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Monday, 23 December, 2024
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प्रचंड अब उड़ान भरने को तैनात, मगर हल्के लड़ाकू हेलिकॉप्टर को लेकर वर्षों पुरानी बहस थमी नहीं

वायु सेना के अभियानों में करीबी वायु सुरक्षा को कम अहमियत, थल सेना ने अपनी टुकडिय़ों की मदद के लिए लड़ाकू हेलिकॉप्टरों की मिल्कियत पर दावा ठोंका.

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अपनी उद्घाटन उड़ान से तकरीबन दशक भर बाद, हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड की डिजाइन और निर्माण वाले हल्के लड़ाकू हेलिकॉप्टर (एलएचसी) को भारतीय वायु सेना के जोधपुर स्थित 143 हेलिकॉप्टर यूनिट में शामिल कर लिया गया. प्रचंड नाम के इस गजब एलएचसी को पहले नवंबर 2021 में उत्तर प्रदेश के झांसी में वायु सेना को ‘सौंपा’ गया था. उसे वायु सेना को प्रधानमंत्री ने ‘सौंपा’, जबकि जोधपुर में उसकी तैनाती का कार्यक्रम रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में संपन्न हुआ.

सौंपने/तैनाती के दोहरे कार्यक्रम से लड़ाकू हेलिकॉप्टरों को लेकर वर्षों पुरानी बहस का जवाब नहीं मिला कि उसकी मिल्कियत किसके पास है? सैन्य विमानन से संबंधित भारत मेें यह विवाद सबसे लंबा है. भारतीय वायु सेना में 1984 में पहली बार एमआइ-25 अकबर लड़ाकू हेलिकॉप्टर की तैनाती के समय से ही उसकी मिल्कियत को लेकर थल और वायु सेना में विवाद जारी है. दूसरे देशों में यह विवाद काफी पहले सुलझ गया, लेकिन भारत में मिल्कियत को लेकर दुविधा बनी हुई है और इसका अंत दूर तक नजर नहीं आता. प्रचंड के लिए पेश किए गए ऑर्डर भी इस दोहरेपन का गवाह है.

लड़ाकू हेलिकॉप्टर और उनकी ‘तैनाती’

सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 30 मार्च 2022 को 15 एलएचसी खरीद की मंजूरी दी और उनमें दस वायु सेना और पांच सेना के लिए. लिमिटेड सीरिज प्रोडक्शन होने से एलसीएच प्रचंड अपने नाम उतना खारा नहीं उतरता, क्योंकि उसमें बेहद अहम हथियारों और बचाव तंत्र का अभाव है. फिर भी, अभी वक्त है कि उसे अभियान की जरूरतों के मुताबिक अपग्रेड किया जा सके और अपने नाम के मुताबिक दहशत पैदा कर सके. यही नहीं, सैन्य विमानन हलके में उठते रहे सवालों के समाधान के लिए भी काफी समय है. मसलन, लड़ाकू हेलिकॉप्टर के अभियान, उनकी तैनाती की प्रकृति का मकसद क्या है और आखिर में उसके कमांड और कंट्रोल से जुड़े मुद्दे हैं. विवाद की जड़ में यह है कि लड़ाकू हेलिकॉप्टरों को कैसे तैनात किया जाए.


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अभियानों के सभी पहलुओं को समेटने वाले युद्ध लडऩे की कोडिफाइड डॉक्ट्रीन के अभाव का मतलब है कि लड़ाकू प्लेटफॉर्म की खरीद में दशकों से एडहॉक व्यवस्था चल रही है. बेशक, इसकी मुख्य मिसाल ऐसे वक्त में एसयू-30 विमानों की खरीद है, जब वायु सेना के पास कोई डॉक्ट्रीन नहीं थी और दो-सीट वाले लड़ाकू विमान तो नहीं ही थे. जब पायलटों का टोटा भारी हो, तब एक विमान में दो को बैठाना समझदारी नहीं है और वह आज भी कायम है, जबकि विमान में क्षमता है. कार्यपालिक के स्तर पर जानकारी के अभाव से ही ऐसे फैसले होते हैं, और एलएचसी उसी अज्ञानता की दूसरी मिसाल है. यह सिर्फ मिल्कियत का सवाल नहीं है कि दो में बांटा जाए या एक रहे, बल्कि लड़ाकू हेलिकॉप्टर के अभियान की अहमियत को समझने का सवाल है.

हेलिकॉप्टर का इजाद थल सेना नेतृत्व के इस दबाव की वजह से हुआ था कि जमीन पर लड़ रहे जवानों के लिए करीबी वायु मदद व्यवस्था की दरकार है. अधिक तेजी और निशाने पर सीमित समय वाले लड़ाकू विमान जमीन पर लडऩे वालों के ज्यादा काम के न थे. वह मददगार भूमिका हेलिकॉप्टरों ने निभाई, जिन्हें धीरे-धीरे अस्त्र-शस्त्र से लैस किया गया. जब लड़ाई की प्रकृति बदल गई और नतीजतन युद्ध रणनीति की डॉक्ट्रीन का इजाद हुआ, लड़ाकू और हमलावर हेलिकॉटरों को तैनात किया जाने लगा. समय के साथ, उसे उड़ते टैंक से लेकर गनशिप कहा जाने लगा, क्योंकि जमीनी अभियान में उनकी उपयोगिता काफी थी.

थल सेना का मामला

तीन महादेशों में उस पुराने एमआइ-25 हेलिकॉप्टर ने टैंकों और दूसरे महत्व के निशानों को तबाह किया. मसलन, उसमें आठ जवान भी जा सकते है. ऐसी बहुआयामी भूमिका की वजह से थल सेना नेतृत्व ने उसकी मिल्कियत पर दबाव बढ़ाया.

दुनिया भर में वायु सेना के अभियानों में करीबी वायु मदद की अहमियत कम है, इसलिए थल सेनाओं ने अपने जवानों की मदद के लिए लड़ाकू हेलिकॉप्टरों की मिल्कियत हथिया ली है. मकसद यह है कि जमीन पर आगे बढ़ रहे जवानों वायु रक्षा कवच मुहैया कराया जाए, ताकि बखतरबंद गाडिय़ों, पिल बॉक्स और दूसरी रुकावटों को निबटाया जा सके. वायु रक्षा कवच का भरोसा उसके डैनों पर वर्दी का रंग देखकर पैदा होता है. इसलिए 15 एलएचसी का बंटवारा सैन्य तर्क और समझदारी के उलट है. जैसा पहले अपाचे खरीद के वक्त टंटा खड़ा हुआ था, उसी तरह इस बार भी यह विवाद का मुद्दा है.
जमीन पर टैंकों और दूसरे निशानों को बर्बाद करने में लड़ाकू विमानों का मुकाबला जुड़े पंखों वाले एकमात्र विमान ए-10 ने पहले खाड़ी युद्ध के दौरान किया था. अगर कभी परंपरागत युद्ध हुआ तो कमोवेश वैसे ही इलाका का सामना भारत को करना पड़ सकता है. दुनिया में किसी भी वायु सेना के पास वैसी विमानन सुविधा नहीं है, लेकिन वह धीमा, बदसूरत और अपने आर्मर प्लेटिंग की वजह से भारी है. हवा में सुपिरियारिटी के मद्देनजर भारत में उसका कोई लिवाला नहीं है. सेना के योजनाकार नहीं कहेंगे कि आखिरकार वायु सुपिरियारिटी यही है कि आपका अपना सैनिक दुश्मन के एयरफिल्ड पर काबिज है.

मानवेंद्र सिंह एक कांग्रेस नेता, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट के प्रधान संपादक, और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति, राजस्थान के अध्यक्ष हैं. वो @ManvendraJasol.पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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