इतिहास पीढ़ियों को विशेष ताकत से लैस करता है, मिसालों की ताकत से. वह हमें उन लोगों पर नज़र डालने में मदद करता है जिन्होंने अकल्पनीय स्थितियों से जूझकर अपने ऊपर फेंके गए पत्थरों को मील के पत्थरों में बदला. इस संदर्भ में, भारत ने विविधता, समानता और समावेश के लिए जो योगदान दिया है उसे जनजातीय समुदायों के जीवन और मूल्यों को जाने बिना समझा नहीं जा सकता.
पिछले साल भारत सरकार ने फैसला किया कि जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के जन्मदिवस 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा. यह एक सही कदम है और मुझे उम्मीद है कि यह निरंतरता बनी रहेगी.
इस संदर्भ में निचले वर्गों खासकर आदिवासियों के इतिहास का अध्ययन महत्वपूर्ण होगा. मुख्यधारा के विमर्श में प्रायः उपेक्षित जनजातीय समूहों ने विभिन्न समाजों की मार झेली है, फिर भी वे प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर जीवन जीते रहे हैं. किसी भी क्षेत्र में उनकी महान उपलब्धियां सचमुच सराहनीय रही हैं, चाहे यह 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में अपने अधिकारों पर ज़ोर देना रहा हो या भारत की संस्कृति, कला, डिजाइन, समकालीन सेना, पर्यावरण और भाषा का क्षेत्र क्यों न हो.
भारत वह देश है जिसकी सभ्यता 5,000 वर्ष से भी पुरानी है. शोधकर्ताओं/लेखकों के मुताबिक, भारत के मूल ग्रंथ ऋग्वेद में भी जनजातीय लोगों का उल्लेख पाया जा सकता है, जिसमें उन्हें ‘दास’ या आदिम जातियां कहा गया है. कुछ विवरण ऐसे हैं जो बताते हैं कि वे कितने प्रगतिशील थे.
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भारत के प्राचीन ग्रंथों में आदिवासी
भारत के ऐतिहासिक मूल्यों को परिभाषित करने वाले दो ग्रंथ हैं— महाभारत और रामायण. इनमें आदिवासी समुदाय के ऐतिहासिक पात्र अपनी भूमिका, प्रभाव और व्यक्तित्व के कारण विशिष्ट रूप में उभरते हैं. रामायण में वाल्मीकि आदिवासी लोगों की मौजूदगी का उल्लेख करते हैं. उसके बाद राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, आदि के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन सबरी, गुहा जैसे आदिवासी पात्रों और एक जनजातीय देवता के रूप में हनुमान के महत्व के बारे में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है.
प्रोफेसर रामदास लैंब ने अपनी किताब ‘रैप्ट इन द नेम : रामनामीज, रामनाम, ऐंड अनटचेबल रेलीजन इन सेंट्रल इंडिया’ में लिखा है, ‘गोण्डों में अपनी बाह पर हनुमान की तस्वीर गुदवाने की एक परंपरा है. उनका मानना है कि इससे उन्हें काफी शक्ति मिलती है.’
गुहा निषाद राजा थे, जिन्होंने राम, लक्ष्मण और सीता को गंगा पार काराने के लिए नावों और मल्लाहों की व्यवस्था की थी. लेखक ए.के. चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘ट्राइबल्स इन इंडियन इंग्लिश नोवेल’ में लिखा है, ‘गुहा यानी निशादराज गंगा के किनारे रहने वाले जनजातीय लोगों के मुखिया थे. वे काफी ताकत और असर वाले नेता थे और वे राम का स्वागत करने वाले पहले व्यक्ति थे. राम का गर्मजोशी से स्वागत करने के बाद गुहा उन्हें उत्तम किस्म का भात और कई मिठाइयां परोसते हैं. इसके बाद वे राम के आगे दंडवत लेट जाते हैं और राम उन्हें उठाकर गले लगा लेते हैं.’
रामायण की दूसरी लोकप्रिय पात्र है सबरी, मुनि मतंगा की देखभाल करने वाली. वह अरण्यकांड में सामने आती हैं, जो कि वाल्मीकि के महाकाव्य का तीसरा खंड है. तमिल कवि की ‘रामावतारम’ में भी सबरी के द्वारा राम-लक्ष्मण के स्वागत का उल्लेख है.
महाभारत में जनजातीय पात्र का उदाहरण है एकलव्य. निषाद राजकुमार एकलव्य अपनी मेहनत से बना धनुषधारी है, जो कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा से प्रेरणा लेकर अभ्यास करता है. द्रोणाचार्य उससे गुरु दक्षिणा के रूप में उससे उसका दाहिना अंगूठा मांग लेते हैं, इसके बावजूद वह उन्हें पूरा सम्मान देता है.
ऐसे उदाहरणों से इन आदिवासियों की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा उजागर होती है. वे कितने सुसंगठित, हुनरमंद, साहसी, और उन लक्ष्यों के प्रति कितने समर्पित थे, जिनमें वे विश्वास रखते थे.
आदिवासियों का वर्गीकरण
मीना राधाकृष्ण द्वारा संपादित ‘फर्स्ट सिटीजन्स : स्टडीज़ ऑन आदिवसीज, ट्राइबल्स ऐंड इंडिजेनस पीपुल्स इन इंडिया’, 1881 की जनगणना, जिलों के हैंडबुक्स, गज़ट और इतिहास के दूसरे रेकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी में जातियों और जनजातीयों का वर्गीकरण और श्रेणीकरण की धुन अंग्रेजों पर सवार थी. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार भारत में 700 से ज्यादा अनुसूचित जनजातियां हैं. 2011 की जनगणना बताती है कि देश की कुल आबादी में आदिवासियों की आबादी 10.4 करोड़ यानी 8.6 फीसदी है.
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार जनजाति को ‘भाषा, धर्म और रीति-रिवाज से बंधा और एक या अधिक मुखियों के अधीन एक नस्लीय समूह’ के रूप में परिभाषित किया गया है. ‘फर्स्ट सिटीजन्स : स्टडीज़ ऑन आदिवसीज, ट्राइबल्स एंड इंडिजेनस पीपुल्स इन इंडिया’ के मुताबिक, अंग्रेजों ने ‘जनजाति; ‘मूल जनजाति’, ‘जंगली जनजाति’, ‘घुमंतू जनजाति’, और ‘अपराधी जनजाति’ जैसे वर्गीकर्ण किए, जबकि ‘अनुसूचित जनजातियां’, ‘मूल कमजोर जनजातीय समूह’, ‘अधिसूचित जनजातियां’ जैसे वर्ग भारत में आज़ादी के बाद बनाए गए.
जैसा कि लेखक ए.के. चतुर्वेदी कहते हैं, आज के समय में उन्हें ये लोकप्रिय नाम दिया गए— ‘वन्यजाति,’ ‘वनवासी’, ‘पहाड़ी’, ‘आदिम जाति’, ‘आदिवासी’, ‘जनजाति’, और ‘अनुसूचित जनजाति’. इन नामों में से आदिवासी ही ज्यादा प्रचलित है और इन सबके लिए एक संवैधानिक नाम है- अनुसूचित जनजाति.
राजनीतिक स्वायत्तता के आंदोलनों, किसानों या वन समुदायों के आंदोलनों और लिपि व भाषा के आधार पर सांस्कृतिक आंदोलनों को भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) ने ‘जनजातीय साहित्य को समझने के साधन’ के रूप में परिभाषित किया है.
भारतीय इतिहास उन जनजातीय नायकों के उदाहरणों से भरा है जिन्होंने समाज पर अपना प्रभाव डाला और संकल्प, साहस, बहादुरी और ज्ञान के उदाहरणों के रूप में उभरे और इस तरह एक खूबसूरत संस्कृति के प्रतीक बने. इसके अलावा, हमें यह भी पता होना चाहिए कि इन गुमनाम नायकों के बड़े योगदान के कारण ही आज हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं.
आज जनजातियों के योगदान को मान्यता
आज, भारत जनजातियों को प्रतिनिधित्व देकर महत्वपूर्ण कदम उठा रहा है. आज भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू एक आदिवासी हैं. कर्नाटक में शांताराम सिद्दी, जो अफ्रीकी मूल के सिद्दी समुदाय के हैं, भारत के प्रथम सिद्दी विधायक हैं. जब मैंने शांताराम से आदिवासियों के सशक्तीकरण के लिए अगले पांच साल की उनकी योजना के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि सकारात्मक कदम काफी जरूरी है. इसके साथ ही, उन्होंने खासकर समाज के खुशहाल तबकों को आदिवासियों के प्रति संवेदनशील बनाने की बात की. आदिवासियों के बारे में समझ गैर-आदिवासियों के लिए जरूरी है.
इसी तरह, केरल के इरुला समुदाय की लोकप्रिय गायिका नंजीयम्मा को कौन भूल सकता है, जिनका गाना ‘अय्यप्पणम कोशियम…’ वाइरल हो गया? इतना कि केरल पुलिस ने कोविड महामारी के दौरान जागरूकता बढ़ाने के लिए इस गाने का उपयोग किया. नंजीयम्मा को हाल में घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का पुरस्कार दिया गया.
2013 में, मैं दाहोद (गुजरात) में शानदार ढंग से आयोजित पशु चिकित्सा शिविर में गया था. मैंने पाया कि आदिवासी लोग उसे संचालित कर रहे थे, हालांकि यह राज्य सरकार का आयोजन था. तमिलनाडु में, नारिकुरावा समुदाय अपने भाई-बहनों को शिक्षित करने में शानदार काम कर रहा है.
संथालों को ताकत देने के आदिवासी लेखक और शिक्षक रघुनाथ मुर्मू के प्रयास और गांधीजी की शिष्या राजमोहिनी देवी के प्रयासों का भी विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए. उनकी कथाओं को पाठ्यपुस्तकों में और मुख्यधारा के मीडिया में शामिल किया जाना चाहिए.
मानवीय कथाओं को सामने लाएं
भारत जबकि 2022 में अपनी आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, और जबकि भारत के देसी समुदायों की खूबसूरती को समझने की चाहत बढ़ रही है तब यह जरूरी हो जाता है कि आदिवासियों की पहचान करके न केवल मुख्यधारा में शामिल किया जाए बल्कि ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ में भी समाहित किया जाए.
आदिवासी समुदायों और उनकी हस्तियों का अध्ययन करके हम न केवल उन असंख्य कहानियों को सामने ला सकेंगे जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समुदाय और देश के विकास के लिए धारा के विरुद्ध की गई जद्दोजहद व अपने अधिकारों के लिए किए गए संघर्ष के प्रतीक हैं.
आवाज़ दोनों तरफ से उठनी चाहिए— आदिवासियों और गैर-आदिवासियों की तरफ से भी, जिन्हें आदिवासियों की चुनौतियों और संघर्षों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए.
आख्यान गढ़ना या उसकी रचना करने के लिए वस्तुनिष्ठ होना जरूरी नही है. तथ्यों को यथा तथ्य रखा जाए. इतिहास इसी महत्वपूर्ण खंभे पर टिका होता है. यह दिखाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए कि आदिवासी समुदाय पर कोई साहित्य नहीं रचा गया है. कोशिश मानवीय कथाओं के एक वैश्विक संकलन को मजबूत और प्रस्तुत करने की कोशिश की जानी चाहिए.
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(सुदर्शन रामबद्रन एक लेखक और शोधकर्ता हैं. वह @sudarshanr108 हैंडल से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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