सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट के कोलिजियम (चीफ जस्टिस और चार वरिष्ठ जजों का समूह) के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. कोलिजियम ने हाई कोर्ट के 25 जजों की नियुक्ति की सिफारिश केंद्र सरकार के पास भेजी थी.
केंद्र सरकार ने ये सिफारिशें कोलिजियम को वापस भेज दी हैं और लिस्ट पर पुनर्विचार करने के लिए कहा है. जजों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर दर्ज एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज जस्टिस संजय किशन कौल ने इस बात पर नाराजगी जताई कि सिफारिश किए गए जजों के नाम पर केंद्र सरकार लंबे समय तक फैसला नहीं लेती.
उन्होंने कहा कि इससे व्यवस्था बिगड़ती है. कानून मंत्री किरेन रिजिजू भी इस विवाद का चाहे अनचाहे हिस्सा बन चुके हैं. उन्होंने कहा है कि कोलिजियम सिस्टम संविधान के अनुरूप नहीं है.
इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति की संवैधानिक व्यवस्था क्या थी और अब कैसी व्यवस्था लागू है.
साथ ही हम ये भी जानेंगे कि संविधान निर्माताओं ने इस प्रश्न को किस तरह से देखा था और उनकी मंशा क्या थी.
संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया लिखी हुई है: ‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा…’ हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया अनुच्छेद 217 में है. इसमें भी यही कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ जस्टिस और गवर्नर के परामर्श से जजों को नियुक्त करेंगे.
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज इन दो अनुच्छेद के तहत 1993 तक नियुक्त होते रहे. 1993 में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने बहुचर्चित दूसरे जज केस में ये व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 124 और 217 में परामर्श या कंसल्टेशन का मतलब चीफ जस्टिस से सिर्फ चर्चा करना नहीं बल्कि सहमति यानी मंजूरी लेना है. यानी राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति से ही जजों को नियुक्त करेंगे.
इस तरह जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों ने अपने हाथ में ले लिया और राष्ट्रपति को उनके अधिकार से वंचित कर दिया. जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पहले सरकार की ओर से शुरू होती थी.
ये काम अब जज खुद करने लगे हैं. राष्ट्रपति के लिए जजों के कोलिजियम द्वारा की गई सिफारिशों को मानना अनिवार्य कर दिया गया है.
1993 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में चीफ जस्टिस को जजों की नियुक्त में सर्वोच्चता तीन तर्कों के आधार पर दी गई.
1) न्यायपालिका को सरकार से अलग और स्वतंत्र बनाए रखने के लिए जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया एकीकृत, भागीदारी वाली और परामर्श के तहत चलने वाली होनी चाहिए और ये जरूरी है कि इस प्रक्रिया की शुरुआत भारत के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाला कोलिजियम करे.
2) अनुच्छेद 124(2) और 217(1) में चूंकि ‘परामर्श के बाद’ लिखा गया है, इसलिए जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति की सर्वोच्चता नहीं है. इसका मतलब ये भी है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह के तहत चलने वाले राष्ट्रपति, उच्च न्यायपालिका की नियुक्तियों का संचालन नहीं कर सकते.
3) चूंकि जजों को इस बात की बेहतर जानकारी होती है कि किस जज की नियुक्ति की जानी चाहिए इसलिए उनका परामर्श अनिवार्य है और उनकी सलाह को राष्ट्रपति खारिज नहीं कर सकते.
इस फैसले ने जजों की नियुक्ति की संवैधानिक प्रक्रिया में बुनियादी फेरबदल कर दिया.
यह भी पढ़ेंः कौन हैं सुप्रीम कोर्ट-मोदी सरकार के बीच खींचतान में फंसे नए चुनाव आयुक्त अरुण गोयल
संविधान सभा में क्या हुआ था
जिस संवैधानिक व्यवस्था को 9 जजों की पीठ ने बदल दिया, वह संविधान सभा में गहन परामर्श और बहस के बाद अस्तित्व में आई थी.
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज कैसे बनाए जाएंगे, इस पर संविधान सभा में 23 और 24 मई, 1949 को बहस हुई. अनुच्छेद 124 (संविधान के मसौदे में ये 103वां अनुच्छेद था) में बी. पोकर साहिब (मद्रास/मुसलमान, *संविधान सभा की कार्यवाही में ये नाम ऐसे ही दर्ज है) ने दो संशोधन प्रस्ताव रखे. पहला प्रस्ताव था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस करें.
दूसरा प्रस्ताव ये था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति चीफ जस्टिस के सिर्फ परामर्श से नहीं, सहमति से करें.
उन्होंने अपने भाषण में कहा- ‘मुख्य न्यायाधीश को अपनी सिफारिश सीधे राष्ट्रपति को भेजनी चाहिए. (हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के मामले में) राज्यपाल से परामर्श के बाद, राष्ट्रपति को चीफ जस्टिस की सहमति से जजों की नियुक्ति करनी चाहिए. मैं चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति किसी भी तरह से राजनीति से प्रभावित न हो.’
लेकिन जजों की मंजूरी से जज बनाने का सिस्टम लाने की कोशिश वाले इस संशोधन को संविधान सभा ने ध्वनिमत से खारिज कर दिया.
ऐसा ही एक और संशोधन महबूब अली बेग साहिब (मद्रास/मुस्लिम) ने जजों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस को वीटो पावर यानी निर्णायक अधिकार देने के लिए लाया था.
इस संशोधन में ये कहा गया था कि ‘चीफ जस्टिस से हमेशा राय-परामर्श किया जाएगा” को बदलकर “चीफ जस्टिस की सहमति से ही नियुक्ति की जाएगी’ कर दिया जाए.
महबूब अली ने अपने भाषण में कहा कि ‘हमारे प्रस्तावित संविधान में राष्ट्रपति कार्यपालिका के संवैधानिक प्रमुख होंगे… राष्ट्रपति हमेशा मंत्रिपरिषद और प्रधानमंत्री की सलाह से ही काम करेंगे और ये लोग तो राजनीतिक दलों के ही होंगे. इसका मतलब कि राष्ट्रपति का फैसला पार्टी हितों से प्रभावित होगा.’
इस संशोधन को भी संविधान सभा ने 24 मई, 1949 को ध्वनि मत से खारिज कर दिया.
वहीं, संविधान सभा के एक और सदस्य प्रोफेसर के.टी. शाह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसके अलग अस्तित्व पर ज्यादा जोर दे रहे थे.
उन्होंने तो एक नया अनुच्छेद 102-A लाने की वकालत कर दी. इसमें कहा गया कि ‘भारत में न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से पूरी तरह अलग रखा जाएगा.’
ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने के.टी. शाह के लाए संशोधन पर गहरी आपत्ति जताई. ये संशोधन भी संविधान सभा में खारिज हो गया.
न्यायिक नियुक्तियों पर लाए गए इन संशोधनों पर डॉ. आंबेडकर ने 24 मई, 1949 में संविधान सभा में एक महत्वपूर्ण भाषण दिया.
इसमें उन्होंने कहा कि इन संशोधन प्रस्तावों में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जज सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की मंजूरी से ही बनाए जाए.
‘इस बारे में दो राय नहीं है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र और अपने स्तर पर सक्षम होना चाहिए. जहां तक चीफ जस्टिस की मंजूरी से जज नियुक्त करने का मामला है तो मुझे ऐसा लगता है कि इस तर्क को देने वाले लोग चीफ जस्टिस की निष्पक्षता और उनके फैसला लेने की क्षमता पर पूरी तरह भरोसा कर रहे हैं.
मैं निजी तौर पर मानता हूं कि चीफ जस्टिस महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. लेकिन आखिर हैं तो वे आदमी ही. उनमें आम आदमियों की तरह तमाम खामियां, तमाम तरह की भावनाएं और राग-द्वेष हो सकते हैं.
मेरा मानना है कि जजों की नियुक्तियों में चीफ जस्टिस को वीटो यानी निर्णायक अधिकार देने की बात की जा रही है, जो वीटो पावर हम राष्ट्रपति और सरकार को भी नहीं दे रहे हैं. ये एक खतरनाक व्यवस्था होगी.’
संविधान सभा की इन दो दिनों की कार्यवाही को देखने से और प्रारूप समिति के अध्यक्ष आंबेडकर का पक्ष जानने के बाद इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि संविधान सभा जजों की नियुक्ति का निर्णायक अधिकार जजों या चीफ जस्टिस को देने के खिलाफ थी, बल्कि इसे खतरनाक भी माना गया.
अनुच्छेद 124 में परामर्श लेने का मतलब जज की मंजूरी से नियुक्ति करना कतई नहीं है. 1993 में 9 जजों की बेंच ने अनुच्छेद 124 की मनमानी व्याख्या करके दरअसल संविधान सभा का काम अपने हाथ में ले लिया है. ऐसा कोई संशोधन अगर होना भी है, तो ये दायित्व और अधिकार संसद का है, कोर्ट का नहीं.
दरअसल 1993 में 9 जजों की पीठ ने उस संविधान सभा की भावना के खिलाफ काम किया, जिसमें राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. आंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कृपलानी, मावलंकर, पट्टाभि सीतारमैया जैसे दिग्गज थे और जिन्होंने जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति यानी सरकार को ज्यादा अधिकार देना उचित माना.
(नितिन मेश्राम सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट में वकालत करते हैं और संवैधानिक मामलों के जानकार हैं.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः DMK ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा – ‘CAA तमिल नस्ल के खिलाफ है’