अगर मेरी याददाश्त खराब नहीं हुई है तो कह सकता हूं कि मैंने और भारत के महा शक्तिशाली राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल ने जिन्हें केंद्रीय मंत्री का दर्जा हासिल है. मसूरी की राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के सेहतबख्श अहाते में एक ही दिन, 3/4 जुलाई 1968 को भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी. उस दिन डोभाल भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) में चले गए थे और मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) में आ गया था. दोनों संविधान के अनुच्छेद 312 के तहत अनुबंधित अखिल भारतीय सेवाएं हैं. जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं, अपनी शपथ पर अडिग रहना गर्व की बात होती है. जब मैंने पाया कि शपथ का पालन करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है तो 1985 में मैं आइएएस से बाहर आ गया ताकि शपथ से बंधा न रह सकूं. लेकिन डोभाल देश में शीर्ष अधिकारी हैं और उनके लिए शपथ अभी भी लागू है.
वास्तव में मैंने तब दूसरी बार शपथ ली थी. पहली बार 1964 में गणतंत्र दिवस पर भारतीय सेना में अपनी कमीशनिंग पर शपथ ली थी— ‘मैं…. ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं भारत एवं संविधान के प्रति श्रद्धा एवं सच्ची निष्ठा रखूंगा, जो विधि द्वारा स्थापित है; कि मैं भारतीय संघ की सेना की ईमानदारी एवं निष्ठापूर्वक सेवा करूंगा और धरती, समुद्र या आकाश जहां भी आदेश दिया जाएगा वहां जाऊंगा, कि भारतीय संघ के राष्ट्रपति तथा मेरे ऊपर तैनात किसी भी अधिकारी के सभी आदेशों का अपने जीवन को जोखिम में डाल कर भी पालन करूंगा.’
सेना की हरी वर्दी में अपने छोटे-से कार्यकाल में मैंने इस शपथ का पालन किया और उन सभी तीनों ऑपरेशनों में भाग लिया जिनमें कोई इन्फैन्ट्री अफसर अपने पूरे केरियर में भाग ले सकता है— थार के रेगिस्तान में हुए युद्ध (1965), नागालैंड के जंगलों में बगावत के खिलाफ कार्रवाई, और असम तथा तमिलनाडु के मैदानी इलाकों में असैनिक अधिकारियों की सहायता. पहले ऑपरेशन में हमने दुश्मन के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार किया दूसरे में हमने भूमिगत नागाओं को दिग्भ्रमित उग्रवादी मान कर व्यवहार किया और तीसरे ऑपरेशन में सिविल सोसाइटी को अपना मान कर व्यवहार किया, जिन्हें सुरक्षा देने की जरूरत थी. हम इस अजीबोगरीब सिद्धांत की कल्पना तक नहीं कर सकते थे कि अब ‘युद्ध का नया मोर्चा’, जिसे आप चौथी पीढ़ी का युद्ध कह सकते हैं, सिविल सोसाइटी है.’
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डोभाल का त्रिआयामी सैन्य दर्शन
एनएसए बनने से कुछ महीने पहले डोभाल ने अपना यह गूढ़ दर्शन प्रस्तुत किया था— ‘आप जानते हैं, हम दुश्मन से तीन तरीके से निबटते हैं— रक्षात्मक तरीके से, जो कि आप जानते हैं कि चौकीदार और चपरासी इस्तेमाल करते हैं यानी किसी को अंदर आने से रोकना. यानी रक्षात्मक होते हुए आक्रामक होना. अपनी रक्षा करने के लिए हम उस जगह तक जाते हैं जहां से आक्रमण हो रहा है. अब हम रक्षात्मक मुद्रा में है… अंतिम तरीके को आक्रामक तरीका कहा जाता है.’
डोभाल जिस ‘सैन्य सिद्धांत’ को कश्मीर में लागू करना चाहते थे उसका आधार यह था कि ‘सत्ता के खेल में अंतिम न्याय ताकतवर के हाथ में होता है’. ‘स्क्रॉल डॉट इन’ में छपे अपने लेख में सोशल एक्टिविस्ट तथा लेखक हर्ष मंदर ने लिखा है कि ‘इस सिद्धांत के तहत कोई भी हथियार— बुलेट, पेलेट गन, मनुष्य को ढाल बनाना— या आक्रमण की कोई भी रणनीति वर्जित नहीं है, भले ही इनसे अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय संहिताओं का उल्लंघन क्यों न होता हो. भले ही खूनखराबा हो, बच्चे मारे जाएं या अपाहिज किए जाएं, माएं विलाप करें, उदारवादियों का अपमान हो, लोग वोट न दें, कोई फर्क नहीं पड़ता. राज्यतंत्र को ज्यादा से ज्यादा सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करके अपना वर्चस्व बनाए रखना है, चाहे इसका इस्तेमाल अपने लोगों के खिलाफ ही क्यों न करना पड़े.’
राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले को इस तरह के तीखे कुचक्र की जगह सुविचारित तथा सुपरिभाषित सिद्धांत, राष्ट्रीय सिद्धांतों के तहत निबटाया जाना चाहिए. यह ‘सरकार की नीति का एक बयान’ होना चाहिए जिसमें देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मसलों यानी राष्ट्रीय सुरक्षा को पेश खतरों, सैन्य, नागरिक आम सहमति, विकास संबंधी मांगों आदि का ख्याल रखा गया हो. इस तरह के दस्तावेज़ ऐसे होने चाहिए जो नेताओं को घरेलू तथा विदेश नीति संबंधी उपयुक्त फैसले लेने में मदद करें. अफसोस की बात है कि भारत में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है.
हालांकि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अलावा एक सामरिक नीति ग्रुप, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड भी है लेकिन एनएसए ही भारत के सुरक्षा ढांचे की केंद्र है. इस पद के साथ न कोई विधायी प्रावधान जुड़ा है और न इसके लिए संसदीय मंजूरी जरूरी है. इसलिए इस पद को बिना किसी निगरानी या ज़िम्मेदारी के, काफी अधिकार हासिल हैं. केवल संबंधित मंत्री और सचिव ही संसद के प्रति या तो कमिटियों (सचिव) के प्रति या सदन (मंत्री) के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होते हैं. इस त्रुटि के कारण और इसके साथ औपचारिक व्यवस्था में गिरावट के कारण यह व्यवस्था कामचलाऊ मनमानी नज़र आती है और लगभग हमेशा अधिनायकवादी दिखती है. चूंकि किसी नीति या सिद्धांत के तहत काम नहीं करना है इसलिए एनएसए जो चाहे चला सकते हैं और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला बता सकते हैं. यह विचित्र बात है और लोकतांत्रिक सिद्धांतों से बेमेल है.
जाने-माने वकील ए.जी. नूरानी के मुताबिक, डोभाल के सिद्धांत का एक मुख्य आधार है— ‘नैतिकता बेमानी है’. नूरानी ने लिखा है— ‘डोभाल ने ‘व्यक्तिगत नैतिकता’ और ‘राज्यतंत्र की मूल्य-व्यवस्था’ के बीच की दुविधा की व्याख्या करने की कोशिश की है. राज्यतंत्र आवश्यक है. ‘अगर यह आवश्यक है तो अपनी सुरक्षा करना इसकी सबसे बड़ी भूमिका होगी. व्यक्तिगत नैतिकता को व्यापक समाज-हित पर नहीं थोपा जा सकता. राष्ट्र को अपनी सुरक्षा करने के लिए सभी उपायों का सहारा लेना ही पड़ेगा और इस कोशिश में वह उस चीज को गौण करने की छूट नहीं ले सकता, जो उसके दीर्घकालिक हित में है.’
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सिविल सोसाइटी का नया सिद्धांत
सिविल सोसाइटी के लिए डोभाल के नये सिद्धांत को ‘नैतिकता’ की इसी कसौटी पर परखने की जरूरत है. 11 नवंबर को हैदराबाद में पुलिस अकादमी से निकले नये पुलिस अधिकारियों की पासिंग आउट परेड को संबोधित करते हुए डोभाल ने कहा कि ‘अब युद्ध का नया मोर्चा, जिसे आप युद्ध की चौथी पीढ़ी कहते हैं, सिविल सोसाइटी है. युद्ध अब अपने राजनीतिक या सैन्य लक्ष्यों को हासिल करने के प्रभावी उपाय नहीं रह गए हैं. उनके नतीजों को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बन गई है. लेकिन सिविल सोसाइटी को राष्ट्र के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए परास्त और दुष्प्रेरित किया जा सकता है, उसमें फूट डाली जा सकती है, उसे बहलाया जा सकता है. और आप यह देखने के लिए हैं कि वे पूरी तरह सुरक्षित रहें और इसके बाद डोभाल ने अपने ज्ञान का नायाब मोती पेश किया— ‘लोकतंत्र का सारतत्व मतदान पेटी नहीं है. यह उन क़ानूनों में निहित है. जो इन मतपेटियों के जरिए निर्वाचित लोगों द्वारा बनाए जाते हैं.’ डोभाल के लिए लोग नहीं बल्कि राज्यतंत्र सर्वोपरि है.
इन बयानों से साफ है कि संविधान, लोकतंत्र और सिविल सोसाइटी के बारे में डोभाल की समझ अलग ही है. ऐसा लगता है कि वे भारत को अभी भी औपनिवेशिक राजशाही मानते हैं जहां लोगों को प्रजा माना जाता है. वे भारत को लोकतंत्र नहीं मानते जहां लोगों को नागरिक माना जाता है. हमारा संविधान इन शब्दों से शुरू होता है— ‘हम भारत के लोग…’ और इसमें लोकतंत्र को एक ऐसे समाज के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें नागरिक संप्रभु है और वही राज्यसत्ता का मालिक है. ‘प्रजा’ और ‘नागरिक’ में भारी अंतर है. प्रजा वह है जो किसी सम्राट या सरकार की सत्ता के मातहत होती है. जबकि ‘नागरिक’ को एक स्वतंत्र व्यक्ति के अधिकार और विशेषाधिकार हासिल होते हैं. सरकार के आदेश का पालन करना ‘प्रजा’ का फर्ज है, जबकि ‘नागरिक’ को यह अधिकार हासिल है कि वह राज्यसत्ता को आदेश दे क्योंकि वे ही अपने मताधिकार का प्रयोग करके सरकार का गठन करते हैं. सार यह कि लोकतंत्र मूलतः ‘जनता की सत्ता’ है न कि ‘राज्यतंत्र की सत्ता’.
‘सिविल सोसाइटी’ की परिभाषा को लेकर काफी अस्पष्टता है. विश्व बैंक ने एक कोशिश की है— ‘सिविल सोसाइटी… का अर्थ है तमाम तरह के संगठन: सामुदायिक समूह, गैर-सरकारी संगठन, मजदूर संघ, देसी समूह, परमार्थ संगठन, आस्था आधारित संगठन, पेशेवर संघ, और तमाम तरह के प्रतिष्ठान.’ मेरे ख्याल से यह पूरी परिभाषा नहीं है क्योंकि ये सिविल सोसाइटी के उसी तरह ‘तत्व’ हैं जिस तरह संसद और विधानसभाएं निर्वाचन मण्डल के ‘तत्व’ हैं.
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डोभाल के पूर्ववर्ती एनएसए
सिविल सोसाइटी की वास्तविक परिभाषा में भारत की पूरी जनता शामिल मानी जाएगी जिसे संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत मौलिक अधिकारों का दावा करने का संवैधानिक विशेषाधिकार हासिल है, सिवा सेना में शामिल लोगों के जिनके संवैधानिक अधिकार सीमित हैं. संयोग से कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर करने वाले लाखों आंदोलनकारी किसान भी सिविल सोसाइटी के हिस्से हैं. तब डोभाल युवा पुलिस अधिकारियों से यह कैसे कह सकते हैं कि वे ‘हम, भारत के लोग’ को दुश्मन मानें और उनके खिलाफ युद्ध करें?
अजित डोभाल को प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में एनएसए के पद पर नियुक्त किया. मंदर के मुताबिक, खुफिया ब्यूरो (आइबी) के पूर्व निदेशक डोभाल मोदी के ‘सबसे करीबी विश्वासपात्रों’ में गिने जाते हैं. मंदर का दावा है कि सेवानिवृत्त होने के बाद डोभाल हिंदुत्ववादी विचारधारा से जुड़े विवेकानंद फाउंडेशन के प्रमुख बने. यह फाउंडेशन प्रधानमंत्री कार्यालय में वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति का मुख्य स्रोत बन गया है. वैसे, अतीत में यह भूमिका ज्यादा ‘तटस्थ’ लोग निभाते रहे हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बनाया था. भारतीय विदेश सेवा के ब्रजेश मिश्र पहले एनएसए बने थे. वे प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव थे. 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो एनएसए के पद को दो भाग में बांट दिया गया. विदेश मामलों के एनएसए बनाए गए पूर्व विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित और आंतरिक मामलों के एनएसए बनाए गए आइबी के पूर्व निदेशक एम.के नारायणन. 2005 में दीक्षित के निधन के बाद दोनों पदों को मिलाकर फिर एक कर दिया गया और नारायणन पूर्णकालिक एनएसए बनाए गए. 2010 में उनकी जगह ली पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने.
जाहिर है, डोभाल के पूर्ववर्तियों में से तीन राजनयिक रह चुके थे और एक पुलिसवाले थे. राजनयिकों की अपनी खास शैली थी और पुलिसवाले पके-पकाए थे. सबने स्वतंत्र तरीके से काम किया. उनमें से कोई भी ध्रुवीकरण वाली किसी विचारधारा के प्रति निष्ठा नहीं रखता था और न ही असहमत लोगों को ‘दुश्मन’ मानने की मानसिकता वाला था. इतना वक़्त गुजर जाने के बाद भी डोभाल अपने पूर्ववर्तियों के नक्शे-कदम पर चलें तो बेहतर होगा. अगर उनमें ‘चौथी पीढ़ी का युद्ध’ लड़ने का कोई विशेष हुनर है तो बेहतर होगा कि इसका इस्तेमाल वे सिविल सोसाइटी को निशाना बनाने की जगह उन महाबलियों के खिलाफ करें जिन्होंने भारत की जमीन पर ‘कब्जा’ कर रखा है.
एम.जी. देवसहायम सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी हैं और ‘पीपुल फर्स्ट’ के अध्यक्ष हैं. वे भारतीय सेना को भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं. ये उनके निजी विचार हैं.
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