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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतकोई बूथ कैप्चर नहीं, ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं- पुलवामा के बाद कैसे चुनाव कब्जे़ की है तैयारी

कोई बूथ कैप्चर नहीं, ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं- पुलवामा के बाद कैसे चुनाव कब्जे़ की है तैयारी

जैसे जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं एक बात साफ होती जा रही है : यह जनादेश में सेंधमारी नहीं बल्कि दिन-दहाड़े की जाने वाली डकैती है.

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चुनाव की चलती होड़ के कथानक में ढेर से उतार और चढ़ाव आते हैं लेकिन पुलवामा की घटना के बाद चुनावी तस्वीर पर जो भगवा रंग चढ़ रहा है उसकी तुलना ऐसे उतार-चढ़ाव से नहीं की जा सकती. यह चुनाव की पिच पर टप्पा खाकर फिरकी लेती वैसी कोई ‘लेट स्विंग’ गेंद नहीं जिसे फेंकने में मोदी को महारत हासिल है. पुराने वक्त में मतदान केंद्रों पर बाहुबली कब्जा कर लेते थे.

यह कब्ज़ा मुकामी होता था, उसमें लाठी-बंदूक का सहारा लिया जाता था. लेकिन, इस बार चुनाव पर कब्जा करने की जो जुगत लगायी गई है वह एकदम ही अलग है- यह ना तो मुकामी है और ना ही इसमें लाठी-बंदूक जैसे खून-खराबे के साधनों का सहारा लिया गया है. जुगत यह लगायी गई है कि लोगों के दिमाग पर कब्जा कर लिया जाय, जो जहां है वहीं पर अपनी सुध-बुध गंवा बैठे.

जैसे जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं एक बात साफ होती जा रही है : यह जनादेश में सेंधमारी नहीं बल्कि दिन-दहाड़े की जाने वाली डकैती है.

लोकतांत्रिक सिस्टम को तथाकथित लोकतांत्रिक तरीके से विनाश करने की कोशिश हो रही है. बिना किसी खास चॉइस वाले इस चुनाव पर कब्ज़ा करना भारत पर कब्ज़ा करने का पहला कदम है. जिसे मैने पहले भारतीय गणतंत्र के टुकड़े टुकड़े कराना कहा था. इस चुनावी कब्ज़े को समझना और उसे रुकवाना किसी राष्ट्रवादी कर्म से कम नहीं है.

चुनाव पर हुए इस कब्जे में वे सारे लक्षण मौजूद हैं जो 21 वीं सदी के किसी अभियान में दिखायी पड़ते हैं. इस चुनावी कब्जे में बाहुबल का सहारा नहीं लिया गया- वो तो पुराने दिनों की बात हुई जब मतदान केंद्रों पर कब्जे का चलन था. जोर-जबर्दस्ती करने की जरुरत हुई तो वह सीधे-सीधे ना किया जायेगा बल्कि उसके लिए राजसत्ता का दुरुपयोग का तरीका अपनाया जायेगा.


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चुनावों में हेर-फेर करने के लिए ईवीएम में सेंधमारी करने की ज़रुरत नहीं रही. बीजेपी के पास संगठन की बनी-बनायी मशीनरी है और यह मशीनरी प्रबंधन युक्तियों के सहारे लोगों की भेड़-कतार खड़ी करके यह काम बाआसानी कर दिखायेगी. धनबल भी पुरज़ोर है, वह भी अपना रंग दिखाएगा.

इसके लिए इलेक्टोरल बांड के वैधानिक लेन-देन का रास्ता खुला रखा गया है. और, फिर पिछले पांच सालों में मीडिया को भी कई तरीके से पटखनी दी गई है- कभी तो उसे सीधे-सीधे अपनी ताबेदारी के काम पर बहाल कर लिया गया तो कभी उसकी जेब गर्म की गई है. और, इससे बात नहीं बनी तो कभी बहला-फुसलाकर, डरा-धमकाकर या फिर सीधे-सीधे हाथ मरोड़कर घुटने टेकने पर मजबूर किया गया है. चुनावे पर कब्जे के इस अभियान के केंद्र में है आधुनिक युग का एक करिश्माई नेता- एक भीड़-भड़काऊ जुमलेबाज जो शालीनता के तमाम तकाजों और सच को साबित करने की सारी अर्जियों को खारिज करते दंभ के साथ खड़ा है.

चुनाव पर कब्ज़ा करने की इन तैयारियों के बावजूद बीजेपी के मिशन 2019 की राह में एक अड़चन थी- दरअसल, जनमत उसके आड़े आ रहा था. पिछले एक साल से बल्कि ठीक-ठीक कहें तो बीते दिसंबर माह से सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेज़ी से गिरा था.

सभी तो नहीं मगर बहुत से राजनीतिक पर्यवेक्षक मेरी इस बात से सहमत थे कि सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में कम से कम 100 सीटों का घाटा होने जा रहा है और पार्टी सरकार बनाने के लिए ज़रुरी सीटों के न्यूनतम आंकड़े तक नहीं पहुंच पायेगी. तो कुछ धमाकेदार कर दिखाना ज़रुरी था ताकि हाथ से फिसलते जा रहे चुनावी कथानक को फिर से अपने काबू में किया जा सके.

और, हैरत कीजिए कि ऐन इसी वक्त पर पुलवामा में आतंकी हमला होता है. हम जानते हैं कि जैश-ए-मोहम्मद ने इस आतंकी घटना की ज़िम्मेवारी ली. लेकिन हमें ये बात कभी पता नहीं चल सकती कि पुलवामा की घटना का खाका किसने खींचा, किस मकसद से इस घटना को अंजाम दिया गया. हमलोग बस इतना भर जानते हैं कि अंदेशा बना हुआ था- लग रहा था कि बड़े दांव वाले इस चुनाव की गाड़ी को पटरी से उतारने के लिए पुलवामा जैसी कोई घटना हो सकती है! और, अंदेशा सही निकला- घटना होकर रही. बिल्ली ताक में खड़ी थी और उसके भाग्य से ऐन मौके पर छींका टूट पड़ा था. सत्तापक्ष को एक बना-बनाया मौका हाथ लगा- उसने लोगों का ध्यान किसान और नौजवान के मुद्दे से अलग मोड़ दिया.

इसके बाद के वक्त में बीजेपी ने जो खेल किया है, उसे चंद शब्दों में कुछ यों बांधा जा सकता है: हाथ में मौजूद तमाम साधनों के सहारे मीडिया का रुख राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया गया. मीडिया को गिनती के दो-चार तथ्य थमाये गये मगर अंजुरी भर प्रोपेगंडा और थाली भर झूठ परोस दिया गया! फिर कहानी को फिरकी देकर मनचाही शक्ल देने की कला के उस्तादों के बूते लोगों के सामने ये जताया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मालिकाना हक सिर्फ बीजेपी का है. और, इसके बाद बड़े आक्रामक तरीके से संगठन-बल और प्रबंधन की युक्तियों का सहारा लेते हुये हौव्वा कुछ इस तरह का खड़ा किया गया कि वोट सत्ताधारी पार्टी की झोली में आ गिरें.

पुलवामा की घटना के बाद मोदी-राज का मीडिया पर नियंत्रण नई उंचाइयां फलांग रहा है. राष्ट्र की सुरक्षा का सवाल और जंग का सा माहौल लोगों के भीतर सत्तापक्ष के लिए मंजूरी के भाव जगा रहा है, लोग अपने मन की बात कहने से पहले अपनी ही जीभ पर दांत चुभोकर खुद को याद दिलाने लगे हैं कि ऐसे माहौल में कुछ कहना ठीक होगा या नहीं. और, इन सबके साथ-साथ पहले से चली आ रही तैयारियां तो अपनी जगह मौजूद हैं ही: विज्ञापन है, मीडिया-मालिकान की बांह मरोड़ने की कवायदें हैं, पार्टी की खींची हुई लकीर से अलग चलने वाले पत्रकारों को सबक सिखाने के लिए विषैली फुंफकार छोड़ने वाली ट्रोल्स की सर्प-सेना है ! चंद गिनती के अपवाद छोड़ दें तो फिर मीडिया के उस कटखने हिस्से को भी अब नख-दंत विहीन कर दिया गया है जिसने कल तक सत्तापक्ष के लिए अपने आलोचनात्मक तेवर कायम कर रखे थे.

ऐसे माहौल में, बीजेपी के कथाफरोश कलावंत(स्पिन डाक्टर्स) ने तर्क की एक ऊंची छलांग लगायी और एक करिश्मा कर दिखाया : सशस्त्र सैन्य-बल को आलोचना से परे रखने का रिवाज चलता आया है. इन कथाफरोश कलावंतों ने कुछ ऐसी युक्ति भिड़ायी की आप सरकार को ही सेना समझ बैठें, ये मान लें कि सेना और सरकार में कोई फर्क नहीं, सोच लें कि जैसे सेना आलोचना से परे है वैसे ही सरकार भी अपने किसी कृत्य के लिए आलोचना से परे है.

ये करिश्मा हुआ तर्कों के चतुराई भरे घालमेल से. युद्ध के माहौल में, राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा नुक्ताचीनी की कम मांग करता है, राष्ट्रीय सुरक्षा के किसी सवाल पर सोलह आना टंच प्रमाण देने की जरुरत नहीं रह जाती. यह एक विशेष स्थिति है और इस स्थिति-विशेष के लिए जरुरी होता है कि हर कोई राष्ट्रीय सर्वसहमति के तर्क से अपने को बांध ले : कोई किसी पर दोषारोपण ना करे, एकतरफा श्रेय लेने के लोभ का संवरण करे. लेकिन, चुनावी होड़ के नियम एकदम ही अलग हैं.

चुनाव होड़ का नियम है कि एक पक्ष कोई दावा पेश करता है तो उसके मुकाबिल खड़े तमाम पक्ष उस दावे की अधिक से अधिक परीक्षा करें, उस दावे की जनता के चौपाल में खूब मीन-मेख निकाली जाये, बेदर्दी से परीक्षा ली जाय. पुलवामा की घटना के बाद बीजेपी ने युद्ध-काल में अपनायी जाने वाली नैतिकता को चुनाव मैदान की नैतिकता में तब्दील कर दिया. अपवाद बस इतना भर रखा कि सारे संयम का परिचय सिर्फ विपक्ष को देना था- सत्तापक्ष को जरा भी नहीं.

बीजेपी के हाथों गढ़ी गई इस नैतिकता का तकाजा है कि प्रधानमंत्री अपनी मर्जी के हिसाब से सेना के दिखाये पराक्रम का श्रेय लूटते रहें, उसे बेखटके अपनी और अपनी पार्टी की उपलब्धि बताते रहें और विपक्ष संयम का पालन करता हुआ गांधीजी के बंदरों सरीखा चुपचाप बैठा रहे. चुनाव-अभियान के दौरान मोदी-राज को बढ़त हासिल है, वह सेना के पराक्रम का श्रेय लूट रही है और साथ में यह भी कह रही है कि कोई इसपर सवाल ना उठाये. इसे कहते हैं तर्कों का शीर्षासन कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर बाकी कोई भी राजनीति ना करे, एक सत्ताधारी पार्टी को छोड़कर !

अगले दो माह में हम चुनाव पर कब्जा करने के लिए चल रहे अभियान को और भी आक्रामक तेवर अपनाता देखेंगे. अभियान इस ‘जमीं से आसमां तक मैं ही मैं हूं दूसरा कोई नहीं’ की टेक पर चलाया जायेगा. इसकी एक झलक हम देख चुके हैं : चुनाव का मंच शहीद जवानों की तस्वीर रखकर सजाया जा रहा है, पोस्टर पर रायफल और विमान उकेरे जा रहे हैं और राजनेता सैनिकों का बाना धारण करते नजर आ रहे हैं.

आगे मंज़र और भी संगीन होगा : चुनाव-प्रचार पर युद्ध का उन्माद चढ़ाया जायेगा, मीडिया पर दवाब पहले से ज्यादा बढ़ा दिया जायेगा, जो असहमति की आवाज में बोलेंगे उनकी जुबान पर ताले जड़ने की कोशिश होगी. चुनाव के मैदान में होने वाले कदाचार को बर्दाश्त करने की अपनी सीमा चुनाव आयोग लगातार बढ़ाता आया है- मुमकिन है उसे इस बार फिर से इस सीमा का विस्तार करना पड़े. हो सकता है, ऐन मतदान के दिन ही फिर से कोई धावा बोला जाय या फिर बड़े पैमाने पर दंगा फैलाने की जुगत लगायी जाय. सुरक्षा को देश के बाहर और भीतर से खतरा है- इस एक बात पर से लोगों का ध्यान जरा भी डोलने नहीं दिया जायेगा- चाहे इसके लिए जो भी साधन अपनाने पड़ें!


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इस तमाम कोशिशों का नतीजा आखिर को क्या निकलेगा- इसके बारे में अभी से अनुमान लगाना जल्दबाज़ी कहलायेगा. वक्त के इस मुकाम पर खड़े होकर देखने पर यह तो नहीं लगता कि वर्ग, जाति और प्रांत के भेदों को एकसार करती वैसी कोई लहर चल रही है जैसी कि 2014 में चली थी. यह सोचना भी बेमानी है कि अभी जैसा सियासी माहौल उठ खड़ा हुआ है उसका तमिलनाडु या आंध्रप्रदेश के चुनावी नतीजों पर कोई असर पड़ेगा.

चुनाव को मुट्ठी में करने का यह अभियान सिर्फ और सिर्फ हिन्दी-पट्टी को ध्यान में रखकर चलाया गया है. हां, इसका हल्का-फुल्का असर महाराष्ट्र, गुजरात और संभवतया ओड़िशा तथा बंगाल पर भी पड़ सकता है. मकसद ये है कि किसी भी तरह 2 से 5 फीसद वोट बीजेपी की तरफ मोड़े जा सकें ताकि सत्ताधारी पार्टी को हासिल होने जा रही सीटों में 25 से 50 सीट और ज़्यादा बढ़ जायें. बढ़ी हुई सीटों की इस तादाद के सहारे सत्ताधारी पार्टी के लिए फिर से सरकार बना लेना मुमकिन हो जायेगा.

चुनाव पर कब्ज़ा करने के इस अभियान को देख जो लोग बेचैन हो रहे हैं उन्हें एक बात गांठ बांध लेनी चाहिए: इस स्थिति के लिए कोई और नहीं बल्कि सिर्फ हमीं दोषी हैं. विचारधारा के मोर्चे पर हाथ-पैर ढीले छोड़कर रहते हुये हम सब के अब पचास साल पूरे हो रहे हैं, बरसों से संस्थाओं की उपेक्षा की गई है और सियासत के मोर्चे पर आलसीपने से काम लिया गया. इन बातों के कारण ही आज नौबत यह आन पड़ी है कि लोकतंत्र के साधनों के सहारे लोकतंत्र को ही मुट्ठी में करने का अभियान चलाना मुमकिन हो गया है.

सत्ता पर कब्ज़े के इस अभियान का विरोध करना और रोकना आज उन सब लोगों के लिए आपद्धर्म के रुप में पहला कर्तव्य बन चला है जो ‘भारत’ नाम के विचार के अपने को वारिस समझते हैं!

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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