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Thursday, 19 December, 2024
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पत्रकारों की गिरफ्तारियां : कई और पहलुओं पर भी गौर करने की जरूरत है

हमारे देश में मीडिया और लोकतंत्र के साथ अभिव्यक्ति की आजादी का भी बुराहाल इसलिए है कि ‘सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने मुनाफे के लिए पत्रकारों को प्यादों की तरह चलाना शुरू कर दिया है.

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ये पंक्तियां पढ़ते हुए कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए, अगर मैं कहूं कि मैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अभद्र, आपत्तिजनक अथवा मानहानिकारक टिप्पणियों, ट्वीटों व प्रसारणों को लेकर पत्रकारों की गिरफ्तारियों के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और उसे धन्यवाद देना चाहता हूं. इसलिए कि जब कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने टीवी न्यूज चैनलों की एकतरफा बहसों में अपने प्रवक्ताओं को न भेजने का फैसला कर उन्हें न सिर्फ गैरजिम्मेदार व अविश्वसनीय बल्कि देश के लोकतंत्र के बजाय ‘सरकारी व्यवस्था का चौथा खम्भा’ ठहराने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी, इस पुलिस ने ये गिरफ्तारियां करके हमें यह ‘सिद्ध’ करने का मौका प्रदान किया है कि अभी भी मीडिया के पूरे कुएं में भांग नहीं पड़ी है और सत्ता प्रतिष्ठान की अहर्निश कोशिशों के बावजूद कई पत्रकार न्यूज चैनलों व अखबारों में नहीं तो सोशल मीडिया पर ही सही, इस प्रतिष्ठान की आंखों में आंखें डालकर उसे चुनौती देने और उससे टकराने का माद्दा रखते हैं.


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अच्छी बात है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने इनमें से एक पत्रकार प्रशांत कनौजिया को, जिन्हें योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ट्वीट भर करने के लिए ‘दबोच’ लिया गया था, फौरन जमानत पर छोड़ने के आदेश दिये गये और नागरिकों की स्वतंत्रता को उनका पवित्र मौलिक अधिकार बताते हुए उससे समझौता न किये जा सकने की बात कही है, लेकिन दूसरे पहलू पर जाएं तो इन गिरफ्तारियों ने उन चर्चाओं का रुख मोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई, जिनमें कहा जा रहा था कि अब देश के मीडिया के कम से कम न्यूज चैनलों वाले हिस्से को तो डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी की तलाश कर ही लेनी चाहिए. साफ कहें तो इस बहाने मीडिया के इस हिस्से को अपनी लाज बचाने का बहाना मिल गया है.

लेकिन विडम्बना देखिये कि चर्चाओं का रुख बदल जाने से भी ‘चुल्लू भर पानी की तलाश’ की जरूरत है कि खत्म होने को नहीं आ रही और पत्रकारों की गिरफ्तारियों को योगी का ‘मूर्खतापूर्ण कृत्य’ बताने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक योगी से ज्यादा इस मीडिया को ही आइना दिखा रहे हैं.

पुलिस द्वारा गिरफ्तार पत्रकार तो देर-सवेर देश में उपलब्ध कानूनों व अदालतों की बिना पर छूट ही जाएंगे. उन्होंने वाकई कोई कुसूर किया है तो उसका खामियाजा भुगत कर, अन्यथा बाइज्जत बल्कि ज्यादा प्रतिष्ठित होकर. लेकिन क्या मीडिया का उक्त हिस्सा कभी भी खुद को राहुल के इस ‘आइने’ के सामने, वर्तमान हालात में तंज कहकर भी जिसकी छुट्टी नहीं की जा सकती, खड़ा कर पायेगा कि अगर उन सारे पत्रकारों को जेलों में डाला जाए जो झूठी रिपोर्ट करते हैं या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी द्वारा प्रायोजित अफवाहों पर उनके खिलाफ फर्जी और दुष्प्रचारभरी खबरें चलाते हैं, तो अधिकतर अखबारों या न्यूज चैनलों में पत्रकारों की भारी कमी हो जाएगी?

इस आइने में चेहरा देखने की बात तो छोड़िये, क्या मीडिया के इस हिस्से को इस मुद्दे पर तार्किक परिणति तक ले जाने वाली कोई बहस कराना भी मंजूर होगा? अगर नहीं तो कम से कम इतना समझने की जहमत तो उसे उठानी ही चाहिए कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकार प्रशांत कनौजिया को जमानत पर छोड़ने का आदेश देते हुए भी उनके ट्वीट को सही नहीं माना है, राहुल गांधी ने उनकी गिरफ्तारी को योगी की मूर्खता करार देते हुए मीडिया के बारे में जो टिप्पणी की है, वह उसकी छवि को निखारने या उसमें चार चांद लगाने वाली नहीं, प्रकारांतर से यह बताने वाली ही है कि पाप-पंक में लथ-पथ होने का एक अंजाम यह भी होता ही है.

अकारण नहीं कि उन्होंने योगी की ‘मूर्खता’ का जिक्र करते हुए ‘अपने’ मुख्यमंत्रियों-कर्नाटक के एचडी कुमारस्वामी और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी का नाम तक नहीं लिया है, जो मीडिया के प्रति योगी जैसे ही असहिष्णु रवैये के लिए जाने जाते हैं. उनके राज में भी मुख्यमंत्री के खिलाफ कथित अभद्र टिप्पणियों व मीमों के लिए पत्रकारों-गैरपत्रकारों की गिरफ्तारियां की जा रही हैं.

इस बीच कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी ने कुमारस्वामी को चिढ़ाते हुए कहा है कि राहुल सोचते हैं कि जो लोग आपके मीम बनाते हैं या आपके खिलाफ ब्लाॅग लिखते हैं, उन्हें गिरफ्तार करके आप मूर्खतापूर्ण काम कर रहे हैं, लेकिन वे आपका नाम लेने से डरते हैं. क्या अर्थ है इसका? क्या यही नहीं कि मीडिया जिनके लिए बिछा जाता है और जिन्हें कतई घास नहीं डालता, दोनों में से कोई भी उसका शुभचिंतक नहीं है?

एक कवि के शब्द उधार लेकर कहें तो जैसे ही उसका कोई छोटा हिस्सा भी ऐसे समाज निर्माण के उनके प्रयासों में ‘अड़ंगे’ लगाता है, जिसमें जो कुछ भी चमक रहा है, सब काला है, वे उसका टेंटुआ दबाने लग जाते हैं. यह दबाना उनके लिए अब पहले से कहीं ज्यादा आसान हो गया है क्योंकि जिस बिग मनी अथवा कार्पोरेट पूंजी के सहारे मीडिया का ज्यादातर हिस्सा संचालित हो रहा है, वह भी पत्रकारों के कर्तव्यनिर्वहन की परिस्थितियां ठीक रखने को लेकर गंभीर नहीं है.

यकीनन, यही वक्त है जब मीडिया को इस सवाल का जवाब तलाशने में लग जाना चाहिए कि वह सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के लिए अवांछित होकर रह गया तो क्या होगा? उसके साथ संदेश अभी से दूर तक चला गया लगता है. तभी तो न उत्तर प्रदेश में और न उसके बाहर पत्रकारों की गिरफ्तारियों का सिलसिला रुका है, न ही उनकी प्रताड़ना. उप्र में सबसे ताजा मामले में शामली में जीआरपी ने कर्तव्य-निर्वहन कर रहे एक पत्रकार को न सिर्फ बेरहमी से पीटा बल्कि रातभर लाॅकअप में बन्द रखा और प्रताड़ित किया है.


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याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि गुलामी के दौर में गोरों के राज के अत्याचारों और ज्यादतियों से जुड़े तथ्य जुटाने और भारतीयों के लिए इंसाफ के सवालों को उठाने वालों को इसी तरह प्रताड़नाएं सहनी पड़ती थी. आजादी के बाद संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार मिला, जो किसी भी जनपक्षधर लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी था, तो भी आजादी के 70 साल बाद उसकी हालत इतनी बुरी है कि इसे सिर्फ मीडिया से जोड़ दिया गया है, जबकि यह सामान्य जन के संदर्भ में कहीं ज्यादा जरूरी है और इसके संघर्षों में उनके हित ही सबसे आगे रखे जाने चाहिए.

लेकिन जैसा कि मध्य प्रदेश के दैनिक ‘देशबंधु’ ने लिखा है, हमारे देश में मीडिया और लोकतंत्र के साथ अभिव्यक्ति की आजादी का भी बुरा हाल इसलिए है कि ‘सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने मुनाफे के लिए पत्रकारों को प्यादों की तरह चलाना शुरू कर दिया है और प्यादे वजीर बनने का ख्वाब संजोये एक खाने से दूसरे खाने में लुढ़कते जा रहे हैं. इस खेल में कुछ प्यादे बिसात से बाहर कर दिए जायें, तब भी दूसरे प्यादे सबक नहीं लेते और वे खुद को संचालित करने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं. देख लीजिए, किस तरह कुछ बरसों में देश में मीडिया में दो धड़े बन गए हैं- एक राष्ट्रविरोधी, एक राष्ट्रवादी. मानो पत्रकार का काम निष्पक्ष रहकर खबर देना और विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि सत्ता के लिए, सत्ता के साथ, सत्ता का होकर काम करना है. जब ऐसी स्थिति बनती है, तभी सत्ता के हाथ गलत करते हुए नहीं कांपते.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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