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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतसंशोधित नागरिकता कानून लागू होने के डेढ़ साल बाद भी किसी को नहीं मिली इससे भारत की नागरिकता

संशोधित नागरिकता कानून लागू होने के डेढ़ साल बाद भी किसी को नहीं मिली इससे भारत की नागरिकता

नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के तहत सरकार ने अभी तक किसी भी अल्पसंख्यक शरणार्थी को भारत की नागरिकता प्रदान नहीं की है क्योंकि इसके लिये जरूरी नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया जा सका है.

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ऐसा लगता है कि नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देश में उठे राजनीतिक बवंडर के कारण सरकार अब इस कानून के तहत बांग्लादेश पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता प्रदान करने की जल्दी में नहीं है.

एक ओर इस कानून पर अमल के लिये जरूरी नियमों को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है तो दूसरी ओर, नागरिकता संशोधन कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली तमाम याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय में संविधान पीठ को सुनवाई करनी थी लेकिन कोरोना संक्रमण ने सारे कार्यक्रम अस्त व्यस्त कर दिए.


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पड़ोसी देशों से आए अल्पसंख्यकों को दी जानी है नागरिकता

नरेन्द्र मोदी सरकार ने पश्चिम बंगाल और असम विधान सभा के चुनावों से पहले पड़ोसी देशों से भारत में आए अल्पसंख्यकों की स्थिति को प्रमुख मुद्दा बनाया था. इन अल्पसंख्यक प्रवासियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने के लिए संसद ने 11 दिसंबर, 2019 को नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया था लेकिन अब ऐसा लगता है कि इन अल्पसंख्यक शरणार्थियों का मुद्दा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले उठेगा और तब तक इस कानून के नियमों को अंतिम रूप दिया जा चुका होगा.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी 12 दिसंबर को संशोधित नागरिकता कानून को अपनी संस्तुति प्रदान कर दी और गृह मंत्रालय ने राजपत्र के माध्यम से एक अधिसूचना जारी करके 10 जनवरी, 2020 से इस कानून को देश में लागू कर दिया.

इसके बावजूद इस विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के तहत सरकार ने अभी तक किसी भी अल्पसंख्यक शरणार्थी को भारत की नागरिकता प्रदान नहीं की है क्योंकि इसके लिये जरूरी नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया जा सका है. इस कानून के तहत नियम बनाने के मामले में सरकार की ढिलाई काफी कुछ बयां करती है.

नागरिकता संशोधन कानून के तहत 31 दिसंबर, 2014 तक बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के शरणार्थियों के लिए नागरिकता के नियमों को आसान बनाया गया है. पहले किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिये कम से कम 11 साल से यहां रहना जरूरी था लेकिन इस संशोधन के बाद इस अवधि को एक साल से लेकर छह साल कर दिया गया है.

यह कानून लागू होने के बाद पड़ोसी देशों से भारत आए अल्पसंख्यक शरणार्थियों को उम्मीद थी कि अब उन्हें यहां की नागरिकता मिल जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि सरकार ने इस कानून के क्रियान्वयन के लिये आवश्यक नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया है.

संसदीय कामकाज की पुस्तिका के अनुसार संसद से पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने की तारीख से छह महीने के भीतर इसके नियम बन जाने चाहिए. ऐसा नहीं होने पर इस कार्य के लिए अधिक समय लेना चाहिए.

पिछले महीने ही इस कानून के लिए नियमों की जांच करने वाली अधीनस्थ कानून मामलों की संसद की स्थाई समिति का कार्यकाल पांचवी बार नौ जनवरी, 2022 तक करने का अनुरोध किया गया जो निश्चित ही हो जाएगा. मतलब अब जनवरी, 2022 तक तो पड़ोसी देशों से आए अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का मामला ठंडे बस्ते में ही रहेगा.

दिलचस्प तथ्य यह है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए अल्पसंख्यकों में से 4046 हिन्दुओं की नागरिकता के लिए आवेदन अभी भी विभिन्न राज्य सरकारों के पास लंबित हैं.

संसद को दी गयी जानकारी के अनुसार इस समय राजस्थान सरकार के पास 1,541, महाराष्ट्र सरकार के पास 849, गुजरात सरकार के पास 555, मध्य प्रदेश सरकार के पास 490, छत्तीसगढ़ सरकार के पास 268 और दिल्ली के पास 123 हिंदुओं के नागरिकता के लिए आवेदन लंबित हैं.

विदेशी नागरिकों को भारत की नागरिकता प्रदान करने के संबंध में सरकार ने संसद को बताया है कि 2016 से 2020 के दौरान 4,171 विदेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान की गयी है. सरकार ने 2016 में 1,105, 2017 में 814, 2018 में 628, 2019 में 986 और 2020 में 638 विदेशियों को भारत की नागरिकता प्राप्त की गयी.

सरकार ने यह भी बताया कि पांच साल में भारत की नागरिकता प्राप्त करने वालों में 1089 गुजरात में थे जबकि राजस्थान में इनकी संख्या 751, मध्य प्रदेश में 535, महाराष्ट्र में 446, हरियाणा में 303, दिल्ली में 301, पश्चिम बंगाल में 146, उत्तर प्रदेश में 145, उत्तराखंड में 75, तमिलनाडु में 73, कर्नाटक में 72 और केरल में 65 थी.


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धर्म के आधार पर भेदभाव की दलील

नागरिकता संशोधन विधेयक संसद से पारित होने और उसे राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के साथ ही इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक एक करके करीब 140 याचिकाएं दायर हो गयीं. याचिका दायर करने वालों में कांग्रेस के जयराम रमेश, राजद के मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, आईयूएमएल के असदुद्दीन ओवैसी, केरल सरकार, गैर सरकारी संगठन ‘रिहाई मंच’, ‘कैंपेन अगेंस्ट हेट’ और अधिवक्ता मनोहर लाल शर्मा और कानून की एक छात्र भी शामिल है.

इन याचिकाओं पर सुनवाई भी हुई लेकिन शीर्ष अदालत ने इस विवादास्पद कानून पर अंतरिम रोक लगाने से इंकार कर दिया. न्यायालय ने पिछले साल 22 जनवरी को ही इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान स्पष्ट कर दिया था कि केन्द्र सरकार का पक्ष सुने बगैर इन याचिकाओं पर कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया जायेगा.

इस कानून को चुनौती देते हुए दलील दी गयी है कि तीन देशों के बहुसंख्यकों अर्थात मुस्लिमों को इसमें शामिल नहीं किया गया है.यह धर्म के आधार पर भेदभाव करता है और इससे संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार, जाति, धर्म, वर्ण, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से संरक्षण, जीने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन होता है.

इसके जवाब में केन्द्र सरकार ने कहा है कि चीन के तिब्बती बौद्ध और श्रीलंका के तमिल हिन्दू भी इस संशोधित कानून के दायरे से बाहर हैं. केन्द्र सरकार का कहना है कि इन तीन पड़ोसी देशों में उत्पीड़न का शिकार हो रहे अल्पसंख्यकों के पास कोई अधिकार ही नहीं है और इस संशोधन के माध्यम से किसी के भी अधिकार छीने बगैर ही एक ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का प्रयास किया गया है.

उम्मीद थी कि संशोधित नागरिकता कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर शीघ्र सुनवाई होगी लेकिन कोविड-19 से फैली वैश्विक महामारी ने सभी कुछ गड़बड़ कर दिया. कोविड की वजह से न्यायालय इस समय वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई कर रहा है और इतने महत्वपूर्ण मामले में ऐसा करना व्यावहारिक नहीं है.

वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई में कई तरह की दिक्कतें हो सकती हैं. मसलन इस प्रकरण में करीब 144 याचिकाकर्ता हैं और इसके दस्तावेजों की फाइलें भी भारी-भरकम हैं. इन याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश होने वाले अधिवक्ताओं की संख्या भी दो सौ से ज्यादा है. ऐसी स्थिति में इनके लिए सारी व्यवस्था करना अपने आप में बड़ी चुनौती है.

फिलहाल तो ऐसा लगता है कि वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मुकदमों की सुनवाई की व्यवस्था के दौरान नागरिकता संशोधन कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने जैसे कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के लिए लंबा इंतजार करना होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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