अब जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपने दावे के मुताबिक एक पैर से बंगाल जीत लिया है और कह रही हैं कि उनके बंगाल ने भारत को बचा लिया है, बहुत स्वाभाविक है कि उनके दो पैरों से दिल्ली जीतने के दावे पर चर्चाएं हों. उन्होंने यह दावा राज्य में नंदीग्राम के सबसे विकट बताये जा रहे चुनावी संग्राम में गत 10 मार्च को अपने पैर में अचानक आई चोट के बाद किया था और हम जानते हैं कि वे ऐसे ऐलान करके भूल जाने वाली नेता नहीं हैं और जो भी फैसला कर लें, उसे अंजाम तक पहुंचाये बगैर आराम नहीं करतीं.
बहरहाल, आज की तारीख में उनके इस दावे से असहमति नहीं जताई जा सकती कि बंगाल की जनता ने भारत को बचा लिया है. क्योंकि अब किसी से भी छिपा नहीं कि अनेकता में एकता वाले भारत के विचार से भाजपा व नरेन्द्र मोदी सरकार, दूसरे शब्दों में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की दुश्मनी कितनी गहरी है. इस चुनाव में वे जीत जाते तो नि:स्संदेह उस भारत के भविष्य को लेकर नये और ज्यादा गम्भीर अंदेशे पैदा होते. फिर भी ममता अपनी जनता द्वारा इस भारत को बचाने की बात कहती हैं, तो लगता है महज अपने हिस्से का या कि अनुकूलित सच बोल रही हैं. सच यह है कि इस जनता ने जिस भाजपा से भारत को बचाया है, उसको पालने-पोसने में खुद ममता का भी कुछ कम योगदान नहीं है.
फिर भी उनकी जीत पर देश के गैरभाजपाई विपक्षी दलों, खासकर क्षत्रपों का गदगद होना अस्वाभाविक नहीं लगता. क्यों कि जब भाजपा ने सहयोगियों को निगलकर अपना विस्तार करने की पुरानी आदत के अनुसार उनके गले पर दबाव बढ़ाया तो उन्होंने बहादुरीपूर्वक उसका मुकाबला किया और सिद्ध करके मानीं कि वह सेर हैं तो वे सवा सेर हैं. या कि बंगाल की शेरनी की उनकी पुरानी पहचान यों ही नहीं बनी है.
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तभी तो भाजपा द्वारा अन्य राज्यों में आजमाई गई कुटिल चालों के आगे भी वे कमजोर नहीं पड़ीं और मोदी से भिड़ा दिये जाने पर भी दैन्य या पलायन का विकल्प नहीं चुना. उन्होंने यह भी साबित किया कि ‘महानायक’ नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और उनके सिपहसालार-ए-खास अमित शाह की ‘चाणक्य नीति’ उनकी राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की कितनी भी दुर्दशा कर सकती हो, उनके जैसे क्षत्रपों को परास्त नहीं कर सकती. इन दोनों ने उन्हें हराने के लिए चुनाव आयोग की पवित्रता और केन्द्रीय बलों की निष्पक्षता तक को दांव पर लगाया तो जवाब में उन्होंने भी कोई धर्मशील व सदाचार का रास्ता नहीं पकड़ा.
यह विश्वास करने के कारण हैं कि भाजपा उन्हें हरा देती तो अपनी जीत को क्षत्रपों पर विजय के अपने अभियान की निर्णायक सफलता की तरह प्रचारित करती. लेकिन उसके दुर्भाग्य से बंगाल के साथ आये चार अन्य राज्यों के चुनाव नतीजे भी, एक के बाद एक शिकस्तों से त्रस्त गैरकांग्रेसी विपक्षी दलों के लिए सुकून की खबरें लाये हैं. इस कदर कि भाजपा असम व पुंडुचेरी में अपनी जीत का जश्न भी नहीं मना पा रही. केरल में वामदलों ने अपनी सत्ता बचाकर इतिहास रच डाला है तो तमिलनाडु में द्रमुक ने अन्नाद्रमुक व भाजपा के गठबंधन की कलाइयां मरोड़कर उससे सत्ता छीन ली है.
निश्चित ही इससे उन राज्यों के क्षत्रपों को मनोवैानिक बढ़त मिलेगी, जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं.
लेकिन क्या कुछ आह्लादित विपक्षी नेताओं के इस कथन को इतने भर से ही प्रासंगिक बनाया जा सकता है कि देश का अगला प्रधानमंत्री बंगाल से आयेगा? ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि एक समय जब मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को लगभग ममता बनर्जी जैसी ही जीत हासिल हुई थी, इसी तरह कहा गया था कि देश का अगला प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश से आयेगा? लेकिन बाद में संभावनाओं ने किस तरह रुख बदल लिया और आज दिग्विजय सिंह कहां हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. तब के दिग्विजय और आज की ममता बनर्जी में इतना ही फर्क है कि दिग्विजय कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता थे, जो अनुकूल परिस्थितियों में एचडी देवगौड़ा या नरेन्द्र मोदी में बदल सकते थे, लेकिन ममता का क्षत्रपों में शुमार है. वे भूली नहीं होंगी, फिर से भाजपा की गोद में जा बैठने से पहले तक उनके पड़ोसी बिहार के क्षत्रप नीतीश कुमार को भी भावी प्रधानमंत्री की तरह देखने वालों की कमी नहीं थी, लेकिन हुआ क्या?
इसलिए यहां एक पल रुककर क्षत्रपों के अतीत व वर्तमान के आईने को सामने करें तो ममता से कोई नयी उम्मीद पालने से पहले थोड़ा वस्तुनिष्ठ हो जाने जरूरत की उपेक्षा नहीं कर सकते. यकीनन, पिछले वर्षों में कांग्रेस के ‘आत्मसमर्पण’ के बाद इन क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं और मौकापरस्ती ही भाजपा व नरेन्द्र मोदी सरकार के विश्वसनीय राष्ट्रीय विकल्प के निर्माण के सबसे ज्यादा आड़े आती रही है. मिसाल के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, मायावती व अजित सिंह का गठबंधन भाजपा को नहीं हरा पाया तो वे अलग-अलग होकर अपने-अपने खोल में दुबक गए और मायावती ने यहां तक घोषणा कर दी कि 2022 का विधानसभा चुनाव वे अकेले ही लड़ेंगी. क्षत्रपों के प्रभुत्व वाले दूसरे राज्यों में भी इस तरह की नजीरों की कमी नहीं है. ऐसे में उनके द्वारा किसी नये विकल्प का निर्माण कर उसमें लोगों का भरोसा कैसे जमाया जा सकता है?
इसलिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ममता आगे चलकर दूसरे क्षत्रपों से अलग सिद्ध होंगी? ठीक है कि वे बंगाल में बेहतर रणनीति अपनाकर अपनी पार्टी को जिता ले गई हैं और पूर्वोत्तर के द्वार बंगाल को भाजपा के लिए अभेद्य लौहदुर्ग में बदल देने का सारा श्रेय उन्हें ही जाता है. इतना ही नहीं, इससे राष्ट्रीय राजनीति में जो आलोड़न पैदा होगा, वह भाजपा की चिन्ताएं जरूर बढ़ायेगा. लेकिन अपने राज्य में भाजपा की अस्मिता व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करते हुए उन्होंने जिस तरह बंगाल की बेटी की अपनी छवि गढ़ी, ‘बाहरी’ का सवाल उठाया और जवाबी ध्रुवीकरण कराया, यहां तक कि चाणक्य नीति बरतकर वाम दलों के गठबंधन की घटक कांग्रेस से खुद को वाकओवर दिलाया, वह राष्ट्रीय राजनीति में उनकी सक्रियताओं व संभावनाओं के बहुत माफिक नहीं बैठने वाला. क्षत्रपों के बारे में इस पुरानी धारणा को भी वे शायद ही तोड़ पायें कि उन्हें अपने राज्यों के या अपने संकीर्ण राजनीतिक हित ही सर्वापरि दिखते हैं और वे राष्ट्रीय मुद्दों पर तर्कसंगत दृष्टिकोण नहीं अपना पाते.
सच्ची बात यह है कि आज कांग्रेस समेत खुद को भाजपा विरोधी कहने वाले प्रायः सारे राजनीतिक दलों की एक ही बड़ी मुश्किल है : वे भाजपा का वास्तविक या नीतिगत विपक्ष हैं ही नहीं और कई बार उसे उसके ही हथियारों से हराने की बेहिस कोशिशों में गच्चा खाकर और हताश हो जाते हैं. इसके उलट भाजपा अपने बेहतर प्रबंधन से उन्हें अपनी चालों में फंसा लेती और हरा देती है.
इस विपक्ष के लिए कभी इस तो कभी उस क्षत्रप में उम्मीदें तलाशने से बेहतर होगा कि वह नेताओं के बजाय नीतियों के आधार पर विपक्षी एकता की कोशिश करें. अन्यथा विपक्षी नेताओं के दूरगामी नीति व लक्ष्यहीन जमावड़े और बिखराव यह देश कई बार देख चुका है. समझ भी चुका है कि वे कोई नई राह बनाने को कौन कहे, पुरानी राहों पर भी लम्बी दूरी नहीं तय कर पाते. खुद ममता 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले विपक्षी एकता की नाकाम कोशिश कर चुकी हैं. कारण यह कि उनका अहं भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अहं से कम अस्वस्थ नहीं है. मोदी की ही तरह वे भी अपने विरोधियों को न भूलती हैं, न बख्शती हैं.
बंगाल विजय के बाद यह अहं और अस्वस्थ हुआ तो न कांग्रेस उन्हें विपक्षी एकता की धुरी बनने देगी, न वामदल, जो बंगाल में कितने भी कमजोर हो गये हों, शेष देश में पूरी तरह जनाधारहीन नहीं हुए हैं. तिस पर सारे क्षत्रपों में कांग्रेस के साथ को लेकर भी एक राय नहीं है. फिर 2024 के पहले सारे विपक्षी दलों के एक होने की उनकी अपील का हासिल क्या है?
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(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)