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Monday, 9 December, 2024
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अजमेर शरीफ पर दावे को ऐतिहासिक भूल सुधारना नहीं, भारत के इतिहास पर हमला ही कहा जाएगा

धुर दक्षिणपंथ आधुनिक काल से पहले जो भी मुस्लिम शासक, गुरु-शिक्षक, भक्त-श्रद्धालु भारत आए उनका कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है, भले ही आधुनिक काल से पहले के हिंदुओं ने उन्हें स्वीकार किया हो और यहां तक कि उन्हें पूजा हो.

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धुर दक्षिणपंथियों की याचिकाओं के जवाब में एक सिविल अदालत ने आदेश जारी किया है कि अजमेर की दरगाह शरीफ की, जहां तमाम धर्मों के लोग लाखों की संख्या में आते हैं, जांच की जाए कि उसके नीचे कथित रूप से कोई मंदिर था या नहीं.

अब जबकि अजमेर में बसे मुसलमान स्वयंभू दक्षिणपंथी पहरुओं के साथ-साथ हथियारबंद पुलिस और मीडिया सर्कस के वहां आ धमकने का इंतज़ार कर रहे हैं, शेष बचे हम लोग एक बार फिर इस बहस में व्यस्त हो जाएंगे कि मध्ययुग में मुगल बादशाहों ने मंदिरों को क्यों नष्ट किया, उनके समय के लोग इस बारे में क्या सोचते थे और आज हम किस हाल में पहुंच गए हैं?

इस लेख में आगे हम यह देखेंगे कि अजमेर शरीफ को लेकर जो यह नई मुहिम शुरू हुई है वह भारत के मुसलमानों के इतिहास का ही खंडन नहीं करती बल्कि भारत के पूरे इतिहास पर ही हमला करती है.

अस्थिरता और प्रोपेगेंडा

भारत की तमाम मस्जिदों की खुदाई के औचित्य के पक्ष में एक मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि उनका निर्माण हिंदू धर्म पर इस्लाम की फतह का ऐलान करने के लिए किया गया. इसलिए, 20वीं सदी के शुरू से ही हिंदू कुलीन वर्ग ने बहुसंख्यकों को भावनात्मक रूप से एकजुट करने के लिए विभिन्न सल्तनतों द्वारा अपनी जीत के ऐलान की खातिर बनाई गईं ‘फतही मस्जिदों’ के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया था.

लेकिन सबूतों का ठंडे दिमाग से आकलन यही बताता है कि यह दावा अतिवादी ही है कि 12वीं सदी में भारत पर धावा बोलने वाले कुछ हज़ार तुर्क मुसलमान इतने सक्षम थे कि पूरे उत्तर भारत में अपनी एक नीति लागू कर सकते थे, चाहे उनमें मजहबी जुनून कितना गहरा क्यों न रहा हो. आखिर, उत्तर भारत उस समय पूरे यूरेशिया में सबसे शहरी, घनी आबादी वाला और आर्थिक रूप से सबसे उत्पादक क्षेत्रों में शुमार था.

वैसे, सल्तनतों के प्रारंभिक स्रोतों ने नष्ट किए गए मंदिरों, धर्म परिवर्तन करवाए गए तथा गुलाम बनाए गए काफिरों आदि की भयावह संख्या बताई है. इसने बाद में स्थापित हुए ब्रिटिश राज और हिंदुत्ववादियों को काफी मसाला उपलब्ध कराया, लेकिन सवाल यह है कि सल्तनत के स्रोतों ने वास्तव में किसके लिए ब्योरे लिखे.

पाकिस्तानी इतिहासकार फौजिया फारूक अहमद ने अपनी किताब ‘मुस्लिम रूल इन मेडाइवल इंडिया : पावर ऐंड रिलीज़न इन द देल्ही सल्तनत’ में बिलकुल अलग संशोधन प्रस्तुत किया है. पाठ्यपुस्तकों से हम जानते हैं कि दिल्ली सल्तनत ने बड़ी आसानी से बागडोर हासिल कर ली थी, लेकिन इस पाठ में उसकी अति अस्थिरता को ओझल कर दिया गया है. उसके पाठ समकालीन मुस्लिम प्रतिद्वंद्वियों पर धौंस जमाने के मकसद से तैयार किए गए, न कि तब के या भविष्य के हिंदुओं को प्रभावित करने के लिए.

जैसा कि अहमद ने लिखा है, स्थानीय लोककथाएं यही संकेत देती हैं कि दिल्ली सल्तनत को अपनी विस्तारवादी मुहिमों में मिले-जुले नतीजे ही हासिल हुए. पुरातत्व यही दर्शाता है कि तमाम सुल्तान विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिमाओं को ‘उखाड़ने’ के बढ़-चढ़कर किया करते थे. इतिहासकार पीटर जैक्सन ने भी अपनी किताब ‘द देल्ही सल्तनत : अ पॉलिटिकल ऐंड मिलिटरी हिस्टरी’ में यही कहा है कि हिंदू धर्म से जुड़ीं या उससे अलग स्थानीय ताक़तें (मसलन मेव जमात) दिल्ली से चले फौजी काफिलों को परेशान किया करती थीं.


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अजमेर में विध्वंस

मध्य युगीन मुस्लिम स्रोतों ने जो कट्टरपंथी रुख अपनाया उसे समझने के लिए हम उस सुल्तान कुतुबुद्दीन अयबेग/ ऐबक (1150-1210 ई.) का उदाहरण लें जिसने अजमेर में ‘फतही मस्जिद’ बनवाई थी, हालांकि, आज उसे कुतुब मीनार के लिए ज्यादा जाना जाता है. बशर्ते, उसने उसका आधार ही तैयार करवाया था. अयबेग केवल चार साल गद्दी पर रहा. इतिहासकर अहमद का कहना है कि अयबेग को तो कोई याद भी नहीं करता अगर उसके गुलाम इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को मजबूत न बनाया होता और उसके नाम को दरबार के दस्तावेज़ में जगह न दिलवाई होती.

जितने थोड़े से समय के लिए वह गद्दीनशीन रहा, पूरे समय मुस्लिम सिपहसालारों से लड़ता ही रहा. इन तुर्क पार्वणुओं ने यही पाया कि वे काफिरों पर फौजी फतह के बड़बोले दावे करके अपनी साख जल्दी जमा सकते हैं. जब हम प्रोपगेंडा की तुलना पुरातत्व से करते हैं तब पता चलता है कि सुलतानों के दावे हकीकत से बहुत दूर हैं और वे इराक में खिलाफत के पतन के साथ उभरे नये दौर में खुद को पक्के मुस्लिम हुक्मरान के रूप में पेश करना चाहते थे.

बदकिस्मती से, तुर्क योद्धाओं ने आपसी होड़ में अपनी भारतीय प्रजा से जबरन वसूली करने में कोई परहेज़ नहीं किया. वास्तु इतिहासकार अल्का पटेल ने अपनी किताब ‘आर्किटेक्चरल कल्चर्स ऐंड एम्पायर : द घुरिड्स इन नॉदर्न इंडिया’ में लिखा है कि 1190 में अयबेग के प्रतिद्वंद्वी बहा अल-दीन तुघ्रिल ने पूर्वी राजस्थान के बयाना में मस्जिदें बनवाईं. उससे आगे दिखने की होड़ में अयबेग ने चाहमना वंश की राजधानी अजमेर के जैन मंदिर को गिराकर वहां जामी मस्जिद बनवा दी.

दरगाह

लेकिन तुर्कों को जल्दी ही पता चल गया कि लड़ाका होना ही हुकूमत चलाने की गारंटी नहीं है. आधुनिक देशों की तरह मध्य युग की हुकूमतों के लिए भी अपनी प्रजा की कुछ सहमति ज़रूरी थी. इसलिए शुरू के सुल्तान सूफी संतो की ओर मुड़े, जिनके बार माना जाता था कि उनका परवरदिगार से सीधा नाता जुड़ा हुआ है. सूफी अगर खुदा के नुमाइंदे थे, तो उनकी खिदमत करके सुल्तान खुदाई रहमत का दावा कर सकते थे और इसमें शक नहीं कि मध्ययुग के कई हिंदू भी सुल्तानों के बारे में ऐसा ही मानते थे.

इस तरह हम फिर अजमेर में अयबेग की मस्जिद पर वापस लौटते हैं. 13वीं सदी के शुरू में सूफियों के चिश्ती पंथ के शेख ख्वाजा मोइनुद्दीन अजमेर में बस गए, बाद में उनके वारिस दिल्ली में बसे और उन्होंने महरौली में क़ुतुब साहिब में अपने बड़े केंद्र स्थापित किए.

विभिन्न धर्मों के विद्वान कमर-उल-हुदा ने अपने शोधग्रंथ ‘ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्तीज़ देत फेस्टिवल’ में लिखा है कि चिश्ती संप्रदाय सहजता और सादगी में यकीन रखता है. इसकी वजह से उसका दिल्ली के सुल्तानों से अक्सर सामना हो जाता था. उस समय के कई सूफियों की तरह उन्होंने भी हिन्दू और जैन धर्मशास्त्रों से कई विचार अपनाए थे, जैसे भक्ति संगीत, सिर मुंडवाना, और अहिंसा पर ज़ोर देना. इसके कारण उनके अनुयायियों में कई तरह के भक्त, सूफी और बौद्धिक शामिल थे. अजमेर शरीफ की लोकप्रियता जल्दी ही सुल्तानों की लोकप्रियता से ज्यादा हो गई.

16वीं सदी में, जब मुगल बादशाह अकबर ने राजस्थान को अंततः अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया तब अजमेर शरीफ का काफी विस्तार हुआ, वहां आने वाले तीर्थयात्रियों के वास्ते टनों में भोजन पकाने लिए विशाल कड़ाहे रखे गए. कई प्रवेशद्वार बनाए गए और दरगाह परिसर के साथ एक मुगल महल जोड़ा गया, लेकिन अजमेर शरीफ को संरक्षण देने वालों में केवल शाही मुगल परिवार या मुसलमान ही थे.

इतिहासकार राणा सफ्वी ने अपनी किताब ‘इन सर्च ऑफ द डिवाइन : लिविंग हिस्टरीज़ ऑफ सूफिज़्म इन इंडिया’ में लिखा है कि मराठा नरेश कुमार राव सिंधिया ने अजमेर में भी अपनी रिहाइश बनाई क्योंकि उनका मानना था कि ख्वाजा ने उन्हें एक पुत्र दिया. महारानी बैजा बाई सिंधिया ने भी 18वीं सदी में, जोधपुर के अजित सिंह ने 1709 में , बड़ौदा के महाराजा ने 1800 में वहां कुछ निर्माण कराए. ‘गरीब नवाज़’ के रूप में ख्वाजा की ख्याति 18वीं सदी में मणिपुर तक पहुंच गई और वहां के हिन्दू राजा पाम्हीबा ने यह उपाधि का क्षेत्रीय नाम अपने नाम के साथ जोड़ा.

इसलिए अजमेर शरीफ के लंबे इतिहास में, ऐसा लगता है कि भारत का धुर दक्षिणपंथ यह मानता है कि जाति, वर्ग, धर्म और लिंगे के भेदों को तोड़कर 800 साल से जो लाखों भारतीय तीर्थयात्री वहां आते रहे, उसका संरक्षण करते रहे उस सबका कोई महत्व नहीं है. मुस्लिम और हिंदू रहस्यवादियों के बीच जो गंभीर धार्मिक संपर्क बना रहा है उसका कोई महत्व नहीं है; बाहर से आए प्रवासियों ने अपनी नई संस्कृति के साथ जो तादात्म्य स्थापित किया उसका कोई महत्व नहीं है.

भारत का धुर दक्षिणपंथ आधुनिक काल से पहले जो भी मुस्लिम शासक, गुरु-शिक्षक, भक्त-श्रद्धालु आए उनका कुछ भी सिर्फ इसलिए स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि कुछ लड़ाकों ने मंदिरों को तोड़ा, भले ही आधुनिक काल से पहले के हिंदुओं ने उन्हें स्वीकार किया हो और यहां तक कि उन्हें पूजा हो. 2024 में, धुर दक्षिणपंथ चाहमना वंश के एक मध्ययुगीन धर्मस्थल का बदला चुकाना चाहता है जिसे संभवतः उन शासकों के झगड़े की वजह से नष्ट किया गया जो सदियों पहले लुप्त हो गए.

इस तेवर की मूढ़ता को न तो तार्किक आधार पर उजागर किया जा सकता है और न ऐतिहासिक आधार पर. इसे इतिहास की भूलों को सुधारना भी नहीं कहा जा सकता. इसलिए हम बड़े-बड़े दावों के झांसे में न आएं, दरअसल यह अपना वर्चस्व जताने के लिए भारत के इतिहास पर सीधा हमला है, चाहे इससे हमारे सामाजिक ताने-बाने को नुकसान क्यों न पहुंचे. राजनीति-प्रेरित ‘भावनाओं’ के नाम पर लाखों भारतीयों के अधिकारों और आस्थाओं को कुचलने का कोई औचित्य नहीं है.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टि एक पब्लिक हिस्टोरियन हैं. वे लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, जो मध्ययुगीन दक्षिण भारत का एक नया इतिहास है और इकोज़ ऑफ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट को होस्ट करते हैं. उनका एक्स हैंडल @AKanisetti है. उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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