पिछले हफ्ते मैं एयर इंडिया में बैठकर चेन्नै से दिल्ली आया. सफर की तैयारी पहले कर ली गई थी और मुझे नहीं मालूम था कि उसी दिन उसकी मिल्कियत टाटा को लौट जाएगी. लेकिन हम बैठे ही थे कि पायलट ने ऐलान किया, ‘आज एयर इंडिया फिर टाटा ग्रुप का हिस्सा हो गई….’
इस एहसास से कि मैं महज संयोग से एक विशेष के मौके पर सही जगह हूं, मैंने अपना फोन निकाला और उस ऐलान को रिकॉर्ड कर लिया. बाद में इसे ट्विटर पर डाल दिया. प्रतिक्रियाओं से मैं चकित रह गया. 45,000 से ज्यादा लोगों ने वीडियो देखा और खूब खुशी और समर्थन जाहिर किया. ऐसा ही नजारा विमान में भी था. ऐलान खत्म होते ही यात्री एक-दूसरे की ओर मुस्कराहट के साथ देखा कि टाटा अब फिर एयर इंडिया चलाएगा.
सनक के इस अजीबोगरीब दौर में एयर इंडिया का निजीकरण एक विरली घटना है. एक व्यावसायिक लेनदेन से कई लोगों को रोमांचित कर दिया, उन्हें भी जिन्हें सिर्फ यही मतलब है कि वे फिर एयर इंडिया में उड़ पाएंगे. टाटा को इस सफर में आश्चर्यजनक जन समर्थन मिला.
एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण
हममें से ज्यादातर लोग सहमत होंगे कि एयर इंडिया का टाटा के पास लौटना वाजिब है. हालांकि हम निजी हाथों से सरकारी नियंत्रण और फिर निजी हाथों को सौंपने की पूरी प्रक्रिया ठीक-ठीक समझ नहीं पाए. सरकार ने जब 1953 में एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण किया तो वह छोटी-सी एयर लाइन थी और पांच साल पहले ही अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान शुरू की थी. वह ऐसी भारी-भरकम नहीं थी, जो कुछेक दश्कों में हो गई.
आपमें से जैसा कि कुछ लोग मानते होंगे, उसके उलट एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण किसी क्रांतिकारी माक्र्सवादी एजेंडे का हिस्सा नहीं था. उस दौर में कई (असल में ज्यादातर) बड़ी अंतरराष्ट्रीय एयरलाइन, अमेरिका को छोडक़र, सरकारी मिल्कियत वाली थीं (मसलन, ब्रिटिश एयरवेज-तब जो ब्रिटिश ओवरसीज एयरवेज कॉर्पोरेशन या बीओएसी कहलाती थी, एयर फ्रांस, एलिटालिया वगैरह-वगैरह). कई दूसरे देशों की तरह भारत में भी वाजिब दलील यह थी कि बहुत सारी छोटी एयरलाइनों (उन दिनों भारत में कई थीं) के पास बड़े बेड़े रखने की पूंजी नहीं होगी, इसलिए बेहतर है कि सरकारी समर्थन से एक या दो बड़ी एयरलाइन हो.
जिसे हम एयर इंडिया के ‘गौरव के दिन’ मानते हैं, वह राष्ट्रीयकरण के बाद आया. बोइंग 707 उड़ाने वाला यह एशिया में पहला एयरलाइन था और दूसरों के पहले इसने बोइंग 747 की उड़ान भी बड़े पैमाने पर भरी. एयर इंडिया की उड़ान के दौरान सर्विस और मार्केटिंग (1960 के दशक में वह दौर था जब ‘महाराजा’ दुनिया का सबसे जाना-पहचाना कॉरपोरेट शुभंकर हुआ करता था) की प्रतिष्ठा उसी दौर में मिली, जब वह सरकारी कंपनी था. ऐसी प्रतिष्ठा थी कि दूसरी एशियाई एयरलाइनें उसके मॉडल का नकल किया करती थीं और सिंगापुर एयरलाइंस ने मदद भी मांगी.
तब 1960 के दशक में भी भारतीय सार्वजनिक उपक्रमों के उम्दा होने की दुनिया में प्रतिष्ठा नहीं थी. तो, एयर इंडिया को ऐसा अंतरराष्ट्रीय सम्मान कैसे हासिल हुआ?
संक्षिप्त जवाब है: क्योंकि सरकार ने उसे अकेला छोड़ दिया था.
जेआरडी टाटा का ‘जुनून’
टाटा घराना एयर इंडिया के मालिक तो नहीं रह गया था, लेकिन जेआरडी टाटा उसके चेयरमैन बने रहे और एयरलाइन को चलाते रहे. उन्हें प्रधानमंत्रियों (जवहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी) का सम्मान हासिल था, कोई मंत्री या अफसर उनसे यह कहने की जुर्रत नहीं करता कि क्या करना है. जेआरडी टाटा का एयरलाइन से लगाव ऐसा था कि वे एयर इंडिया के लिए मुफ्त में काम करते रहे, हालांकि टाटा समूह में उनके आलोचक शिकायत करते थे कि वे एयर इंडिया पर बहुत सारा वक्त जाया करते हैं, जबकि उस कंपनी में टाटा की कोई हिस्सेदारी नहीं है. लेकिन टाटा का लगाव नहीं टूटा. एयर इंडिया उनका जुनून था और वे लोगों से कहा करते कि उसकी कामयाबी उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है.
हम अब भूल गए हैं कि जेआरडी और उनके विलक्षण मार्केटिंग सहयोगी बॉबी कूका कितने नए-नए विचारों के धनी थे. जिस दौर में दुनिया में बड़ी पश्चिमी एयरलाइनों का दबदबा था, उस दौर में एयर इंडिया को सबसे अलग दिखाने के तरीके ढूंढ निकाल लाए. जेआरडी का जुनून केबिन सर्विस भी था. जब वे खुद सफर करते, तो विमान में टहलकर यह देखते कि यात्री सुकून से तो हैं. अगर किसी ट्रे में मुख्य भोजन ज्यादा भर जाता, या कोई कांटा-चम्मच इधर-उधर हो जाता तो वे केबिन टीम की खटिया खड़ी कर देते.
लेकिन कूका और उन्हें यह भी एहसास था कि वे एयर इंडिया के एशियाई मूल को उसके फायदे में बदल सकते हैं. उन्होंने महाराजा जैसी सेवा का विचार आगे बढ़ाया (कूका ने महाराजा का ईजाद किया) और एशियाई हॉस्पीटालिटी की अवधारणा ईजाद किया.
इस विचार का सभी पूर्वी एशियाई एयरलाइनों ने (और बाद में होटल शृंखलाएं) नकल कीं. उन दिनों हर एयरलाइन एक ही तरह के विमान उड़ाया करती थीं और एक जैसा किराया लेती थीं (सभी किराए पर इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आइएटीए) का कड़ा नियंत्रण होता था). टाटा ने एयर इंडिया को दुनिया की सादी-सादी वनिला एयरलाइनों से हॉस्पीटालिटी के अपने अनोखे मॉडल से अलग पहचान बना डाली.
तो, गड़बड़ी कहां हुई? यह राजनीति थी.
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राजनीति की कीमत
मोराजी देसाई 1977 में प्रधानमंत्री बने और तय किया कि उन्हें जेआरडी और उनके तमाम काम से नफरत है. यात्रियों के लिए सम्मानजनक गाइड लिखने वाले बॉबी कूका को हटा दिया गया और गाइड को फेंक दिया गया. अगली बारी जेआरडी की थी और एयरलाइन को नेताओं और अफसरों के हाथों सौंप दिया गया. उसके बाद ही सडऩ शुरू हुई.
इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में लौटीं तो उनके पास यह सब बदलने का मौका था. लेकिन उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की. उन्होंने अपने पीए आर.के. धवन को एयर इंडिया का चेयरमैन चुनने की छूट दे दी. धवन ने वफादार (या चमचे) बैंकर रघु राज को चुना, जिन्हें भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाए जाने की उम्मीद थी लेकिन एयर इंडिया का पद राहत पैकेज की तरह मंजूर कर लिया.
तबसे एयर इंडिया की स्वायत्तता छिन गई. हर चीफ एक्जेक्यूटिव को अपने फैसलों की मंजूरी के लिए उड्डयन मंत्रालय के चक्कर काटने पड़ते. देखते-देखते अंतिम अधिकारी, मंत्री नहीं, बल्कि मंत्रालय का वह संयुक्त सचिव बन गया, जो एयर इंडिया का प्रभारी था.
इसके बावजूद बुनियादी प्रबंघन ढांचा मजबूत था और जब भी कोई ताकतवर चीफ एक्जेक्यूटिव बनता, एयरलाइन छलांग लेने लगती. राजन जेटली प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाक की बाल थे इसलिए वे कारगर साबित हुए. वाइ.सी. देवेश्वर को माधव राव सिंधिया आइटीसी से तोडक़र लाए और एयर इंडिया का चेयरमैन बना दिया. देवेश्वर ने एयरलाइन को इतनी अच्छी तरह से चलाया कि 1990 के दशक में एयर इंडिया ने हर रोज एक करोड़ रु. का मुनाफा कमा रही थी.
हालांकि शुरुआती कामयाबी जारी नहीं रह सकी. भारतीय प्रशासकीय सेवा ने तय किया कि एयर इंडिया के चीफ एक्जेक्यूटिव का पद काडर का है और उस पर बैठाने के लिए आइएएस अफसरों की तलाश होने लगी. जाहिरा वजहों से ही यह चल नहीं पाया. अपवाद यह भी हुआ कि कोई अफसर कारगर होता दिखा तो मंत्री (पी.सी. सेन) ने खुद उसे हटा दिया. एकाध विरले मौके पर एयर इंडिया का एक प्रोफेशनल (मसलन, माइकल मैसकरहंस) ऊंचे पद पर पहुंचा तो मंत्री ने उसे बेमतलब-से मामलों में फंसा दिया.
असली चुनौती
उसके साथ जो कुछ भी हुआ, उसे देखते हुए यह आश्चर्यजनक है कि एयर इंडिया बचा रहा.
दरअसल एयर इंडिया ने बेहद बुरा कामकाज नहीं दिखाया. इंडियन एयरलाइंस के साथ बेहद खराब तरीके से किया विलय ने एयरलाइन की दुर्दशा कर डाली. वह विमान खरीदने के लिए उठाए गए भारी-भरकम कर्ज के जाल में फंस गई. खाड़ी देशों की एयरलाइनों को सक्रिय शह से उसके यात्रियों का आधार टूट गया. फिर भी एयर इंडिया (मेरे जैसे) यात्रियों के लिए अपने मूल कर्मचारियों के हुनर की वजह से पसंदीदा बना रहा. ब्याज भुगतान को हटा दीजिए तो एयरलाइन कोई पैसा हजम करने वाला कारोबार नहीं, जैसा कि उसके आलोचक कहते हैं.
टाटा घराने ने कई फायदे से शुरुआत की है: उसे लोगों की भारी शुभकामना और प्रतिबद्ध कर्मचारी हासिल हैं. उन्हें उस एक बात से तो छुटकारा मिल गया है जिससे एयर इंडिया बर्बाद हुई और वह है मंत्रियों और अफसरों की दखलंदाजी. लेकिन शायद यह काफी न हो. जेआरडी के दौर में यह एयरलाइन इसलिए फली-फूली क्योंकि उन्होंने उसकी पहचान बनाई और उसकी भूमिका तय की. कोई महान एयरलाइन महज बस सेवा नहीं हो सकती. उसकी अहमियत कुछ और है. सिंगापुर एयरलाइंस की खासियत पूर्वी हॉस्पीटालिटी के साथ उम्दा उड़ान व्यवस्था है. वर्जिन बड़ों को अपनी ओर खींच लेगी क्योंकि रिचर्ड बै्रनसन की उसके साथ भावना जुड़ी है.
दूसरी ओर, बिना किसी खासियत वाली एयर इंडिया इकलौती नहीं है, टाटा की अपनी विस्तारा का भी कोई चरित्र नहीं है और जैसे-तैसे चल रही है.
शायद टाटा घराने को अपने भीतर झांकने की दरकार है. इस समूह के पास पहले ही भारत का सबसे प्रसिद्ध हॉस्पीटालिटी ब्राड द ताज है. शायद वे उसी दिशा में एयर इंडिया को ले जाना चाहें.
एयर इंडिया को चलाना मुश्किल नहीं है. उसे प्रासंगिक बनाना असली चुनौती है.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @virsanghvi .विचार निजी हैं)
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