देखने को मिलती है. और हर चाल संभावनाओं से भरी दिखती है. पिछले सप्ताह की उनकी चालें जितना उनकी मजबूती उजागर करती हैं, उतना कमजोरियां भी.
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सीएए पर विराम?
पिछले सप्ताह शाह ने पश्चिम बंगाल में बयान दिया कि ‘कोविड टीकाकरण प्रक्रिया खत्म होते ही’ नागरिकता (संशोधन) कानून यानी सीएए के तहत नागरिकता प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी.
वे मटुआ समुदाय के गढ़ ठाकुरनगर में भाषण दे रहे थे. यह समुदाय नामसुदर हिंदू शरणार्थियों का है जिनकी आबादी राज्य की कुल आबादी का 20 प्रतिशत है. अब मटुआ समुदाय जरूर आशंकित हो गया होगा. कोई नहीं जानता कि कोविड टीकाकरण प्रक्रिया कब पूरी होगी.
इस बारे में सबसे ताजा संकेत केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन से मिला है, जिनके मुताबिक जुलाई-अगस्त 2021 तक करीब 25-30 करोड़ लोगों का टीकाकरण हो जाएगा. भाजपा सरकार को तो अभी यही तय करना है कि कितने भारतीयों को कोविड का टीका लगाया जाएगा, प्रक्रिया कब पूरी होगी यह तो दूर की बात है.
शाह के उपरोक्त बयान से एक दिन पहले, भाजपा के राज्य प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने दिप्रिंट को अलग ही समयसीमा बताई थी. उन्होंने कहा कि सीएए के ‘विरोधियों’ ने सुप्रीम कोर्ट में ‘168 मुकदमे’ दायर कर रखे हैं, जिन याचिकाओं की सुनवाई में ‘कम-से-कम दो से तीन महीने लगेंगे. ये मामले जब साफ हो जाएंगे तब सरकार नियम तैयार करेगी और फिर सीएए पर पीछे हटने का सवाल नहीं है’.
दो से तीन महीने! पिछले साल ये मामले सुप्रीम कोर्ट में बस तीन बार आए.
इस महीने के शुरू में शाह के गृह मंत्रालय ने लोकसभा को बताया कि उसे सीएए को लागू करने के लिए नियम तैयार करने और अधिसूचित करने का जुलाई 2021 तक का समय दिया गया है. अब किसकी बात मानें— शाह की, विजयवर्गीय की या गृह मंत्रालय की?
जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात है, उन्होंने जब चुनाव के लिए तैयार असम में भाषण दिया तो इस मसले पर चुप ही रहे. इस राज्य में कई स्थानीय समुदाय इस कानून के खिलाफ हैं.
और केवल सीएए ही अकेला कानून नहीं है, जिसे लागू किया जाना 14 से ज्यादा महीनों से लटका पड़ा है. आपको 1988 के बेनामी एक्ट की याद तो होगी ही, जिसे संसद से पारित होने के बाद लागू किए जाने का 28 साल तक इंतजार करना पड़ा था क्योंकि उसके नियम ही नहीं बने थे. भाजपा सीएए के मामले में पीछे नहीं हटेगी क्योंकि वह उसके राजनीतिक आख्यान को मजबूत करता है. लेकिन तथ्य यह है कि भाजपा की सियासत के लिए सीएए पश्चिम बंगाल केंद्रित है. राष्ट्रीय राजधानी के शाहीन बाग समेत सीएए विरोधी प्रदर्शनों के कारण भाजपा को दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कोई लाभ नहीं हासिल हुआ. न ही उनका असर बिहार विधानसभा के चुनाव पर पड़ा.
असम के भाजपा नेता हिमंत बिसवा सरमा ने हाल में सुझाव दिया कि ‘मियां मुसलमान’ उनकी पार्टी को वोट न दें. वे और उनके पार्टीजन बांग्लादेश से अवैध रूप से आए मुस्लिम प्रवासियों को निशाना बनाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहेंगे, मगर इससे उन स्थानीय असमियों की आशंकाएं नहीं दूर होतीं क्योंकि वे किसी ‘बाहरी’ को नहीं चाहते, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान.
तो पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार क्या करेगी? सीएए के मसले पर पार्टी असम और बंगाल के बीच बटी हुई है, और चुनाव नतीजे इस समस्या को हल नहीं करेंगे. भाजपा अगर दोनों राज्यों में सत्ता में आ गई तब क्या करेगी? आज उसकी दुविधा यह है कि तब सीएए पर वह क्या रुख अपनाएगी?
अगर वह असम में चुनाव नहीं हारती, जिसकी संभावना कम ही है, तब भाजपा की प्राथमिकता यह होगी कि अवैध प्रवासियों को लेकर स्थानीय समुदायों की चिंताओं का समाधान करे. और पश्चिम बंगाल में वह हारती है तब सीएए को लागू करने में सुस्ती बरत सकती है लेकिन अगर वहां भी जीत गई, जिसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, तो उस पर सीएए को लागू करने का दबाव मटुआ समुदाय की ओर से बढ़ जाएगा. उससे यह भी अपेक्षा की जाएगी कि वह अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई करने के जो दावे करती रही है उसे पूरा करे.
इसलिए सवाल यह है कि अगर वह असम और बंगाल, दोनों में जीत गई तब सीएए को लागू करने के मामले में क्या करेगी?
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मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं को न्याय
पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसलिए, 2016 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों ने ममता के पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा वामपंथी कार्यकर्ताओं की कथित हत्याओं पर शोर मचाया था तब किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया था. लेकिन यह माना जा सकता है कि वाम दल जो नहीं कर पाए वह भाजपा कर सकती है. उसने अपने ‘130 कार्यकर्ताओं’ की हत्या को पश्चिम बंगाल में चुनावी मुद्दा बना लिया है.
इससे उसे दो फायदे हैं— पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा और सत्ता दल तृणमूल कांग्रेस द्वारा हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप को मजबूती मिलेगी. शुक्रवार को एक टीवी इंटरव्यू में अमित शाह ने ममता को चेताया, ‘ऐसे आपके गुंडे बचेंगे नहीं. जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार आएगी, पाताल से ढूंढकर उनको ढूंढ लेंगे.’ 2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के परिवारों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में निमंत्रित किया था.
2018 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव से पहले अमित शाह ने कहा था कि पिछले चार साल में आरएसएस और भाजपा के 20 कार्यकर्ता मारे गए और भाजपा जब सत्ता में आएगी तब उन्हें न्याय दिलाएगी.
आज वहां भाजपा की सरकार है लेकिन मारे गए पार्टी कार्यकर्ताओं को कोई याद नहीं कर रहा. पार्टी ने ‘जिहादी’ ताकतों द्वारा मारे गए 23 कार्यकर्ताओं की सूची भी जारी की थी लेकिन उसे तब शर्मसार होना पड़ा था जब इस सूची में पहला नाम जिसका था वह जीवित पाया गया था.
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बंगाल में धर्म और राजनीति का घालमेल
भाजपा पश्चिम बंगाल में हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने की खुली कोशिश कर रही है. वह ममता पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति करने और भगवान राम के प्रति सम्मान न जताने के आरोप लगा रही है.
तृणमूल कांग्रेस इसका जो जैसे को तैसा जवाब दे रही है वह दिलचस्प है. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने पिछले सप्ताह एक टीवी कार्यक्रम में यह कहकर तृणमूल कांग्रेस को एक हथियार थमा दिया कि ‘भगवान राम राजा थे…. दुर्गा पता नहीं कहां से ले आते हैं ?’
तृणमूल कांग्रेस ने तुरंत पलटवार किया और इसे महिलाओं का अपमान बताकर उसे आड़े हाथों लिया. उसने ममता को भारत में आज ‘एकमात्र महिला मुख्यमंत्री’ बताते हुए उनकी तुलना मां दुर्गा से कर डाली कि वे महिषासुरों से लड़ रही हैं.
टीएमसी के सांसद अभिषेक बनर्जी ने शनिवार को भाजपा पर हमला करते हुए सवाल उठाया कि यह भगवा पार्टी ‘जय श्रीराम ’ की जगह ‘जय सियाराम ’ का नारा क्यों नहीं लगाती? ‘वे सीता का नाम इसलिए नहीं लेते क्योंकि वे महिलाओं का सम्मान नहीं करते.’
बंगाली लोग दुर्गा और काली के भक्त हैं, तृणमूल कांग्रेस भाजपा को हिंदी क्षेत्र की पार्टी घोषित करने में जुटी है. इसके जवाब में भाजपा ‘जय मां दुर्गा, जय मां काली ’ का नारा उछाल रही है.
हिंदुत्ववादी प्रचार के जवाब में ममता ‘बंगाली बनाम बाहरी ’ का जो मुद्दा उछालने की कोशिश कर रही हैं वह हताशा में उपजी लग सकती है क्योंकि यह भाजपा के एकाधिकार का मामला है. फिर भी, इसने भाजपा को हैरत में डाल दिया है.
दिलीप घोष ने शनिवार को कहा, ‘वे राजनीति और धर्म का घालमेल करके लोगों को बांटने की कोशिश कर रहे हैं.’ ऐसा लगता है कि एक बार के लिए दांव उलटा पड़ गया है.
इस बीच, दिनेश त्रिवेदी ने पिछले सप्ताह राज्य सभा से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि वे तृणमूल कांग्रेस में ‘घुटन’ महसूस कर रहे थे.
दिलचस्प यह है कि यह ‘घुटन’ उन्हें नौ साल बाद महसूस हुई जबकि उन्हें तब ममता के कहने पर रेल मंत्री के पद से हटा दिया गया था. राजनीतिक हल्के में कई लोगों के चेहरों पर तब मुस्कराहट आ गई जब संसद से निकलने के बाद त्रिवेदी अपने निवास में देवताओं की मूर्तियों के सामने गए और शीशे की खिड़की के बाहर खड़े फोटोग्राफरों के सामने शंख उठाकर बजाने लगे. इसने उन तमाम अटकलों को विराम लगा दिया कि उनके कदम किस पार्टी में पड़ने वाले हैं.
कांग्रेस पार्टी के विदेश प्रमुख सैम पित्रोदा यह सोच रहे होंगे कि दिल्ली में अब उनका पता क्या होगा क्योंकि वे जब इस शहर में होते थे तब त्रिवेदी के निवास में ही ठहरते थे.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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