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Friday, 1 November, 2024
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आरक्षण प्रणाली को लेकर उठ रही शिकायतों के बाद क्या इसकी व्यवस्था में सुधार की जरूरत है

समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की मदद करने के लिए उठाया गया कोई भी कदम नैतिक रूप से सही होता है, चाहे वह समानता के सिद्धांत के खिलाफ ही क्यों न हो.

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सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर हाल के दिनों में कई निर्णय दिए हैं और कई टिप्पणियां की हैं, जिसे लेकर बहस छिड़ गई है. ताजा टिप्पणी मेडिकल दाखिले में ओबीसी आरक्षण को लेकर है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. इससे पहले एससी-एसटी श्रेणी में क्रीमी लेयर पर कोर्ट बोल चुका है. इस बारे में चलने वाली बहस में एक बिंदु इसकी समीक्षा को लेकर है. वैसे आरक्षण की समीक्षा की बात तथाकथित उच्च जातियों की तरफ से होती रही है क्योंकि आरक्षण ने उनकी जन्मजात श्रेष्ठता भाव को चोट पहुंचाई है. उच्च जातियों की तरफ से आ रही आलोचना का लक्ष्य आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को खत्म करना है, बेशक वे आर्थिक आधार पर आरक्षण और गरीबों को न्याय आदि की बातें करते हैं.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से आरक्षण की समीक्षा की मांग आरक्षित वर्ग में शामिल कुछ जातियों की तरफ से भी आने लगी है, जिनकी शिकायत है कि उन्हें मौजूदा आरक्षण प्रणाली का लाभ नहीं मिल पा रहा है. इन जातियों को आरक्षित श्रेणी के अंदर की वंचित जातियों (अतिदलित और अतिपिछड़ा) के तौर पर पहचाना जा सकता है. ऐसे लोग जातिगत आरक्षण को जारी रखने का समर्थन तो करते हैं लेकिन उसमें कुछ सुधार भी चाहते हैं.

इस लेख में मौजूदा आरक्षण प्रणाली से इन वंचित जातियों की शिकायतों और संभावित समाधान पर चर्चा की जाएगी.

मौजूदा आरक्षण प्रणाली से वंचित जातियों की शिकायत

वंचित जातियों (अतिपिछड़ी और अतिदलित) की मौजूदा आरक्षण प्रणाली से मुख्य शिकायत यह है कि उनको आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि ओबीसी और एससी की सूची में शामिल बड़ी/मज़बूत जातियां आरक्षित कोटे की ज़्यादातर सीटें ले रही हैं. सुप्रीम कोर्ट जहां इनकी समस्या पर बात करने लगा है, वहीं नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में ही अति पिछड़ों की समस्या को सुलझाने के लिए जस्टिस रोहिणी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी थी, जिसका कार्यकाल कई बार बढ़ चुका है लेकिन उसकी अंतिम रिपोर्ट अब तक नहीं आयी है.

वंचित जातियों की शिकायतों के खिलाफ एससी और ओबीसी समूह की प्रभावशाली मानी जाने वाली जातियों का तर्क आता है कि आरक्षित सूची के अंदर वंचित समूह की बात करना फूट डालना है. दूसरी, इन जातियों को आरक्षण की सुविधा लेने के लिए अपने आप को काबिल बनाना चाहिए और तीसरा, आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व है.


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उपरोक्त तीनों तर्क मुझे खोखले दिखते हैं. पहला और दूसरा तर्क तो आरक्षण की अवधारणा को ख़ारिज करने के लिए उच्च जातियों द्वारा दिए जाने वाले तर्क से ही निकाला गया, जिसके तहत आरक्षण को हिंदू समाज में विभाजन पैदा करने वाला बताया जाता रहा है और दावा किया जाता है कि जिसके अंदर मेरिट होगी, वह अपना हिस्सा पा लेगा. आरक्षण को सिर्फ प्रतिनिधित्व के सिद्धांत से देखने का तीसरा तर्क भी कमज़ोर है. नौकरियों में आरक्षण को प्रतिनिधित्व का साधन कम, समाज में समता लाने के औज़ार के तौर पर ज़्यादा देखा जाना चाहिये.

आरक्षण में सुधार के लिए सुझाए जा रहे उपायों की पड़ताल

मौजूदा आरक्षण प्रणाली में सुधार के लिए चार प्रमुख उपाय सामने आते हैं. पहला, प्रभावशाली जातियों को आरक्षित सूची से हटाया जाए. दूसरा आरक्षित वर्ग की सूची का पुनर्गठन हो. तीसरा आरक्षित सूची में विभाजन हो और चौथा क्रीमी लेयर लागू किया जाए.

इन उपायों को सामाजिक न्याय के व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इनमें काफ़ी समस्या है. पहला उपाय किसी जाति में कुछ समर्थ लोगों/परिवारों के सबल हो जाने को पूरी जाति का सशक्त हो जाना मानने की गलती करता है, जबकि किसी भी जाति के अंदर मज़बूत परिवारों का अपना नेटवर्क होता है. कमज़ोर लोग/परिवार उस नेटवर्क से बाहर होते हैं. यह आरक्षित और अनारक्षित दोनों तरह की जातियों के लिए सच है.

दूसरा उपाय कुछ जातियों को एक सूची से निकाल कर दूसरी सूची में शामिल करने की बात करता है, जैसे कि उत्तर प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को एससी में शामिल करने की मांग चल रही है. सरकार ने इस दिशा में पहल भी की थी. इस समाधान से एक सूची में शामिल वंचितों की समस्या को हल करने के क्रम में दूसरी सूची के वंचितों को और भी नुकसान पहुंचा देने की संभावना बन जाती है. मिसाल के तौर पर वे 17 अति पिछड़ी जातियां अगर अनुसूचित जाति की सूची में आती हैं तो मुमकिन है कि अनुसूचित जाति के आरक्षण का ज्यादा लाभ वे ले जाएं.

तीसरा समाधान एससी और ओबीसी की सूची को विभाजित करने का है, जो कई राज्यों में ओबीसी के मामले में लागू भी है और कुछ हद तक बिहार और हरियाणा में एससी के मामले में लागू भी हुआ है लेकिन इन राज्यों का असंतोषजनक परिणाम इसकी कमियां उजागर करता है. दरअसल आरक्षित वर्ग को सीटें रोस्टर के आधार पर निर्धारित होती हैं, जिसकी वजह से आरक्षण सूची का विभाजन करने पर उनकी सीटों की संख्या काफी कम हो जाती है. रोस्टर प्रणाली को समझने पर यह पता चलता है कि आरक्षित वर्गों का जितना ज़्यादा विभाजन होगा, उनको उतनी ही कम सीटें मिलेंगी. जिन विभागों में सीटें कम होंगी वहां किसी भी आरक्षित वर्गों को कोई सीट ही नहीं मिलेगी.


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आरक्षण में सुधार के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा को अब तक सबसे कारगर उपाय के तौर पर देखा जाता है, जिसकी उत्पत्ति मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हुई है. अतिपिछड़ी जातियों द्वारा पिछड़े वर्ग के सूची में विभाजन की मांग यह बताने के लिए काफी है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा अपने उद्देश्य में फेल हो गयी है. इसके अलावा भी क्रीमी लेयर आरक्षण में सुधार का एक कारगर उपाय नहीं है क्योंकि पिछड़ापन निर्धारित करने के लिए वह आर्थिक सशक्तिकरण पर जोर देता है और समाज में लिंग, जाति, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर होने वाले भेदभाव की अनदेखी करता है. संसाधन सीमित होने पर परिवार के अंदर समान उम्र/टैलेंट के बेटा-बेटी के बीच भेदभाव हो जाता है. क्रीमी लेयर की अवधारणा इन पहलुओं पर गौर नहीं करती.

वंचितों की समस्या का संभावित समाधान

डेप्रीवेशन/इनइक्वेलिटी इंडेक्स: इस दिशा में फिलॉसफर जॉन रॉल्स का न्याय का सिद्धांत हमारी काफी कुछ मदद करता है, जो कहता है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की मदद करने के लिए उठाया गया कोई भी कदम नैतिक रूप से सही होता है, चाहे वह समानता के सिद्धांत के ख़िलाफ ही क्यों न हो. जॉन रॉल्स ने भले ही यह सिद्धांत 70 के दशक में दिया लेकिन उनसे बहुत पहले ही महात्मा गांधी ने ‘अपने जंतर’ में यही बात की थी कि ‘जब कभी हमें अपने कार्यों के बारे में कोई भी संशय हो तो अपनी ज़िंदगी में देखें और हमें सबसे कमज़ोर व्यक्ति के चेहरे को याद करके निर्णय लेना चाहिए कि क्या वह निर्णय उस व्यक्ति के ज़िंदगी में सुधार लाएगा या नहीं’.

गांधीजी की ही बात को दीनदयाल उपाध्याय ने अपने अंत्योदय के सिद्धांत से आगे बढ़ाया. बाबासाहेब आम्बेडकर भी आरक्षण की सीमा को पहचानते हुए कमज़ोर व्यक्तियों को ऊपर उठाने के लिए ‘पे बैक टू सोसाइटी’ की बात करते हैं.

उपरोक्त विचारकों की बातों से पता चलता है कि भारत की चिंतन परंपरा में सबसे कमज़ोर व्यक्तियों को ऊपर उठाने पर एक सहमति रही है. बस सहमति इस पर नहीं रही है कि सबसे कमज़ोर व्यक्ति को कैसे पहचाना जाए?


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समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति की पहचान के लिए सरकार को डेप्रिवेशन/इनइक्वेलिटी इंडेक्स बनाने की तरफ बढ़ना चाहिए, जिसके तहत अवसरों एवं नौकरियों का बंटवारा करते समय व्यक्ति के जेंडर, माता-पिता की शैक्षणिक/आर्थिक स्थिति, ग्रामीण-शहरी निवास, शिक्षा का माध्यम, स्कूल के सरकारी या प्राइवेट होने आदि को पैरामीटर बनाया जाना चाहिए. इस तरह की किसी नीति को लागू करने के लिए वर्तमान आरक्षण प्रणाली में किसी तरह के बुनियादी बदलाव की भी कोई ज़रूरत नहीं है.

इस इंडेक्स के आधार पर सरकार इस बात का आकलन कर पाएगी की हर श्रेणी में आरक्षण की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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2 टिप्पणी

  1. आरक्षण पाने वालों का एक चार्ट होना चाहिए।आजादी के बाद से आब तक 50 एकड जमीन का मालिक, या जिसका बाबा, पिता ,किसी भी विभाग अधिकारी रहा हो ।या मौजूद समय मैं सहरी क्षेत्र मैं एक एकड जमीन हो ,तो ऐसे लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

  2. सबसे बढ़िया जातिगत आबादी के अनुरूप आरक्षण दे दो ना रहेगी बांस और ना ही बजेगी बांसुरी झंझट ही खत्म इसके ऊपर कोई राजनीति भी नहीं कर पाएगा जैसी राजनीति कभी आरक्षण के ऊपर हो रही है आबादी के अनुरूप आरक्षण होनी चाहिए और इसके अलावा लोकसभा राज्यसभा विधानसभा विधान परिषद एवं अन्य नगर निकायों एवं पंचायती स्तर पर भी आबादी के अनुरूप आरक्षण होनी चाहिए संसद एवं विधान सभाओं के अंदर सभी वर्गों एवं जातियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए कम संख्या बल वाली कमजोर जातियों का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए मिलना चाहिये

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