यह अंतराष्ट्रीय राजनीति और पूरी दुनिया की विफलता ही कही जा सकती है कि आज द्वितीय विश्व युद्ध के 75 वर्ष बाद भी कोई देश साम्राज्यवाद और मध्ययुगीन बर्बरता से एक साथ जूझ रहा है.
वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद ऐसी उम्मीद की गयी थी कि दुनिया के हर हिस्सों में साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और विस्तारवाद का ख़ात्मा किया जाएगा. इसके साथ- साथ दुनिया के हर हिस्सों मे मानवाधिकार, लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित किए जाएंगे. लेकिन यदि अफ़ग़ानिस्तान के अनुभवों पर गौर करें तो इन दोनों ही मोर्चे पर सामूहिक असफलता विश्व के समक्ष अनेकों प्रश्न खड़े करता है.
क्या किसी की देश की भू -राजनीतिक स्थान उसके लिए साम्राज्यवादी अभिशाप है ? क्या दुनिया के हर हिस्से में जबरन उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना ‘साम्राज्यवादी विचारधारा’ का दूसरा रूप नहीं ? क्या ‘आधुनिक’ विचार को किसी देश पर जबरन थोपा जा सकता है ? क्या महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और अन्य मूल्यों जैसे स्वतंत्रता के हनन पर विश्व समुदाय मूक़दर्शक रह सकता है या किस रूप में इन मूल्यों को स्थापित करने में मददगार हो सकता है ?
अफगानिस्तान के इतिहास को हमेशा साम्राज्यवादी शक्तियों के युद्ध के परिप्रेक्ष्य में देखने और समझने की कोशिश की जाती है. उत्तर – उपनिवेशवादी दौर में भी अफगानिस्तान को पूर्व सोवियत यूनियन और अमेरिका के साम्राज्यवादी युद्ध का सामना करना पड़ा था. इन दोनों ही युद्ध के समर्थकों ने अफगानिस्तान की राजनीति, संस्कृति और आर्थिक ढांचे को बदलने की नाकाम कोशिशें की. अफगानिस्तान की राजनीति का उदार होना तो दूर, यह और भी कट्टर और बर्बर हो गया.
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अमेरिकी हस्तक्षेप के 20 साल बाद अफ़गानिस्तान
यही वजह है अमरीकी सैनिक हस्तक्षेप के 20 वर्ष बाद भी तालिबान उसी मजबूती से आज भी देश में एक के बाद एक बर्बरतापूर्ण फ़ैसले लिए जा रहा है. अमरीकी सेनाओं द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा इसकी एक प्रमुख वजह है. इस हिंसा में आम और निर्दोष अफ़ग़ानियों की जाने गईं हैं. अफगानिस्तान की राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को अमेरिका ने मिलिट्री स्ट्रैटेजी के तहत देखा. फलस्वरूप, अफ़ग़ानियों में राष्ट्र निर्माण को लेकर विश्वास ही उत्पन्न नहीं हो सका.
लगभग 85 प्रतिशत अफ़ग़ान भूभाग आज तालिबान के क़ब्ज़े में है. हाल ही में 20 अफ़ग़ान कमांडो के समर्पण करने के फ़ौरन बाद तालिबान द्वारा उन्हें गोली मार देने का वीडियो सामने आया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ तालिबान ने 15 साल से कम उम्र की लड़कियों की और 45 साल से कम उम्र की विधवाओं की सूची मांगी है. यह सूची इसलिए मांगी गयी है कि इन लड़कियों और विधवाओं की शादी तालिबान लड़ाके से करवायी जा सके.
ऐसे बहुत सारे तालिबानी फ़ैसले हैं जो न सिर्फ़ महिला विरोधी बल्कि मानवता के ख़िलाफ़ भी एक गम्भीर अपराध है. लेकिन इन सबके बावजूद तालिबान की स्वीकार्यता आज एक बार फिर से अफगानिस्तान में क्यों है?
बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप और तालिबान के इन शक्तियों के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष ने इसे कहीं न कहीं राजनीतिक वैधता प्रदान की है. यानी साम्राज्यवादी विचार और शक्तियों के कारण अफगानिस्तान में कट्टरपंथी ताक़तों को फलने – फूलने का मौक़ा मिलता रहा है.
उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को जबरन अफगानिस्तान में थोपने की कोशिश भी नाकाम ही साबित हुई है. अफगानिस्तान एक जनजाति यानी समुदाय आधारित समाज है. पश्चिम के देशों का लोकतांत्रिक अनुभव व्यक्ति आधारित समाज के अनुकूल था. लोकतंत्र के इस मॉडल को अफगानिस्तान जैसे देशों में जबरन नहीं थोपा जा सकता. कोई भी मॉडल के केंद्र में ‘अफ़ग़ान नियंत्रित, अफ़ग़ानी स्वामित्व और अफ़ग़ान नेतृत्व ‘ ही मुनासिब होगा. दुनिया के हर देश को इस मॉडल को ही केंद्र में रखकर अफगानिस्तान के बारे में सोचना होगा. ख़ुशी की बात है कि भारत ने अपने पूर्व घोषित अफ़ग़ान नियंत्रित, अफ़ग़ानी स्वामित्व और अफ़ग़ान नेतृत्व के संकल्प को दुहराया है .
जहां तक आधुनिक विचारों का प्रश्न है तो पश्चिमी पुनर्जागरण से उपजा मॉडर्निटी के वर्ज़न के अतिरिक्त भी हर समाज के लिए मॉडर्निटी की अपनी समझदारी है . समस्या सिर्फ़ इस वैकल्पिक मोडेरनिटी की समझदारी के साथ न्याय, स्वतंत्रता और महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना है. तालिबान को भी महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बर्बरतापूर्ण व्यवहार को त्यागना ही होगा .
आज जब अमेरिका अफगानिस्तान से वापस जा रहा है ऐसे में ईरान, चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देश क़ाबुल को भू- राजनीतिक और भू -आर्थिक लड़ाई का अखाड़ा बना सकते हैं. क़ाबुल को दीर्घकालिक और व्यापक शांति के लिए बाहरी शक्तियों को हस्तक्षेप से बचना होगा. अंतराष्ट्रीय समुदाय को अफगानिस्तान की संप्रभुता को सुनिश्चित करना होगा . हस्तक्षेप से बचने का अर्थ सहयोग से बचना नहीं है. बिना अंतराष्ट्रीय सहयोग के अफगानिस्तान में शांति और प्रगति सम्भव नहीं .
भारत समेत पूरी दुनिया की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि अफगानिस्तान की राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आगे बढ़े. विश्व और क्षेत्रीय शक्तियों को अपने सामरिक हितों के बजाए अफगानिस्तान के शांति प्रक्रिया को अधिक तवज्जो देना चाहिए. अफगानिस्तान को एक आम अफ़ग़ानियों के दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है न कि भू – रणनीतिक दृष्टिकोण से .
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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