राष्ट्रपति पद की दौड़ में जो कोई भी जीते- डोनाल्ड ट्रंप या जो बाइडेन— सामने आ रहे नतीजों ने यह तो साफ कर दिया है कि अमेरिका आज किसी की भी कल्पना से परे एक विभाजित समाज है. हालांकि, इससे अमेरिकी विदेश नीति पर खासकर इंडो-पैसिफिक और चीन के प्रति कोई बहुत अधिक प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, जो तेजी से निष्क्रिय हो रही है, इससे क्षेत्र की स्थिरता पर जरूर कुछ असर पड़ सकता है, अगर चीन अपने अति-आत्मविश्वास और इस गलत अनुमान कि घरेलू विभाजन अमेरिका को किसी प्रतिक्रिया से रोकेगा, के आधार पर आक्रामक रुख अपनाता है. लेकिन सबसे गंभीर चिंता यह है कि दीर्घकालिक अवधि में विभाजित अमेरिका एक कमजोर राष्ट्र और ज्यादा आत्मकेंद्रित अमेरिका हो सकता है यानी कुछ ऐसा जो भारतीय हितों को चोट पहुंचाने वाला हो.
इससे पहले ऐसा गहरा विभाजन जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन के दौरान दिखा था— इसने अमेरिकी विदेश नीति और भारत दोनों को प्रभावित किया था. हालांकि अंतत: इसका प्रभाव सीमित था क्योंकि उस समय अमेरिका ताकतवर था और इसके असर को आसानी से दरकिनार कर सकता था. उदाहरण के तौर पर आंतरिक विभाजन ने इराक और यहां तक कि अफगान युद्ध के खिलाफ घरेलू मोर्चे पर व्यापक विरोध की अगुआई की और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी ताकत को अमान्य करार देने के प्रयासों को बढ़ावा दिया.
भारत के लिए, यद्यपि प्रशासन अमेरिका के साथ एटमी करार के जरिये आगे बढ़ने में सक्षम था, परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) व्यवस्था को ताक पर रखने को लेकर अमेरिकी एकतरफावाद संबंधी तर्क तानों का हिस्सा बन गए थे, इन तर्कों ने बुश प्रशासन की विदेशी नीति को लेकर घरेलू आलोचना को भी मुखर किया. बाद में इनका इस्तेमाल चीन ने 2008 में एटमी करार और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) से भारत को मिलने वाली छूट पर अपने असफल विरोध के कारणों के तौर पर किया. लेकिन अब विभाजन और गहरा सकता है और सबसे अहम बात यह है कि 2020 में अमेरिका के पास चूक की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि अब उसकी ताकत वैसी नहीं रह गई है जैसी पहले होती थी.
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क्या बाइडेन बहुत कुछ बदल सकते हैं?
अमेरिकी व्यवस्था के मद्देनज़र ये चुनाव परिणाम अमेरिका की विदेश नीति में तत्काल या कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं ला सकते हैं. पहले से अधिक शक्तिशाली चीन और दक्षिण एशिया क्षेत्र में उसके आक्रामक व्यवहार से उपजी चुनौती ने अमेरिका के अगले राष्ट्रपति के सामने विकल्पों को गंभीर रूप से सीमित जरूर कर दिया है. लेकिन बाइडेन यदि चीन का मुकाबला करने और उसे रोकने के लिए थोड़ी चुनौतियों का सामना करने को तैयार हों तो उनका प्रशासन इस काम को काफी अलग तरीके से अंजाम दे पाएगा. एक दृढ़ संकल्पित बाइडेन इंडो-पैसिफिक में गठजोड़ बनाने और बड़ी संभावनाएं जगाने के लिए बेहतर साबित हो सकते हैं.
नकारात्मक पहलू यह है कि बाइडेन संभवतः चीन के साथ एक रीसेट जैसे कुछ प्रयासों के साथ अपनी शुरुआत करना चाहें. यहां तक कि वह चीन से निकटता बढ़ाने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर जलवायु परिवर्तन की पैरोकार लेफ्ट-विंग के बताए रास्ते पर भी चल सकते हैं, जैसी बीजिंग उम्मीद कर रहा है. लेकिन यह सब थोड़े समय में ही विफल हो जाएगा क्योंकि चीन एक तो राष्ट्र के तौर पर अपनी शक्तियों के प्रदर्शन पर आमादा है और जो अन्य देशों को स्वाभाविक और गहरे संदेह की दृष्टि से देखता है, एक साझेदारी के लायक नहीं है. यहां तक कि बाइडेन प्रशासन भी चीन के ऑस्ट्रेलिया जैसे अमेरिकी सहयोगियों पर दबाव डालने, अकेले दम पर क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव और भूमिका घटाने के अधिक प्रत्यक्ष प्रयासों को नजरअंदाज नहीं कर पाएगा.
बहरहाल, समस्या ये है कि वाशिंगटन की तरफ से रीसेट जैसे प्रयास क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगियों का विश्वास डिगा देंगे. यह अलग-थलग छोड़े जाने की आशंकाओं को बढ़ाएगा, जो कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में शामिल कमजोर शक्तियों के लिए किसी भी स्थिति में बहुत गहराई में दबी भावना नहीं होती है. नतीजा यह होगा कि चीन को रोकने के लिए कोई साझेदारी कायम करना और ज्यादा कठिन हो जाएगा. यदि ऐसे किसी गठजोड़ का अगुआ ही कहीं ठिठक जाता है तो कमजोर साथी भी उसी राह पर चल पड़ेंगे.
एक बड़ा अल्पकालिक खतरा बाइडेन के नेतृत्व में बदलती अमेरिकी विदेश नीति से नहीं, बल्कि अति-आत्मविश्वासी बीजिंग से है जो अमेरिका में वैचारिक विभाजन को अपने पड़ोसियों के प्रति और भी अधिक आक्रामक नीतियां अख्तियार करने का लाइसेंस मान बैठा है. लोकतंत्र में नज़र आ रही किसी अव्यवस्था को राजनीतिक असहमति के खुले प्रदर्शन की अनुमति देने वाली वास्तविक ताकत के बजाये अनुशासनहीनता और अनैतिकता के तौर पर देखा जाना बेहद स्वाभाविक है. इसके अलावा इसे सुलझाने की कोशिशों को लोकतंत्र में कमजोरी, जरूरत से ज्यादा दबाव डालने वाले तानाशाही रवैये की निशानी माना जाता है.
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अमेरिका की दीर्घकालिक ताकत और क्षमताओं पर असर
अमेरिका में जो कुछ भी चल रहा है उसने देश की दीर्घकालिक शक्तियों और क्षमता पर भी कुछ सवाल खड़े किए हैं. यद्यपि 2020 का चुनाव अमेरिकी लोकतंत्र की मजबूत ताकत और इसकी संघीय व्यवस्था का परिचायक है, यह अमेरिकी समाज में गहराई से उपजे विभाजन को भी दर्शाता है. किसी भी विरोधी दल के समर्थक निराश ही होंगे चाहे ट्रंप की एकतरफा बड़ी जीत हो या बाइडेन की या फिर इनमें से कोई सामान्य रूप से ही स्पष्ट जीत ही क्यों न हासिल करे. यह उस समाज के लिए मायने रखता है जो किसी एक या दूसरे पाले में खड़ा था. हालांकि, परिणाम चाहे कुछ भी निकले. रिपब्लिकन पार्टी संभवतः ट्रम्प की पार्टी बनी रहेगी लेकिन अमेरिका ‘ट्रंप का देश’ नहीं है. यह कहना कि ‘ट्रम्पिज्म यहां कायम रहेगा’ या इससे भी बदतर कि अमेरिका को ‘ट्रंप अमेरिकियों’ द्वारा परिभाषित किया जाएगा’, सच का केवल एक पहलू है क्योंकि यह देश के उस आधे हिस्से को नजरअंदाज करता है जिसने ट्रंप के खिलाफ मतदान किया है. इस तरह के तर्क एक महत्वपूर्ण निहितार्थ से चूक जाते हैं कि देश मध्य से ही जुड़ा है.
ट्रंप का चुनावी प्रदर्शन काफी शानदार रहा है, खासकर कोरोनावायरस महामारी से निपटने में उनके पूरी तरह विफल रहने को देखते हुए. इसने, और इस तथ्य कि न केवल उनके कुल वोट में इजाफा दिख रहा है, बल्कि अफ्रीकी और हिस्पैनिक-अमेरिकियों से भी उन्हें जोरदार समर्थन मिला है, ने आधे देश के नस्लवादी होने के सुविधाजनक बहाने के बजाये इसके व्यापक विश्लेषण की जरूरत को उजागर किया है. बहुल संभव है कि उनकी अपील अर्थव्यवस्था को संभालने में निहित है: जनमत सर्वेक्षणों में 61 प्रतिशत अमेरिकियों ने कहा था कि वे तीन साल पहले से बेहतर हैं और इस सवाल पर कि अर्थव्यवस्था को कौन बेहतर ढंग से संभाल सकता है, वह लगातार बाइडेन से ज्यादा मजबूत स्थिति में रहे. हालांकि, बाद में रेस में यह मुद्दा पीछे छूट गया.
ट्रंप ने अपने समर्थकों में भी बहुत उत्साह पैदा किया है, जो दर्शाता है कि यह सिर्फ एक ख्याली पुलाव नहीं था- इसके विपरीत, उदाहरण के लिए 1992 का चुनाव जब बिल क्लिंटन ने एक कैंपेन में जॉर्ज डब्ल्यू बुश को हराया था जिसका मूल वाक्य था, ‘यह अर्थव्यवस्था का मुद्दा है नासमझ.’ यह उम्मीदवार को अधिक भावनात्मक ढंग से जोड़ता है जो कि सामाजिक या पहचान के अंतर में संभवत: ज्यादा गहराई से प्रतिबिंबित है.
निश्चित तौर पर यह भी संभव है कि ये अस्थायी मतभेद हैं, जो कड़े मुकाबले वाले चुनाव अभियानों का सामान्य हिस्सा होते हैं. कंजर्वेटिव कॉलमिस्ट नोह रोथमैन जैसे कुछ लोग इस विभाजन के पीछे भी कुछ सकारात्मक पहलू देखते हैं क्योंकि दोनों पक्षों के समूह फिर से एकजुट होने और मध्यमार्गी पैरोकारों के लिए मैदान छोड़ने को मजबूर होंगे. लेकिन समस्या यह है कि यह गहरा सामाजिक विभाजन पाटने में कम ही कारगर है और इसे एक राजनीतिक प्रबंधन की समस्या तक सीमित कर देता है. यह कुछ ऐसा नहीं है जिसका अमेरिका ने पहले कभी सामना नहीं किया है. 2000 में तो मतदाता इतने ज्यादा बंट गए थे कि बुश-गोर का चुनाव फ्लोरिडा में ‘हैंगिंग चाड’ के लिए कुख्यात हो गया था. हालांकि विभाजन बना रहा लेकिन देश ने 2008 और 2012 में बराक ओबामा के पक्ष में स्पष्ट रुख के साथ मतदान किया.
लेकिन अमेरिका के मौजूदा हालात पर अभी किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी क्योंकि यहां दिखाई दे रहा विभाजन उससे कहीं ज्यादा गंभीर हो सकता है जिसे 2000 के दशक में अमेरिकी समाज ने झेला या फिर जैसा वियतनाम युद्ध के दौरान हुआ था.
यदि बात ऐसी ही है तो भारत सहित इंडो-पैसिफिक देशों को इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. इन देशों के लिए जरूरी है कि अमेरिका ताकतवर स्थिति में रहे क्योंकि यही एकमात्र शक्ति है जो चीन को प्रभावी ढंग से संतुलित रखने में सक्षम है. लेकिन गहरी आंतरिक दरार वाला समाज न तो राष्ट्रीय स्तर पर ताकतवर बनने में सक्षम होता है और न ही अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के लिहाज से अच्छा साबित हो सकता है. इसका सीधा-सा मतलब यह है कि यदि सच में अमेरिका के भीतर सामाजिक और राजनीतिक विभाजन गहरा और स्थायी है तो इसके दीर्घकालिक नतीजे अमेरिकी ताकत और देश से बाहर अपनी शक्तियों के इस्तेमाल की अमेरिकी इच्छाशक्ति पर प्रतिकूल असर डालने वाले हो सकते हैं जो उसके सभी सहयोगियों को प्रभावित करने वाले होंगे.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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