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Thursday, 25 April, 2024
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AFSPA पर जवानों की पत्नियों की SC में याचिका मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब, MoD और सेना में एक राय जरूरी

मुकदमा चलाने की मंजूरी में देरी बताती है कि रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र बलों की राय एक नहीं हो पाई है, इससे पूरी तरह भरोसा उठ जाने का खतरा.

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परंपरागत युद्ध-विरोधी और अप्रत्याशित परिस्थितियों के नतीजों से बह जाने वाले कुछ दूसरे लोगों की राय में भारतीय सशस्त्र बल अनिवार्य बुराई रहे हैं. फिर भी, सशस्त्र बलों को जब भी अलगाववाद विरोधी मुहिम में लगाया गया, उनकी कार्रवाइयों और देश-रक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए लोगों का उनके प्रति प्यार कभी कम नहीं हुआ. कभी-कभार दूर-दराज के इलाकों में दुर्भाग्यपूर्ण बेकसूरों की जान की क्षति से ही उन्हें झटका लगता है.

ऐसा ही झटका दिसंबर 2021 लगा, जब नागालैंड के मोन जिले में 21 पैरा (विशेष बल) के एक मेजर की अगुआई में अलगाववाद विरोधी मुहिम में 13 बेकसूर लोगों की जान चली गई. इस मामले में अभी इंसाफ का इंतजार है.

सुप्रीम कोर्ट ने 20 जुलाई को सेना के जवानों की पत्नियों की अर्जी पर सुनवाई के बाद उन सभी कानूनी प्रक्रियाओं पर रोक लगा दी, जो राज्य पुलिस की विशेष जांच टीम (एसआईटी) की रिपोर्ट पर आधारित थीं. इससे सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (अफस्पा) के तहत एक कानूनी जरूरत की ओर ध्यान गया कि कोई मुकदमा सिर्फ केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद ही चलाया जा सकेगा. ऐसी मंजूरी का निवेदन नागालैंड ने अप्रैल 2022 में किया, लेकिन अभी तक इस पर रक्षा मंत्रालय की चुप्पी ही सामने आई है.

अलगाववाद विरोधी अभियानों के अपने अनुभव के आधार पर मुझे यही अंदाजा है कि मुकदमा चलाने की मंजूरी शायद ही मिलने वाली है. तमाम संभावनाएं यही हैं कि जवानों के बचाव की बुनियादी वजह यही होगी कि मिशन की कार्रवाई में जवानों की नीयत साफ थी कि मिशन सरकारी एजेंसियों की खुफिया सूचनाओं पर आधारित था और अलगाववादियों से मुठभेड़ की आशंका वाले इलाके के पहले गाड़ी नहीं रुक पाई तो गोलियां चलानी पड़ी.

जवानों का पक्ष लेने का केंद्र सरकार का रवैया अक्सर राज्य सरकार से मतभेद उजागर कर देती है, जिसका मानना हो सकता है कि जवानों ने अपराध किया है और मानक कार्रवाई प्रक्रिया (एसओपी) का उल्लंघन किया है इसलिए अफस्पा के तहत बचाव नहीं किया जाना चाहिए.

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संक्षिप्त इतिहास

अफस्पा संसद की उपज है और सशस्त्र बलों के खिलाफ हिंसा का कवच है, ताकि वे दुश्मनों से देश की रक्षा कर सकें. पुलिस बल सुरक्षा की स्थितियों को अकेले संभालने में नाकाम होता है तो सेना की तैनाती की दरकार होती है. आदर्श स्थिति तो यही है कि सेना को आंतरिक सुरक्षा हालात को संभालने में न लगाया जाए. फिर भी, केंद्रीय सशस्त्र बलों की काबिलियत में काफी प्रगति के बावजूद, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों में सेना की तैनाती की जरूरत शायद बनी रह सकती है.

गौरतलब है कि 1950 के दशक के शुरू में नागालैंड में अशांत स्थितियों के चलते जब पहली दफा सेना तैनात की गई, तब से सात दशक बीत चुके हैं, मगर सशस्त्र बलों की दरकार कम नहीं हो सकी है. वजह यह है कि जम्मू-कश्मीर और नगालैंड दोनों सीमावर्ती क्षेत्र हैं, जहां दुश्मन ताकतों के बाहरी और आंतरिक तत्वों की सांठगांठ रहती है. खतरा भीतरी है, जबकि उसके स्रोत बाहरी और भीतरी दोनों हैं. इसलिए गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय दोनों हालात पर काबू पाने की साझा कोशिश करते हैं. ढांचा तो यही है कि सशस्त्र बल केंद्र के अधीन होते हैं और राज्य सरकार के साथ मिलकर काम करते हैं.

सशस्त्र बल के जवानों के द्वारा कथित कानून के उल्लंघन पर कार्रवाई सिर्फ केंद्र सरकार कर सकती है. राज्य सिर्फ जांच कर सकता है. यह रक्षा कवच अफ्सपा और सेना, वायु सेना तथा नौसेना कानून में दिया गया है.

कानून के उल्लंघन की किसी कार्रवाई, चाहे उसमें बेकसूरों की जान ही क्यों न गई हो, को केंद्र सरकार माफ कर सकती है, बशर्ते परिस्थितियां मानव नियंत्रण के परे हों. सशस्त्र बलों पर भरोसा किया गया है कि वे जांच करेंगे और खास पहलुओं की पड़ताल करेंगे और रक्षा मंत्रालय को अपनी सिफारिश देंगे. अशांत क्षेत्र की विशेष परिस्थिति और जवानों पर उसके असर के लिए जरूरी है. रक्षा मंत्रालय सामान्य तौर पर सशस्त्र बलों, खासकर सेना से अलग राय नहीं रखता है.


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नेक नीयत का मामला

अफस्पा ऐसे अशांत क्षेत्र में लागू होता है, जहां सिविल सोसायटी और सरकारी मशीनरी साझा क्षेत्र में काम करती हैं. सरकार के लिए सिविल सोसाइटी का समर्थन टकराव से निपटने के लिए उच्च राजनैतिक मकसद होता है. ऐसा समर्थन मोन जिले जैसी घटनाओं से कमजोर हो जाता था. लेकिन वारदातें फिर भी हो सकती हैं. सेना का कानूनी ढांचा ही अपराध साबित करने और जल्दी सजा देने का बेहतर तरीका है. इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि ऐसी कानूनी प्रक्रिया तेजी से पूरी की जाए और जवानों को सजा दी जाए या आरोप से बरी कर दिया जाए. देरी से खासकर जवान भी परेशान होता है, और सिविल सोसायटी में गुस्सा भी खौलता रहता है.

सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने 9 मई 2022 को मीडिया को बताया कि जांच पूरी हो गई है और उसकी कानूनी समीक्षा की जा रही है. उन्होंने आश्वस्त किया कि अगर कोई दोषी है तो उसे सजा दी जाएगी. रक्षा मंत्रालय में सैन्य मामले विभाग (डीएमए) को इस पर पहले ही गौर कर लेना चाहिए था.

विडंबना है कि जवानों की पत्नियों को देरी की वजह से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा, जो मोटे तौर पर ऐसा कानूनी मसला है, जिसे टकराव के अभियान गत चश्मे से देखा जाना चाहिए. नगालैंड की सिविल सोसायटी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इंसाफ की राह में अड़चन या देरी की तरह देख सकती है. लेकिन इसमें इतनी देर नहीं हो सकती थी, बशर्ते डीएमए और सशस्त्र बलों में एक राय बन गई होती. देरी से यह उजागर हो गया कि उनके बीच यह दुविधा बनी हुई है कि मुकदमे की मंजूरी दी जाए या इनकार कर दिया जाए.

सेना और राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह परेशानी का सबब होना चाहिए कि पत्नियों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा. इससे सरकार में भरोसे की कमी ही जाहिर होती है. रणनीतिक नजरिए से ऐसे ही भरोसे की कमी सिविल सोसायटी में भी घर करेगी. आखिरकार, इससे अलगाववादी तत्वों से निपटने पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा.

शांति बहाल करना आसान राजनैतिक समाधान नहीं हो सकता है. लेकिन सरकार को अशांत क्षेत्रों में अलग-अलग तत्वों के जरिए बनाई गईं समस्याओं में इजाफा नहीं करना चाहिए. ऐसा लग रहा है कि देश सुरक्षा चिंताएं हर क्षेत्र में तेजी से मिट रही हैं. मोन जिले की वारदात और उसके बाद की घटनाओं को राष्ट्रीय सुरक्षा पर असर डालने वाले फैसलों में देरी की व्यापक बीमारी के लक्षण की तरह देखा जाना चाहिए. इस मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का अभाव और सीडीएस की नियुक्ति का टलते जाना सबसे ऊपर है. लेकिन यह सूची काफी लंबी है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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