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Tuesday, 19 November, 2024
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अल्लामा इक़बाल, उनकी टू नेशन थ्योरी और नज़्म में देश विरोधी विचार

इक़बाल आधुनिक विचारों,लोकतंत्र, शिक्षा और संस्कृति के विरोधी थे. वो अलग बात है कि खुद के बेटे को विदेश भेजकर आधुनिक शिक्षा दिलवाई.

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यह सभी को मालूम होगा कि अल्लामा इक़बाल पाकिस्तान के वैचारिक संस्थापक माने जाते हैं उन्हें पाकिस्तान के राष्ट्र कवि का भी दर्जा मिला हुआ है. वहीं, भारत में भी ज्यादातर अशराफ द्वारा उन्हें राष्ट्रवादी, देश भक्त, गंगा जमुनी तहज़ीब का वाहक, उनके जन्मदिन को उर्दू दिवस के रूप में मनाने आदि द्वारा महिमा मण्डन कर नायक स्थापित करने का प्रयास करते रहें हैं. देश के लिए पाकिस्तान का संस्थापक भारत का हीरो कैसे हो सकता है? इस लेख में इकबाल के विचारो की समीक्षा करने की कोशिश की गई है ताकि हमें नायक और खलनायक का भेद स्पष्ट हो सके.

द्विराष्ट्र के सिद्धांत के प्रतिपादक

अल्लामा इकबाल ने टू नेशन थ्योरी और पाकिस्तान तहरीक के विचार उस समय पेश किए जब बड़े से बड़े अशराफ लीडर के अंदर यह साहस नहीं था कि वो भारत के विभाजन के विचार को सार्वजनिक जाहिर करें. 29 दिसंबर 1930 में प्रयागराज (इलाहाबाद) में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय भाषण से स्पष्ट है जिसमें मुस्लिम राष्ट्र की रूपरेखा रखते हुए उन्होने कहा था कि ‘मैं पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमावर्ती प्रांत, सिन्ध और बलूचिस्तान को सम्मिलित रूप से एक राज्य देखना चाहूंगा.’

ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत एक स्वायत्त राज्य या ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र एक संगठित उत्तर-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राज्य का गठन मुझे कम से कम उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों की अंतिम नियति प्रतीत होती है.

वो इतने कट्टर मुस्लिम लीगी और कांग्रेस विरोधी थे कि मौलाना थानवी की तरह उनकी भी यही राय थी कि कांग्रेस में मुसलमानों का बिना शर्त शामिल होना इस्लाम और मुसलमानों दोनों के लिए हानिकारक है.

उनका मानना था कि कांग्रेसी विचारधारा के उलेमा (मौलानाओं) हिन्दुओं का साथ देकर बड़ी ग़लती कर रहें हैं. वो ये नहीं समझतें कि अगर क़ौम ने उनका साथ दिया तो इसका नतीजा बहुत ही जानलेवा होगा.

अपने एक प्रसिद्ध कविता ‘वतनियत‘ में देश के बटवारे से होने वाले स्थानांतरण को इस्लाम के प्रवर्तक के मक्का से मदीना स्थानांतरण से जोड़ कर महिमा मंडन करते हुए लिखते हैं.

है तर्के वतन सुन्नते महबूबे इलाही

दे तू भी नबूवत की सदाकत पे गवाही

अर्थात अपने देश को छोड़ना ईश्वर के प्रिय (मुहम्मद) का आचरण है, तू भी इस प्रोफेटहुड की सच्चाई की गवाही दे यानी उनकी तरह अपना देश छोड़ कर निकल जाने को तैयार रह.


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राष्ट्र विरोधी विचार

इकबाल की शुरूआती कविताओं में ज़रूर देश प्रेम झलकता है लेकिन बाद के अपनी कविताओं में वो साफतौर पर राष्ट्र के स्वरूप को ही नकारते हुए वैश्विक इस्लामी राज्य का समर्थन करते हैं.

“इन ताज़ा खुदाओं में, बड़ा सबसे वतन है

जो पैरहन(परिधान) उसका है, वो मज़हब का कफ़न है”

“बाजू तेरा तौहीद की कुव्वत से कवी है

इस्लाम तेरा देश है तू मुस्तफवी है”

“नज़्ज़ारा-ए- देरिना ज़माने को दिखा दें

ऐ मुस्तफवी खाक में इस बुत को मिला दें”

 

अर्थात तेरे हाथ एकेश्वरवाद की शक्ति की वजह से शक्तिशाली है. इस्लाम तेरा देश है क्योंकि तू मुस्तफा (मुहम्मद का एक अन्य नाम) का अनुयायी है. यह पुराना अनुभवी दर्शन तू दुनिया को दिखा दें ऐ मुहम्मद के अनुयायी इस मूर्ति (राष्ट्र) को मिट्टी में मिला दें.

चीन-व-अरब हमारा, हिन्दुस्तां हमारा

मुस्लिम हैं हम वतन हैं, सारा जहां हमारा

इन पंक्तियों में इकबाल स्पष्ट रूप से भारतीय देशभक्ति को गौण बताते हुए पूरी दुनिया को मुसलमानों का देश बता रहे हैं.

लोकतंत्र विरोधी विचार

जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें

बंदों  को  गिना  करते  हैं  तौला  नहीं  करते

लोकतंत्र में हर व्यक्ति का वोट उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के निरपेक्ष बराबर होता है. इकबाल को इस बात से बहुत परेशानी थी और वो लोकतंत्र के इस स्वरूप का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि ये कैसा सिस्टम है कि इसमें लोगो की प्रतिष्ठा की उपेक्षा किया जा रहा है.

इलेक्शन मेम्बरी कौंसिल सदारत

बनाये हैं खूब आज़ादी ने फन्दे

मियां नज्जार भी छीले गए साथ

निहायत तेज है यूरोप के रन्दें

इन पंक्तियों में लोकतंत्र के विभिन्न घटकों को फांसी के फंदे से तुलना करते हुए यह बताने की कोशिश की है कि लोकतांत्रिक आजादी एक तरह से समाज की मौत की तरह है.

तथाकथित कामगर जाति नज्जार(बढ़ई) को सिग्नीफायर के रूप में प्रयोग करते हुए वंचित समाज की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि यूरोप के आधुनिक विचार लोकतंत्र, स्वतंत्रता,शिक्षा आदि रूपी रन्दे से ये लोग भी छील दिए गए हैं मतलब इनका भी बहुत नुकसान हुआ है या होने वाला है जबकि सच्चाई यह है कि इन आधुनिक विचारों का सबसे अधिक लाभ वंचित समाज को ही हुआ है.


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जातिवादी विचार

इकबाल के बेटे जावेद इकबाल जो सुप्रीम कोर्ट पाकिस्तान के न्यायधीश रह चुके हैं अपने पिता की जीवनी ‘जिन्दा रूद’ के पेज नंबर 21 पर लिखते हैं कि उनके पिता कश्मीरी ब्राह्मणों के एक प्राचीन परिवार से थे, जिनका गोत्र सप्रू है.

इकबाल खुद के ब्राह्मण होने का महिमा मण्डन करते हुए लिखते हैं

मैं असल का ख़ास सोमनाती
आबा मेरे लाती व मानाती
तू सैयद-ए-हाशिमी की औलाद

मेरे कफ-ए-खाक ब्राह्मनज़ाद

इकबाल ने यह कविता किसी सैय्यद पुत्र को लिखी थी. इन पंक्तियों में इकबाल अपने पूर्वजों का गर्व के साथ वर्णन करते हुए कहते हैं मैं उनकी औलाद में से हूं जो सोमनाथ के साथ साथ अरबी देवी देवता ला और मना के पुजारी थे. अगर तुम हाशमी सैय्यद की औलाद में से हो तो मैं भी कोई कम थोड़े ना हूं मैं भी ब्राह्मण पुत्र हूं.

एक फारसी शे’र में भी खुद के ब्राह्मण होने का प्रमाण देते हुए गर्व का बोध दर्शाया है.

मेरा बीनी कि दर हिन्दोस्तां दीगर नमी बीनी

बरहमन ज़ादये रम्ज़ आशना-ए-रूम व तबरेज़ अस्त

(मुझे देखो कि भारत में मुझ जैसा दूसरा नहीं देखोगे

मैं ब्राह्मणपुत्र मौलाना रूमी और शम्स तब्रेज़ के रहस्य से परिचित हूं)

यूं तो सैयद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़ग़ान भी हो
तुम  सभी कुछ  हो,  बताओ  मुसलमान भी हो

यहां इक़बाल ने सिर्फ अशराफ जातियों का ही ज़िक्र किया है और उन्हीं के बीच एकता की बात कही गई है. ऐसा प्रतीत होता है कि सर सैय्यद की तरह वो भी भारतीय मूल के मुसलमानों को मुसलमान नहीं समझते थे वरना क्या दिक्कत थी कि एक दो भारतीय जातियों का भी जिक्र करते.

आधुनिकता विरोधी विचार

बांग-ए-दारा किताब में पेज नंबर 250 पर वो लिखते हैं

उठा के फेक दो बाहर गली में

नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दें

इन पंक्तियों से साफ जाहिर होता है कि इकबाल आधुनिक विचारों और लोकतंत्र, शिक्षा और संस्कृति के विरोधी थे. वो अलग बात है कि खुद के बेटे को विदेश भेजकर आधुनिक शिक्षा दिलवाई.

महिला विरोधी विचार

निम्लिखित पंक्तियों से इकबाल के महिला विरोधी विचार साफतौर पर जाहिर होते हैं

न पर्दा, ना तालीम (शिक्षा) नई हो कि पुरानी

निस्वानियते ज़न का निगहबा है फकत मर्द

(महिला के स्त्रीत्व का संरक्षक सिर्फ पुरुष है)

जिस कौम ने इस जिन्दा हकीकत को ना माना

उस कौम का खुर्शीद(सूरज) बहुत जल्द हुआ जर्द*

(*पीला पड़ जाना, पतन हो जाना)

जिस इल्म (शिक्षा) की तासीर (प्रभाव) से ज़न (स्त्री) होती है बेज़न(स्त्रीत्व खो देना)

कहते हैं इसी इल्म को अरबाबे नजर (विचारक) मौत

लड़कियां पढ़ रहीं हैं अंग्रेज़ी

ढूंढ ली कौम ने फलाह (भलाई) की राह

रवीश मगरबी (पश्चिमी संस्कृति) है मद्दे(सामने) नज़र

वज़-ए- मशरिक(पूरबी संस्कृति) को जानते हैं गुनाह

यह ड्रामा दिखाएगा क्या सीन

पर्दा उठने को मुंतजिर (इंतिज़ार करने वाला) है निगाह

ऊपर लिखे विवरण से अल्लामा इकबाल के द्विराष्ट्र सिद्धांत के विचारक, अलोकतांत्रिक, राष्ट्र विरोधी, आधुनिकता विरोधी, जातिवादी और महिला विरोधी विचार जिसे एक शब्द में कहें तो अशराफवादी विचार की पुष्टि होती हैं.

(यह लेख अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

फैयाज़ अहमद फैज़ी अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं


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