बदकिस्मती से मुझे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल द्वारा हैदराबाद की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों को संबोधित करने के कुछ दिनों बाद, सेवारत पुलिस अधिकारियों के बीच एक व्याख्यान देना पड़ा. कभी खुफिया ब्यूरो (आइबी) के निदेशक रहे डोभाल पुलिस में कई लोगो के लिए एक ‘रोल मॉडल’ हैं. कभी पाकिस्तान में गुप्त एजेंट रहे डोभाल वहां के अपने कारनामों की कहानियों से कई लोगों के लिए प्रेरणा रह चुके हैं और शहरी लोगों में एक किंवदंती बन चुके हैं. हाल में अकादमी के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने उन्हें सामाजिक कार्यकर्ताओं, वामपंथी-उदारवादी विचारधारा वाले एनजीओ (जिन्हें सिविल सोसाइटी में गिना जाता है) से सावधान रहने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि इन लोगों को भारत की दुश्मन ताकतों से भी पैसा मिलता है और ये राष्ट्र निर्माण के काम में अड़ंगा लगाते हैं. कोई भी सोच सकता है कि आंतरिक सुरक्षा काफी कुछ इस पर निर्भर होती है कि नागरिक सरकार का कितना साथ देते हैं, न कि उन्हें सरकार से कितना अलगथलग किया जाता है. लेकिन ऐसा लगता है कि डोभाल साहब का सोच कुछ और है.
ऐसी मानसिकता हो तो तो यह मान लिया जा सकता है कि एनएसए की नज़र में केवल उन्हीं की अहमियत है. जो भारतीय राज्यतंत्र के वफ़ादारों के रूप में वर्तमान सरकार का खुला समर्थन करते हैं; जो हर पल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी औए उनके नंबर दो अमित शाह का गुणगान करते रहते हैं; जो अपने सोशल मीडिया नेटवर्क का इस्तेमाल सरकार के आलोचकों की निरंतर निंदा करते रहते हैं. यह सरकार और राज्यतंत्र को समान मानने की दिलचस्प कोशिश है.
‘शिलांग वी केयर’ नामक झंडे के नीचे इकट्ठा हुए विविध लोगों का समूह शायद पहला ऐसा संगठन है जो मेघालय में उग्रवाद के खिलाफ शुरू से लड़ रहा है. वास्तव में हमने 1996 से ही, जब उग्रवाद ने यहां अपना कुरूप चेहरा दिखाना शुरू किया था, इसके खिलाफ लड़ाई में हमने राज्यतंत्र की मदद करने की कोशिश की. मेघालय में उग्रवादियों को भगाने में सिविल सोसाइटी समूह अग्रिम मोर्चे पर रहे हैं.
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‘शिलांग वी केयर’ सामने आया
1990 के दशक में भय का माहौल व्याप्त था. जबरन वसूली व्यापक रूप से फैल चुकी थी, खासकर शिलांग में. शिलांग के पुलिस बाजार और बड़ा बाजार आदि इलाकों में गैर-आदिवासी व्यापारियों से लाखो रुपये देने के लिए कहा जाता था. जैसी कि सभी उग्रवादियों का तरीका होता है, उनसे किसी खास जगह पर भुगतान करने के लिए कहा जाता था. लोग पैसे देते थे क्योंकि जो नहीं देते थे उन्हें दिनदहाड़े गोली मार दी जाती थी. लाइतुमख्राह की गलियों में सबसे पहले गोली मारी गई थी राजेश सैगल नाम के शख्स की, जो मोटर गाड़ियों के कल-पुर्जों की दुकान चलाता था. इसने उग्रवादियों की क्षमता का परिचय करा दिया था. उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगा. शाम ढलते ही दुकानों के शटर गिरर दिए जाते थे. कभी सुरक्षित माना जाने वाला शिलांग शाम पांच बजे के बाद भुतहा शहर बन जाता था. इसकी हालत कोहिमा, दीमापुर, और आइजोल जैसी प्रांतीय राजधानियों जैसी हो गई थी जहां जीवन शाम ढलते ही खत्म हो जाती थी.
‘शिलांग वी केयर’ के हम लोगों के लिए यह बहुत परेशान करने वाली बात थी क्योंकि हम लोगों को लगता था कि हमने कुछ नहीं किया तो उग्रवाद प्रभावित दूसरे राज्यों की तरह मेघालय के कुछ हिस्से भी ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिए जाएंगे और अशांत क्षेत्र अधिनियम न्लागू कर दिया जाएगा. और फिर, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफस्पा) लागू करके सेना को तैनात कर दिया जाएगा.
दूसरी भयानक गोलीबारी धानखेती इलाके में टीवी स्टोर ‘एरिस्टो’ में हुई. स्टोर के बंगाली मालिक से शायद पैसे मांगे गए थे और उसने देने से माना कर दिया था. एक सेल्समैन और दो ग्राहकों को गोली मार दी गई; उनमें से एक माल्की का आदिवासी लड़का था. ‘शिलांग वी केयर’ ने इस बर्बर करतूत की निंदा के लिए माल्की मैदान में विरोध सभा की. इसमें सैकड़ों लोग शरीक हुए. सभा की अध्यक्षता माल्की के मुखिया (रंग्बाह श्नोंग) एच.पी. ओफ़्लिन दोहलिंग ने की. उस इलाके के तत्कालीन विधायक टोनी कर्टिस लिंगदोह पहले राजनीतिक नेता थे जिन्होंने हाइनिवट्रेप नेशनल लिबरेशन काउंसिल (एचएनएलसी) के उग्रवादियों की खुली भर्त्सना की और धानखेती में उन क्रूर हत्याओं के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया. इन हत्याओं ने ख़ासी समाज के सभी मूल्यों को तोड़ दिया. ख़ासी समुदाय को एक शांत समाज माना जाता रहा था, जो मानवीय मूल्यों में आस्था रखता था और मानव जीवन के प्रति सम्मान की भावना रखता था.
‘शिलांग वी केयर’ ने शामों को नुक्कड़ सभाओं का आयोजन शुरू कर दिया. कुछ युवा भी हमारे आंदोलन में शामिल हो गए. हमने उन्हे नुक्कड़ नाटक करने का प्रशिक्षण दिया. इन नाटकों में भयाक्रांत लोगों के सामने उग्रवाद की बुराइयों का खुलासा किया जाता था. लैतुमख्राह से स्थानीय संस्थाओं (दोरबर श्नोंग) के कुछ नेता भी हमारे जुलूसों में भाग लेती थे, जिनमें लोग ‘उग्रवाद का बहिष्कार करो’, ‘जबरन वसूली बंद करो’, ‘संघर्ष हमारा नारा है’, ‘वसूली की सूचना दो’ लिखी हुई तख्तियां लेकर चलते थे. ये सारे कदम इसलिए उठाए गए ताकि लोग अपनी आवाज़ उठाएं, क्योंकि वे इतने डर गए थे कि कुछ बोल नहीं पा रहे थे.
उस समय हमने यह भी फैसला किया कि अपने इरादों के बारे में पुलिस को भी भरोसे में लेंगे और यह देखने की कोशिश करेंगे कि हम वास्तव में उसके लिए काम न करके उनके साथ काम कर सकते हैं या नहीं. हमने तत्कालीन डीजीपी लालंघेटा सैलो से पूछा कि क्या उन्हें उन व्यवसायियों में से किसी की ओर से एफआइआर मिली है, जिनसे जबरन वसूली की गई. सैलो ने बताया कि कोई एफआइआर नहीं मिली है. हमने उनसे यह भी पूछा कि क्या पुलिस ने खुद कार्रवाई करते हुए एफआइआर दायर किया, क्योंकि जिनसे वसूली की गई वे बुरी तरह डरे हुए हैं. उनका जवाब था कि पुलिस ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि यह कानून के दायरे में नहीं है. हमने पुलिस विभाग से अनुरोध किया कि वह इस तरह के होर्डिंग लगाए जिनमें लिखा हो— ‘वसूली का बहिष्कार करें’, ‘क्या आप जबरन वसूली के शिकार हैं? 100 नंबर पीआर फोन करें’.
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बिना सेना के आतंकवाद पर कैसे काबू पाया गया
‘एचएनएलसी’ को पहली बार पता चला कि मेघालय में नागरिकों का एक समूह उनके खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी, हममें सो जो आगे बढ़कर काम कर रहे थे उन्हें देर रात में फोन पर धमकियां मिलने लगीं कि उन्हें मालूम है कि हमारे कितने बच्चे हैं और कौन कहां पढ़ाई कर रहा है, इसलिए हम जो कुछ कर रहे हैं उससे बाज आएं. एक बार, खुद को ‘सेंग’ (संगठन) का सदस्य बताने वाले एक आदमी ने मुझे फोन किया कि उसका गुट मुझसे मिलना चाहता है. उस समय हमारे पास केवल लैंडलाइन फोन थे. मैंने फोन करने वाले को जवाब दिया कि अगर वह या उसका सेंग मुझसे मिलना चाहता है तो वह मेरे घर आए, ‘ख़ासी तहजीब यही है’. उसने जवाब दिया, ‘हमारे ओपपर नज़र रखी जा रही है और आपके इलाके में आना सुरक्षित नहीं है.’ मैंने उससे कहा, ‘तब तो मुझे अफसोस है. मैं तुम लोगों से मिलने नहीं आ सकती.’ और यह अजीबोगरीब वार्ता खत्म हो गई.
उत्तर-पूर्व के दूसरे उग्रवादी गुटों की तरह ‘एचएनएलसी’ भी स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त और गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी पर बंद का आह्वान करता था. उनका कहना था कि वे इन दिनों पर समारोह नहीं माना सकते क्योंकि ये अंग्रेजों के जान के बाद ख़ासी प्रदेशों के औपनिवेशीकरण के प्रतीक हैं. ‘एचएनएलसी’ ने इतिहास पढ़ने की कोशिश नहीं की कि उनके पूर्वजों ने 1948 में क्या किया था. वास्तव में, 25 ख़ासी सरदारों (सीएमों) ने भारतीय संघ में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किए थे. यह सच है कि कुछ सीएमों पर दबाव डालकर दस्तखत करवाए गए थे लेकिन हकीकत यह है कि मेघालय भारत का एक राज्य है. लेकिन वास्तविक या काल्पनिक नुकसान का मुद्दा उस आबादी के लिए आकर्षक था, जो खराब शासन से परेशान थी और जहां कानून का शासन जितना लागू किया जाता था उससे कहीं ज्यादा तोड़ा जाता था.
‘शिलांग वी केयर’ के सदस्य इन दो राष्ट्रीय दिवसों पर पोलो ग्राउंड तक चलकर आते थे, जहां इनका सरकारी समारोह मनाया जाता था. इसके पीछे विचार यह था कि लोगों को बंद के आह्वान का उल्लंघन करने को प्रोत्साहित किया जाए और जनता पर उग्रवादियों के खौफ को तोड़ा जाए. अगले दो वर्षों में दूसरे लोगों की हिम्मत बढ़ी और वे व्यावसायिक इलाके पुलिस बाजार में इन दिवसों पर संगीत समारोह करने लगे. वैसे, दुकाने बंद होने के कारण यह इलाका सुनसान होता था और कोई भी सड़क पर नहीं निकलता था.
हम लोगों की हमेशा यही कोशिश रहती थी कि लोगों को अर्थव्यवस्था, शिक्षा आदि पर उग्रवाद से होने वाले नुक़सानों के बारे में जागरूक किया जाए और यह भी बताया जाए कि इससे उद्यमिता किस तरह बाधित होती है.
तब मैं एक स्कूल टीचर थी और चार बच्चों की अकेली अभिभावक थी. लेकिन स्कूल के बाद ‘शिलांग वी केयर’ के सदस्य आगे के कार्यक्रम तय करने के लिए मिला करते. मुझे लगता था कि हमें भावी पीढ़ी के लिए यह करना ही चाहिए. ‘शिलांग वी केयर’ 2001 तक इस मान्यता पर टिका रहा. इस साल हमें एक गंभीर कॉंग्रेसी गृह मंत्री मिले जिन्होंने ‘एचएनएलसी’ के खजाने में पैसे पहुंचने पर रोक लगा दी. सौभाग्य से गृह मंत्री आर.जी. लिंगदोह को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. एफ.ए.. खोंगलम का पूरा सहयोग मिला और उन्होंने ‘सीआइ’ कार्रवाइयों और सामरिक दबाव का इस्तेमाल करके उग्रवादियों का मुक़ाबला किया.
लिंगदोह ने पुलिस बाजार के उन सभी दुकानदारों और दूसरे व्यवसायियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज कारवाई, जो उग्रवादियों को नियमित पैसे दे रहे थे. दुकानदारों को बचाव के लिए अग्रिम जमानत की अर्जी देनी पड़ी. उनके लिए अब एक ओर कुंआ था तो दूसरी ओर खाई थी. उन्होंने अपना डर छोड़कर ‘एचएनएलसी’ को दिखाकर उसे अब आगे पैसे न देने का बहाना बना लिया. ‘एचएनएलसी’ को जब पैसे का टोटा पड़ने लगा और पुलिस की ओर से दबाव महसूस होने लगा तो वे सरकार को शांति वार्ता के लिए संदेश भेजने लगे. गृह मंत्री ने कहा कि वार्ता करने का कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि उनकी मांगें अस्पष्ट हैं. लिंगदोह ने कहा कि सरकार उन्हीं व्यक्तियों से बात करेगी, जो समर्पण करना चाहते हैं. सरकार उन्हें नया जीवन शुरू करने की सलाह और सहायता देगी.
उन्होंने उनसे समूह के नाते बात करने से मना कर दिया. ‘द शिलांग टाइम्स’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि ‘हम साफ कर चुके हैं कि जो भी उग्रवादी मुख्यधारा में आना चाहता है उसे समूह नहीं एक व्यक्ति के तौर पर हथियार डालना होगा. हरेक आत्मसमर्पण पर अलग से विचार किया जाएगा और उसके खिलाफ दर्ज मामलों के आधार पर कानून के तहत फैसला किया जाएगा. हमने उग्रवादियों से एक समूह के तौर पर बात करने से मना कर दिया है. इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें समूह मान कर बात करने से समूह के हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही कम हो जाएगी.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘व्यक्तियों की पहचान गुमनाम रही और समूह की पहचान उभर आई. इसका नतीजा यह होगा कि समूह तो कानून का पालन करने को राजी होगा मगर उसके सदस्य फिर गैरकानूनी हरकतें करने लगेंगे. यह ‘सुल्फा’ के मामले में हो चुका है, और बाद में समर्पण कर चुके ‘एएनवीसी’ और फिर ‘जीएनएलए’ के मामले में भी हो चुका है. समूह ने व्यक्ति की हरकतों की ज़िम्मेदारी नहीं ली.’
मेघालय में बिना सेना बुलाए और बिना ‘आफस्पा’ लागू किए, उग्रवाद पर इसी तरह काबू पाया गया. सबसे ऊपर, इस उग्रवाद को शांति वार्ता के बिना भी काबू में किया गया. लिंगदोह ने खुद कबूल किया कि मेघालय में सिविल सोसाइटी ने बड़ी भूमिका निभाई जिसकी वजह से पुलिस उग्रवाद पर काबू पाने में सफल रही. आज ‘एचएनएलसी’ मात्र 20 काडरों वाला गुट रह गया है, जो बांग्लादेश सीमा पर छिपे रहते हैं.
भारत की अवधारणा
अजित डोभाल के लिए बेहतर होगा कि वे भारत के मुख्य इलाकों को ही नहीं बल्कि आंतरिक इलाकों के माहौल को भी समझने की कोशिश करें और देश की विशद विविधताओं के मद्देनजर उसी के मुताबिक अपने सिद्धांत गढ़ें. यह समझने की कोशिश करें कि यह एक ऐसा उपमहादेश है जो एक राष्ट्र की अवधारणा को नकारता है. देश के नागरिकों के विशाल तबकों को, और सामाजिक कार्यों से जुड़े कार्यकर्ताओं को ‘युद्ध का नया मोर्चा’ मानना, और सिविल सोसाइटी के खिलाफ युद्ध को चौथी पीढ़ी के युद्ध के बराबर बताना उन दुविधाओं को बुलावा देना है जो अल्पकालिक राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाती हैं. डोभाल साहब, यह नहीं चलेगा. भारत की अवधारणा आपकी आधी-अधूरी कल्पना से कहीं ज्यादा बड़ी है.
लेखिका पत्रकार हैं और ‘द शिलांग टाइम्स’ की संपादक हैं. ये लेखिका के निजी विचार हैं
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