अग्निपथ योजना का विरोध अब शांत हो चुका है और युवा लोग सेना में अस्थायी नौकरी की इस योजना के लिए अर्जियां भेजने में जुट गए हैं, शायद इसलिए कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. यह वास्तव में सरकारी नौकरियों में स्थायी, अनुबंधी और दिहाड़ी कर्मचारियों के वर्गीकरण को दर्शाता है. पहले वर्ग को बाकी दो वर्गों की तुलना में ज्यादा वेतन मिलता है और (अधिकतर स्तरों पर) बाजार में मिल रहे वेतन से भी बेहतर वेतन मिलता है. जिस तरह पानी अपना स्तर तलाश लेता है, सरकार और उसकी एजेंसियों ने कम खर्चीले दो वर्गों में नियुक्ति देने पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है. जो लोग इस सबको समझना चाहते हैं वे ‘नेटफ्लिक्स’ की हास्य हिंदी फिल्म ‘ईब आले ऊ’ देखें.
बढ़ता वित्तीय दबाव दो और तरीकों से उजागर हुआ है. एक तो यह कि खाली पदों को भरा ही न जाए, जिससे (उदाहरण के लिए) डाक व्यवस्था प्रभावित हो रही है. दूसरा तरीका यह है कि सरकारी कर्मचारियों को महीनों तक वेतन ही नहीं दिया जाता, चाहे वे स्कूल टीचर हों, सफाई कर्मचारी, आशा वर्कर हों. बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों के लिए महीने के अंत में वेतन मिलने की गारंटी नहीं रह गई है.
यानी वे दिन गए जब सरकार या सरकारी उपक्रमों का कर्मचारी होना आदर्श माना जाता था. निजी क्षेत्र में वेतन देने पर नियोक्ता के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है लेकिन वेतन से वंचित सरकारी कर्मचारी मुकदमा दायर करते हैं तब उनके बड़े अधिकारी बस यह कहकर जजों को निराश कर देते हैं कि उन्हें पैसा उपलब्ध नहीं कराया गया.
अनुबंधी और दिहाड़ी कर्मचारियों के लिए तो यह जले पर नमक छिड़कने जैसा है क्योंकि उन्हें दशक बीतने पर गठित वेतन आयोग से कोई लाभ नहीं मिलता, जिसने पांच साल पहले न्यूनतम वेतन 18,000 रु. प्रति माह तय किया था. यह न्यूनतम राशि भी देश के अधिकतर कामगारों को नहीं मिलती. स्थायी कर्मचारियों को न केवल वेतन बल्कि हाउसिंग भत्ता मिलता है और महंगाई भत्ते के साथ नौकरी की सुरक्षा भी हासिल होती है. पेंशन और आजीवन मेडिकल सुविधा भी मिलती है. ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के फैसले ने हालत और बिगाड़ दी. इसने सेनाओं में पेंशन बिल को बढ़ा दिया. इसलिए, जिस दौर में सेना में वेतन का बिल दोगुना हुआ, उसमें पेंशन बिल तिगुना बढ़ गया.
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सरकार और संबद्ध संस्थाओं ने स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति दो कारणों से बंद कर दी है. एक कारण तो खर्चा है और दूसरा कारण है उत्पादकता. अच्छे काम के लिए कोई पुरस्कार योजना न होने के कारण काम करने का प्रोत्साहन नहीं रह गया है. इसके साथ ही वैधानिक प्रावधानों के कारण दंड देना भी मुश्किल हो गया है. देखा गया है कि अच्छा वेतन पाने वाले शिक्षक प्रायः थोड़े पैसे देकर अपनी जगह किसी और को पढ़ाने के लिए भेज दिया करते हैं और खुद घर बैठे रहते हैं. और दफ्तरों के कर्मचारी खुद तय कर लेते हैं कि एक दिन में वे कितने पत्र रवाना करेंगे.
अनुबंधी कर्मचारियों की संख्या चार साल में दोगुनी बढ़कर 24.3 लाख हो गई है. और सरकारी रोजगार में उनका हिस्सा काफी बढ़ गया है. वास्तव में, ‘अग्निपथ’ योजना लागत वाले तर्क का सेना में विस्तार है, यह ‘वन रैंक, वन पेंशन’ का जवाब है. कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक निष्फल आदेश दिया था कि वेतन और दूसरे भत्तों के मामले में स्थायी और अनुबंधी कर्मचारियों के बीच कोई भेद नहीं किया जाए. रेलवे शायद एकमात्र महकमा है जिसने इस मसले का जायजा लेने के लिए एक पोर्टल बनाया है. बाकी सरकारी महकमों के लिए इस आदेश का कोई अर्थ नहीं है. वेतन में तीखा भेदभाव आम बात है.
यह भेदभाव जाने वाला नहीं है, खासकर इसलिए कि एक श्रम कानून अनुबंध पर नौकरी देने को बढ़ावा देता है (हालांकि दूसरा कानून असंगठित और ‘गिग’ कामगारों के लिए कई सुविधाएं घोषित करता है, जिस पर भरोसा नहीं जमता). वेतन आयोगों से यह कहना भी संभव नहीं लगता कि वे वेतन को कम-से-कम बाजार के स्तरों के अनुरूप करने की व्यवस्था करें. एक समाधान यह हो सकता है कि स्थायी नौकरी को खत्म ही कर दिया जाए. कुछ नहीं तो इससे जवाबदेही बढ़ जाएगी. सुधार कितना कठिन है यह इसी से पता चलता है कि कुछ राज्य सरकारों को एक टिकाऊ, योगदान आधारित पेंशन व्यवस्था से निर्धारित लाभ योजना (जिसे टिकाऊ न होने के कारण रद्द कर दिया गया था) में बदलने में कितनी मुश्किल हुई थी. बहुत पहले, मंकूर ओलसों चेतवानी दे चुके हैं कि निहित स्वार्थ वाले गुट मनमानी कर सकते हैं.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)
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