आज़ादी के बाद भारत एक लोकतांत्रिक देश बना और निर्वाचन प्रक्रिया इस लोकतंत्र का आधारस्तंभ. एक लम्बे समय तक पुरे देश में (राज्य तथा केंद्र) एक ही दल (कांग्रेस) की सरकारें बनती रहीं थी. इस प्रकार के शक्ति केन्द्र को रजनी कोठारी तथा अन्य राजनीति शास्त्रियों ने कांग्रेस सिस्टम कहा है, जयप्रकाश नारायण और अन्य लोगों ने इसे कुलीनतंत्र कहा था. कांग्रेस सिस्टम के चलते हुए देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस समय तमाम देश के लोकतांत्रिक संस्थाओ को खतरे में डाल दिया था, तथा उनकी सरकार को तानाशाह कहा जाने लगा था. उनके काम करने के तरीकों से इसके तमाम उदहारण मिल जायेंगे. उनके समय तमाम ऐसे व्यक्तिगत निर्णय लिए गए जो लोकतांत्रिक नहीं थे, उनमें से एक 1975 में महत्वपूर्ण निर्णय उनका आपातकाल घोषित करना था, जिसके चलते हुए उन्होंने तमाम विपक्षी नेताओं, राजनीतिक, तथा नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले सक्रीय लोगों को जेलों में डलवा दिया था. उस समय यह कहा जाता था ‘इंदिरा इस इंडिया एंड इंडिया इस इंदिरा’ ठीक उसी तर्ज पर जब फ्रांस के सम्राट लुइ चौदहवें ने कहा था ‘मैं ही राज्य हूं’.
ऐसी शासन प्रणाली में समस्त संवैधानिक नियम निष्क्रिय हो जाते हैं और शासक अधिनायकवादी हो जाते हैं. आपातकाल के बाद 1977 के आम चुनाओं में तमाम दलों के गठबंधन ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने का इतिहास रचा तथा कांग्रेस सिस्टम को ख़त्म करने के साथ-साथ देश के लोकतंत्र को मज़बूत किया और लोकतांत्रिक संस्थाओं की सुरक्षा की. कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व तथा इंदिरा शासन को देखकर, लार्ड ऐक्टन की ये लाईने ‘शक्ति भ्रष्ट करती है परन्तु संपूर्ण शक्ति सम्पूर्णता भ्रष्ट करती है’ कुछ हद तक सही बैठती है. अतः लोकतंत्र को प्रभावी बनाने के लिए एक मज़बूत राजनीतिक विपक्ष के साथ-साथ एक नागरिक समाज तथा नागरिक संस्थाओं का होना ज़रूरी है, जोकि सरकारों को निरंकुश होने से रोकती हैं और कानून और नियमों के अनुसार शासन को सुनिश्चित करती हैं.
1977 के बाद देश के तमाम राज्यों में क्षेत्रिय दलों का तेज़ी से उभार शुरू हो गया. इन दलों ने उन क्षेत्रिय मुद्दों और समस्याओं के आधार पर जनप्रचार कर जनाधार बनाना शुरू कर दिया. इन मुद्दों में जाति, भाषा, पिछड़ापन, क्षेत्र प्रमुख थे. कांग्रेस सिस्टम के दौरान पार्टी और कांग्रेस सरकारों में उत्तर भारतीय तथा सवर्ण जातियों का ही प्रभुत्व था. जिसके फलस्वरूप भाषा के आधार पर तेलगु देशम तथा अन्य दलों का उदय तथा विस्तार दक्षिण राज्यों के अलावा महाराष्ट्र तथा अन्य राज्यों में भी हुआ, जातियों के आधार पर उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी के अलावा अन्य दलों का उदय हुआ तथा विभिन्न आदिवासी/दलित/पिछड़ी जातियों तथा क्षेत्रिय नेताओं का प्रतिनिधित्व विधायी तथा राजनीतिक संस्थाओ में तेज़ी से बढ़ा.
ये क्षेत्रिय दल अपने-अपने राज्यों में एक मज़बूत जनाधार के साथ-साथ सरकारें भी बनाने में सक्षम रहें हैं. क्षेत्रिय दलों की बढ़ती हुई भूमिका को कई विख्यात राजनीति शास्त्रियों ने इसको लोकतांत्रिक मज़बूती के रूप में देखा है.
गठबंधन सरकारों को हमेशा मजबूर और दुर्बल सरकारों के रूप में देखा जाता है. एक पार्टी के बहुमत को मज़बूत सरकार के रूप में देखा जाता है. लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास का विश्लेषण करने से पता चलता है की एक तरफ जहां मज़बूत सरकारों ने लोकतांत्रिक संस्थानों को आघात पहुंचाया तथा देश की आधारभूत समस्याओं के मुद्दों पर विफल रही है, तो वहीं दूसरी तरफ दुर्बल सरकारों के चलते हुए राजनीतिक अस्थिरता भी देखने को मिली है. लेकिन इन दुर्बल सरकारों ने कुछ ऐसे बड़े व कड़े फैसलें लियें हैं जिन्होंने देश की राजनीति व लोकतंत्र को मज़बूत किया है. वी पी सिंह की सरकार में मंडल कमीशन को लागू कर पिछड़ी जातियों का आरक्षण सुनिश्चित करना, नरसिम्हा राव सरकार के दौरान आर्थिक उदारवादी नीतियां लागू कर देश की आर्थिक काया पलट करना, यह दर्शाता है की देश में कुछ आधारभूत परिवर्तन इन्हीं कमजोर सरकारों के द्वारा लाये गए हैं.
1990 का दशक राजनीतिक अस्थिरता के साथ-साथ आधारभूत परिवर्तनों का भी समय रहा है. 1999 से देश की राजनीति में एनडीए और यूपीए सरकारों का दौर शुरू हो गया. 2004 में जिस यूपीए सरकार का गठन हुआ उसमें क्षेत्रिय तथा कम्युनिस्ट पार्टियों की एक अहम भूमिका रही थी. उस दौरान लोक-कल्याण कारी नीतियों के साथ-साथ सरकारों को पारदर्शी बनाने के लिए भी नीतियां बनी जो आज लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया के लिए कुछ हद तक उपयोगी प्रतीत हो रही हैं. शिक्षा के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में जोड़ा जाना, सूचना के अधिकार को लाना, इस सरकार की वह नीतियां हैं जिन्होंने लोक कल्याण के साथ-साथ शासन और प्रशासन पर नियंत्रण रखने का अधिकार भी नागरिकों को प्रदान किया. इनके आलावा मनरेगा, किसानों के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस जैसी नीतियों के चलते भी किसानों व मज़दूरों को राहत मिली थी.
यद्दपि कुछ अपवादों को छोड़कर भ्रष्टाचार स्वतंत्र भारतीय राजनीति का हिस्सा रहा है. परन्तु 2009 के बाद घोटालों का एक क्रमवार सिलसिला देखने को मिलता है. 2009 के आम चुनाओं में कांग्रेस पार्टी ने अकेले ही लगभग बहुमत का आंकड़ा छू लिया था जोकि मात्र 4 सीटों से पीछे था. यह सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार मानी जाती है. अतः यूपीए सेकंड सरकार के भ्रष्टाचार के आरापों के खिलाफ कई देशव्यापी आंदोलन हुए उनमें से अन्ना हजारे का आंदोलन प्रमुख है. इसलिए 2014 के आम चुनाओं में इसका परिणाम कांग्रेस पार्टी अथवा यूपीए को पराजय के रूप में चुकाना पडा.
कांग्रेस पार्टी के खिलाफ जो आक्रोश जनता में था उसका सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला. उस समय नरेन्द्र मोदी की छवि एक विकास पुरुष तथा गुजरात में उनकी सरकार को सुशासन के रूप में प्रस्तुत किया गया तथा गुजरात माडल को पूरे देश में प्रचारित किया गया.
परिणाम स्वरुप 2014 के आम चुनाओं में बीजेपी ने सबसे बेहतर प्रदर्शन कर एनडीए की दूसरी सरकार बनायी जो की अबतक की मजबूत सरकारों में एक है. मोदी के नेतृत्व में गठित एनडीए सरकार अभी तक किये गए वादों को पूरा करने में लगभग असफल रही है. जो नीतियां बनाई गई हैं उनमें से अधिकतम विफल रही हैं, और जो कार्यक्रम लिए गए हैं उनको सफल बनाने से ज़्यादा उनका धन उनके प्रचार पर व्यय किया गया है. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रमों का 56 प्रतिशत से ज्यादा धन इनके मात्र प्रचार पर ख़त्म किया गया हैं.
इसके आलावा इस सरकार में राफेल, व्यापम, माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी जैसे घोटालों का भी खुलासा सामने आया है. बढ़ती बेरोज़गारी, किसानों की समस्या, शिक्षा बजट की कटौती, तथा बुनियादी सुधाओं की सुनिश्चितता के मुद्दों पर भी सरकार विफल रही है. एक तरफ जहां औद्योगिक जगत का विस्तार करने के नाम पर उद्योगपतियों के कर्जे माफ़ किये गए हैं वहीं दूसरी तरफ किसानों को नज़रंदाज़ किया गया है. अंततः यह कहना उचित होगा की इस मज़बूत सरकार में गरीब, मजदूर, और किसान हाशिये पर रहे हैं तथा युवाओं को भी रोज़गार के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. दो करोड़ रोज़गार प्रति वर्ष देने का वादा पूरी तरह विफल रहा है.
नरेन्द्र मोदी की मजबूत सरकार होने से देश की राजनीतिक संस्थाएं कमज़ोर होती हुई नजर आ रही हैं. इसके बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं. मोदी द्वारा व्यक्तिगत रूप से ऐसे फैसले लिए गए हैं जो विभिन्न मंत्रालयों व उनकी स्वायत्तता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करतें हैं. मुद्रा परिवर्तन, राफेल डील आदि ऐसे निर्णय हैं जहां पर मोदी ने वित्त मंत्रालय, तथा रक्षा मंत्रालय की स्वायत्तता की गरिमा को ताख पर रखते हुए अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किया है. संबंधित मंत्रालयों के मंत्रियों की भूमिका नाम मात्र की रहा गयी है. इन मंत्रालयों को छोड़कर रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया, सीबीआई जैसी स्वायत्त संस्थाओं पर भी मोदी सरकार का अतिक्रमण उनके अधिनायकवादी रूप को प्रस्तुत करता है.
उर्जित पटेल का रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर पद से इस्तीफा दिया जाना तथा उनका मोदी सरकार के काम करने के तरीके पर सवालिया निशान खड़ा किया जाना, तथा सीबीआई प्रमुख अलोक वर्मा को किस तरह उनको उनके पद से हटाया गया अथवा वह किस तरह इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हुए ये सब मोदी सरकार के अधिनायकवादी रवैये को सामने लाता है.
इसके अलावा मोदी के व्यक्तित्व को इस तरह से प्रचारित करना तथा उनके महिमामंडन और मीडिया के द्वारा करिश्माई नेत्रित्व का निर्माण किया जाना लोकतंत्र के लिए घातक है. मैक्स वेबर जैसे समाजशास्त्रियों ने इस तरह के नेतृत्व पर आधारित सरकारों को गलत ठहराया हैं, तथा उनके भ्रष्ट होने की शंका जाहिर की है, तथा वैधानिक तर्कसंगतता पर आधारित सत्ता ही सही अर्थों में जनतांत्रिक हो सकती है, न की करिश्माई नेत्रित्व पर आधारित. आज जिस तरह सरकार की कार्यशैली वैधानिक संस्थाओं व मूल्य केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो रही है, यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा मूल्यों के लिए खतरा है. यद्दपि बीजेपी के नेतृत्व में बनी इस एनडीए सरकार में 42 दलों का सहयोग है परन्तु इसकी कार्यप्रणाली को ‘टू मैन आर्मी एंड वन मैन शो’ कहा जाता हैं. बीजेपी दल की आतंरिक लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं.
हाल ही में 19 जनवरी को पश्चिम बंगाल में 15 पार्टियों की विपक्षी रैली में बीजेपी के तीन प्रमुख नेताओं, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुघन सिन्हा का भाग लेना तथा उनका बीजेपी के खिलाफ भाषण देना, दल के अन्दर के विवादों को प्रकट करता है, तथा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के अधिनायकवादी रवैये को दर्शाता है.
यदि हम इंदिरा गांधी से लेकर मोदी सरकार तक की मज़बूत सरकारों का विश्लेषण करें तो यह कह सकते हैं कि इन सरकारों ने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कहीं न कहीं खतरे में डाला है. ये मज़बूत सरकारें जनहित के लिए भी कुछ खास उपयोगी साबित नहीं हो पायीं हैं. कमज़ोर सरकारें यदि समझदारी, समन्वय और सहिष्णुता से काम करें तो सही मायनों में एक लोकतांत्रिक और स्थायी सरकार का निर्माण कर सकती हैं. भारत जैसे विभिन्नता वाले देश में कोई एक पार्टी अथवा एक विचारधारा सम्पूर्ण जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नही कर सकती. अर्थात वह तमाम दल जो विभिन्न समूह, वर्ग व उनकी समस्याओं का प्रतिनिधित्व करतें हैं, सरकार में उनकी साझेदारी महत्वपूर्ण है. विभिन्न भाषाई समूहों का, आदिवासियों की समस्यों का और दलित तथा पिछड़े जो समाज व राजनीति के हाशिये पर खड़े हैं, उनका प्रतिनिधित्व करने वाले दलों की सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए. एक तरफ जहां ये दल विभिन्न समुदायों, समूहों और वर्गों का देश की राजनितिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हैं, वहीं दूसरी तरफ उनकी समस्याओं के समाधान तथा उनके कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जो इन भिन्न वर्गों व समुदायों को समाज की मुख्य धारा में लाने का काम करती है.
इस वर्ष होने वाले आम चुनावों में इन क्षेत्रिय दलों का महत्वपूर्ण योगदान रहेगा. जिस तरह लगभग सभी विपक्षी दल एकत्र होकर एक साथ आ रहे हैं और एक महागठबंधन लगभग तय है, उसमे निश्चितता कांग्रेस पार्टी का अहम रोल रहेगा, परन्तु कांग्रेस पिछली यूपीए सरकार की अपेक्षा कम मज़बूत रहेगी. महा-गठबंधन में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व राजनीति के पुराने प्रतिमानों पर ही लेके जा सकता है. अतः देश की राजनीति के प्रतिमानों में बदलाव तथा एक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया के लिए क्षेत्रिय दलों की अहम व नयी भूमिका होनी चाहिए, जो की संभव है. इन दलों को व्यक्तिगत राजनितिक स्वार्थों को दरकिनार कर आपस में सामंजस्य व समन्वय के साथ देश व समाज की आधारभूत समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सरकार का संचालन करना चाहिए. इस तरह बनी हुई महागठबंधन की सरकार एक मज़बूत, प्रभावकारी तथा लोककल्याणकारी सरकार साबित हो सकती है. तथा सही मायनों में एक जनतांत्रिक सरकार का निर्माण कर सकता है.
(विनोद कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वेस्ट एशियन स्टडीज के पीएचडी स्कॉलर हैं.)