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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतमोदी ने कहा 'नेबरहुड फर्स्ट', श्रीलंका संकट भारत के पास इसे सिद्ध करने का एक मौका है

मोदी ने कहा ‘नेबरहुड फर्स्ट’, श्रीलंका संकट भारत के पास इसे सिद्ध करने का एक मौका है

चीन के प्रभाव को खत्म करने के लिए भारत को दक्षिण एशिया को प्राथमिकता देनी होगी और उसमें पाकिस्तान भी शामिल है.

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श्रीलंका के आम लोगों ने खदेड़ा तो गोटाबाया राजपक्षे जान बचाकर भागे. उधर, बीजेपी के बुलावे पर तीन दिन के दौरे पर भारत आए नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने कहा कि ‌‌द्विपक्षीय संबंधों की पूरी संभावना को साकार करने के लिए इतिहास में पीछे छूटे मसलों को सुलझाना जरूरी है. यह नजरिया अक्सर भारत के सभी उपमहाद्वीपीय पड़ोसियों पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बांग्लादेश और मालदीव के संदर्भ में आगे आता रहा है. इन सभी संबंधों में इतिहास के मसले दोस्ती को मजबूत भी करते हैं और उसमें अड़चन भी डालते हैं.

नरेंद्र मोदी सरकार संबंधों को मजबूत करने के लिए अपनी ‘पड़ोस पहले’ की नीति पर भरोसा करती है. लेकिन उस नीति की रणनीति जिस तरह बनाई गई है, उसमें कुछ सुधार की दरकार है.


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नेबर फर्स्ट का क्या हुआ?

श्रीलंका संकट भारत की नेबर फर्स्ट पॉलिसी की अग्निपरीक्षा जैसा है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल में 7 जुलाई को अपने संबोधन में भारतीय राजनयिक बिरादरी के लिए इस पॉलिसी के बारे में बताया. उसमें दो बिंदु गौरतलब हैं. यह उदार और जवाब में अनुकूल रुख की अपेक्षा करने वाली नीति है और अभी तक भारत ने पड़ोसियों की आगे बढ़कर मदद की है और यह जारी रहेगा. अब भारत के लिए परीक्षा यह है कि वह व्यापक अंतरराष्ट्रीय कोशिशों के साथ कुछ कदम आगे कैसे बढ़ाता है.

अप्रैल 2020 में विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने एक अंतर-मंत्रालयी सहयोग समूह (आईएमसीजी) का गठन किया. आइएमसीजी प्रधानमंत्री मोदी के नजरिए को ध्यान में रखकर भारत की नेबर फर्स्ट पॉलिसी को मुख्यधारा में लाने की उच्चस्तरीय व्यवस्‍था बनाएगा. इसका संकेत तभी मिला, जब 2014 में राष्ट्रपति भवन में मोदी के शपथ समारोह में पड़ोसी देशों के नेता पहुंचे थे. तब से काफी कुछ हो चुका है और उसको साकार करने की भारत की कोशिशें बेकार रही हैं.

भारत के नजरिए से उपमहाद्वीपीय एकता पर वैश्विक भू-राजनीति में एक-दूसरे से बढ़ती होड़ के नकारात्मक असर को कम से कम करना है. यह दलील इस बात पर आधारित है कि दूसरे उपमहाद्वीपीय देश इसके अहम भू-राजनैतिक जमीन हैं. भारत की प्रगति को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है कि वह अपनी सीमा से सटे पड़ोसियों से संबंधों के प्रबंधन में कितना कामयाब होता है. कहा जाता है कि दक्षिण एशिया भारत की व्यापक एशिया में संबंधों के मामले में रुकावट बन सकता है. इसे उस दिशा में मोड़ना है, ताकि भारत आर्थिक एकजुटता का मंच बन सके. इसके लिए बड़ी अर्थव्यवस्‍था होने के नाते उसे अगुवाई करनी है.

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दरअसल, उपमहाद्वीप राजनैतिक, आर्थिक और रणनीतिक मामलों में बंटा हुआ है. यह विभाजित सच्चाई इन आंकड़ों से भी उभरती है कि इस क्षेत्र से भारत का व्यापार सिर्फ 7 फीसदी और निवेश तकरीबन 3 फीसदी ही है. शुरुआत में पड़ोसियों से भारत के संबंधों को आगे बढ़ाने का औजार सार्क को बनाया गया, लेकिन वह कोशिश छोड़ दी गई और उसकी जगह बीबीआइएन (बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव) और बिमस्टेक (बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन) के तहत उप-क्षेत्रीय सहयोग की शुरुआत हुई. यह बदलाव पाकिस्तान को अलग-थलग करने के नजरिए से किया गया.

भारत की पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिश कई मायनों में देश की घरेलू राजनीति और विदेश नीति के तहत आतंकवाद को शह देने का सबब है. दूसरी तरफ, भारत की घरेलू राजनीति भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दायरे में घुस गई है. यह एक अविचारित रवैया है, जिससे पाकिस्तान में भारत के साथ अपनी सीमा नीति को हजारों जख्म के रास्ते पर ले जाने का फितरत पैदा होती है.


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भारत के लिए रणनीतिक फैसले

जितनी सूचनाएं उपलब्ध है, उसके मुताबिक श्रीलंका संकट में चीन की भूमिका बड़े पैमाने पर एक शिकारी की तरह समझी-बताई जा रही है. हालांकि तथ्य यह है कि श्रीलंका के विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा सिर्फ 10 फीसदी ही है. ऐसे शिकारी की छवि बनाने का भारत के पड़ोसियों नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और मालदीव से उसके संबंधों पर अलग-सा असर पड़ सकता है. श्रीलंका में चीन ने बड़े पैमाने पर रुचि ली थी और उसकी कई इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को उसके भू-राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं में मदद के लिए रणनीतिक जमीन तैयार करने की कोशिश मानी जाती है.

राजपक्षे कुनबे की विदाई के बाद चीन उस परिवार से अपनी नजदीकी की सच्चाइयों को दबाने की कोशिश करेगा. चीन ने 7.6 करोड़ डॉलर के आपात अनुदान के अलावा श्रीलंका की खास मदद नहीं की है और फिलहाल बस इंतजार कर रहा है. दूसरी तरफ, भारत ने खाद्य सामग्री, ऊर्जा और दवाइयों की आपूर्ति के साथ 3.5 अरब डॉलर की राहत मुहैया कराई है. बड़ा सवाल यह है कि चीन कैसे श्रीलंका में अपने राजनैतिक असर का इस्तेमाल करेगा और अपने मौजूदा इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को कैसे जारी रखेगा. यह श्रीलंका में उभरने वाले राजनैतिक व्यवस्‍था पर निर्भर करेगा, लेकिन उसकी प्रक्रिया आसान नहीं है. लेकिन यह श्रीलंका के लिए आइएमएफ की वित्तीय मदद हासिल करने के लिए भी जरूरी है, जिस पर अमेरिका का नियंत्रण है.

आइएमएफ से मदद की शर्तें ऐसी रखने की ही उम्मीद की जा सकती हैं जो कि अमेरिकी एजेंडे को आगे बढ़ाए. वह एजेंडा यह है कि चीन को श्रीलंका से दूर रखो और यह भारत के हित से भी जुड़ता है. आम धारणा यह है कि श्रीलंका को अपने देश में अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ की बड़ी भूमिका पसंद आएगी. इसलिए भारत की राजनैतिक और कूटनीतिक ऊर्जा श्रीलंका को आर्थिक मदद दिलाने की दिशा में ही होनी चाहिए. यह इस प्रतिबद्धता पर आधारित होनी चाहिए कि श्रीलंका के चीन से अपने रिश्ते बदलने की उम्मीद की जा सकती है और चीन दबदबे के लिए वैश्विक भू-राजनैतिक होड़ में खुद को इस्तेमाल होने से दूर हो जाए.

भारत को यह अहसास ज़रूर होना चाहिए कि उसके नेबर फर्स्ट का रवैया पाकिस्तान के बिना प्रभावी नहीं हो सकता. इस नीति में यह दिशा-निर्देश जरूर होना चाहिए कि राजनैतिक व्यावहारिकता पर नजर रखी जाए. रणनीतिक नज़रिए से यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन इससे हमें ऐसी दृष्टि से बंधा नहीं होना चाहिए, जो हमारे रणनीतिक दिशा को निर्देशित करे. ऐसा नज़रिया पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति पर पुनर्विचार की मांग करेगा. बहुतों के लिए ऐसा दूर की कौड़ी लग सकता है. लेकिन उसका मतलब यह नहीं है कि उस रास्ते को ही छोड़ दिया जाए.

हमें श्रीलंका के दुर्भाग्यपूर्ण हालात को एक अवसर की तरह लेना चाहिए, ताकि पीएम मोदी ने पद संभालते समय उपमहाद्वीप में हमारी जिस व्यापक भूमिका का नज़रिया पेश किया था, उसे हासिल किया जा सके. अगर इसके लिए हमारी घरेलू राजनीति को उदार बनाने की जरूरत है तो वह भी मूल्यवान होगा.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटिजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर; राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल सचिवालय में पूर्व मिलिट्री सलाहकार हैं. उनका ट़्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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