इस समय वैश्विक स्तर पर अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी सबसे अधिक चर्चित मुद्दा है. और हो भी क्यों न? रूस, चीन जैसे साम्यवादी देश और पाकिस्तान, ईरान जैसे कट्टर धार्मिक देश से घिरे धर्मांध और मध्य युगीन मानसिकता रखने वाले सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र को अमेरिका जैसे सुपरपावर को खाली करना पड़ा. और यह यूं ही नहीं हो सकता. इसकी वजह से यूरोप अमेरिका, समेत एशिया के देश भी अपने अपने हितों के अनुरूप तालिबान के वापसी पर सतर्कता बरत रहें हैं.
भारत के लिए अफगानिस्तान हमेशा से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है इसलिए भारत में भी तालिबान को लेकर काफी हलचल है. एक ओर जहां यह सीधे भारत के विदेश नीति का मामला है तो वहीं कुछ समूह और वर्ग के लोग अपने राजनैतिक लाभ के लिए इस मुद्दे को सर पर उठाए घूम रहे हैं. इसी क्रम में समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क, प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नोमानी के तालिबान का महिमामंडन करते हुए बयान आए हैं. सारे मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर बयान देने वाले ये लोग मुस्लिम समाज के शासक अशराफ वर्ग से आते हैं जो इस देश के कुल मुस्लिम जनसंख्या का केवल दस प्रतिशत है. ऐसा नहीं है कि इस तरह के बयान बिना सोचे समझे जज्बात में आकर दिए गए हैं. इस तरह के बयानों का सीधा सा मकसद मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना होता है. जिसके फलस्वरूप अशराफ वर्ग की सत्ता और वर्चस्व पर पकड़ मजबूत बनी रहती है. वहीं देशज पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित, पिछड़ा) मुसलमान इसका भुगतान सांप्रदायिक दंगों और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं में अपने रक्त से करता है.
अशराफ मुसलमान कर रहे तालिबान का महिमामंडन
अगर इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विरोध में सबसे मजबूत आवाज आसिम बिहारी के नेतृत्व में देशज पसमांदा मुसलमानों की रही है और वो अंत तक देश के विभाजन के विरोध में बने रहे. अपने इसी गौरवशाली परम्परा का पालन करते हुए देश भर में फैले विभिन्न पसमांदा संगठनों और उसके कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया और यूट्यूब चैनलों के माध्यम से अशराफ वर्ग के लोगों द्वारा तालिबान के महिमा मंडन करने वाले बयानों का कड़े शब्दो में खंडन करते हुए कट्टर धार्मिक, सामंतवादी, पितृ सत्तात्मक और मध्ययुगीन मानसिकता रखने वाले तालिबान का पुरजोर विरोध कर रहे हैं.
अगर तालिबान के सांगठनिक ढांचे पर नजर डाली जाए तो उसकी नस्लीय और जातीय संरचना में पठान (पख्तून) जनजाति के लोग हावी हैं, जो अफगानिस्तान में बसने वाले अन्य जनजातियों (नस्ल) जैसे हाजरा, ताजिक, ऐमक, तुर्कमान, बलोच, नूरिस्तानी, उजबेक आदि को अपने से कमतर समझते हैं और उनके साथ खुलेआम भेदभाव करते हैं, उनके नजदीक अफ़गानिस्तान का मतलब पठानिस्तान है. यही एक बड़ा कारण प्रतीत होता है कि तालिबान को पूरे अफ़गानिस्तान के लोगों का समर्थन हासिल नहीं है और उत्तर अफ़गानिस्तान में जहां पठानों की आबादी कम है तालिबान विरोधी संगठनों से उनका विरोध करना शुरू कर दिया है. स्वयं अफ़गानिस्तान के उपराष्ट्रपति जो पठान नहीं है, उन्होंने अंतिम दम तक तालिबान के सामने झुकने से इंकार कर दिया है.
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देवबंदी विचारधार से प्रभावित है तालिबान
तालिबान के देवबंदी विचारधारा को लेकर भी भ्रम की स्थिति है. कुछ लोग इस मामले में सहारनपुर के टाउन देवबंद में स्थित इस्लामी शिक्षा का केंद्र दारुल उलूम (शिक्षा का घर) को बिल्कुल क्लीन चिट दे रहे हैं तो कुछ लोग देवबंद से उसके संबंध की वकालत करते हुए देखे जा सकते हैं. जहां तक विचारधारा की बात है इसमें किसी को किसी भी तरह का मुगालता नहीं होना चाहिए कि तालिबान कट्टर देवबंदी विचारधारा के ही मानने वाले हैं. इस्लामी शरीयत की विधि के अनुसार इस्लाम की कई एक तरह की व्याख्या है जिसमें देवबंदी विचारधारा (सुन्नी हनफी) भी एक है जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक प्रभावी है कुछ आध्यात्मिक मतभेदों के साथ शासन प्रशासन के मामले में बरेलवी विचारधारा भी देवबंदी विचारधारा से मेल खाती है. भारत में इसकी शुरुआत शाह वलीउल्ला से माना जाता है. सैयद अहमद बरेलवी और शाह वलीउल्ला के पोते शाह इस्माइल के नेतृत्व में राजा रणजीत सिंह के सिख राज्य के विरोध में चला प्रसिद्ध जेहाद जो वहाबी आन्दोलन के रूप में इतिहास की किताबों में पढ़ाया जाता है असल में देवबंदी आंदोलन ही था.
इस जेहाद के पहले चरण में कुछ भूभाग जीतने के बाद सैयद अहमद ने स्वयं को खलीफा घोषित कर अमीरूल मोमिनीन (सारे इस्लामी आस्था वाले लोगों का शासक) की उपाधि धारण की, लेकिन कुछ ही समय बाद बालाकोट के मैदान में सिख सैनिकों द्वारा उनकी इहलीला समाप्ति कर देने के साथ ही इस जेहाद का अंत हो गया. फिर कुछ समय बाद इसी विचारधारा को जीवित रखने के लिए यूपी के जिला सहारनपुर के देवबंद टाउन में एक शिक्षण संस्थान स्थापित किया गया. यह मात्र एक शिक्षण संस्थान नहीं था अपितु मुगलों के पराभव के बाद शासकवर्गीय अशराफ मुसलमानों के सत्ता एवम् अरबी/ईरानी संस्कृति और सभ्यता को बचाने और बनाए रखने की एक तहरीक थी.
तब्लीगी जमात भी निकला है देवबंदी विचारधारा से
इसी देवबंद के शिक्षण संस्थान से एक सामाजिक आंदोलन तब्लीगी जमात के रूप में निकलता है जो धीरे-धीरे भारत ही नहीं अपितु विदेशों में देवबंदी कट्टरपंथ का एक वैश्विक संगठन बनकर फैला. इसी दारुल उलूम देवबंद से एक राजनीतिक आंदोलन जमीयतुल उलेमा हिन्द के नाम से निकला, जिसने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को भारत का राज्य प्रमुख घोषित कर काबुल में प्रथम आजाद भारत की सरकार स्थापित करने की नाकाम कोशिश की. ये संगठन आगे चल कर दो भागों में बंट जाता है और एक भाग पाकिस्तान बनवाने में सरगर्म होता है जिसमें प्रमुख नाम मौलाना शब्बीर उस्मानी, मुफ्ती शफी उस्मानी और मौलाना अशरफ अली थानवी का है और दूसरा धड़ा मौलाना हुसैन अहमद के नेतृत्व में देश के बंटवारे के विरोध में रहा है किन्तु एक अजीब विडंबना है कि आज भी मौजूदा भारतीय देवबंदियों के भी आइकन पाकिस्तान बनवाने वाले देवबंदी उलेमा (जिनके नाम ऊपर दर्ज किए गए हैं) हैं. उनकी लिखी किताबें और तकरीरों के कैसेट्स भारतीय मार्केट में आसानी से मिल जाते हैं.
तालिबान, पाकिस्तान में स्थित इन्हीं देवबंदी मदरसों से निकले हुए पठान जाति के लोग हैं जिनकी विचारधारा पूरी तरह से कट्टर देवबंदी है. अफगानिस्तान में चूंकि खुला अवसर है इसीलिए वहां जेहाद और केताल द्वारा देवबंदी विचारधारा वाली इस्लामी स्टेट बनाने की मुहिम चल रही है, पाकिस्तान में यही काम जम्हूरियत के नाम पर चल रही है वही भारत में जमीयुतुल उलेमा हिन्द, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक्फ बोर्ड आदि के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाकर अशराफ मुसलमान अपनी सत्ता और अरबी/ईरानी संस्कृति और सभ्यता को बचाए और बनाए हुए हैं जिसका वंचित देशज पसमांदा मुसलमानों के सुख दुःख से कुछ लेना देना नही है.
मौजूदा भारतीय दारुल उलूम देवबंद का तालिबान से डायरेक्ट कोई संबंध हो न हो लेकिन वैचारिक और ऐतिहासिक जुड़ाव से इंकार नहीं किया जा सकता है. वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो सऊदी अरब वहाबी कट्टर विचारधारा का राज्य, ईरान शिया कट्टर विचारधारा वाले इस्लामी इंकलाब का राज्य और अफ़ग़ानिस्तान देवबंदी कट्टर विचारधारा का राज्य स्थापित हो चुका है. जिसका आने वाले दिनों में इस पूरे क्षेत्र पर सामरिक और राजनैतिक प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है. भारत को अपने देश के अंदर इन तीनों तरह की कट्टर विचारधारा के पनपने और फलने फूलने पर कड़ाई से नजर रखना देश हित में जान पड़ता है.
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं)
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