scorecardresearch
Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतहिंदू नहीं हैं आदिवासी लोग, आलसी अंग्रेज़ों के समय में हुई जनगणना ने उनपर ये लेबल लगा दिया

हिंदू नहीं हैं आदिवासी लोग, आलसी अंग्रेज़ों के समय में हुई जनगणना ने उनपर ये लेबल लगा दिया

हार्वर्ड की इंडिया कॉन्फ्रेंस में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के इस बयान पर कि आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे, बीजेपी और आरएसएस के परेशान होने के पीछे एक कारण है.

Text Size:

हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा नेता हेमंत सोरेन ने इस बात को स्वीकार किया कि आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे और न ही वो अब हैं. उन्होंने ये बात केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार से सारना कोड की मंज़ूरी लेने की कोशिश के जवाब में कही. सारना कोड आदिवासियों को एक अलग सम्मानजनक पहचान देता है, जो हिंदू पहचान से हटकर है, जिसे उनसे आमतौर से जोड़ लिया जाता है.

प्रमुख जाति सवर्ण हिंदुओं ने गलतफहमियों में मान लिया है कि आदिवासियों और दलितों की पहचान हिंदू है. इसका इस्तेमाल करके हिंदू बहुमत की एक झूठी धारणा बनाई जाती है और इस तरह भारत राष्ट्र को हिंदुओं की भूमि- हिंदुस्तान के तौर पर स्थापित किया जाता है.

सोरेन के बयान के बाद पूरी हिंदू आम सहमति, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में परेशानी पैदा हो गई. वो अंदर तक हिल गए. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने तुरंत एक बयान जारी कर सोरेन पर ‘इंजील प्रचार रटने’ का आरोप लगाया. इसके बाद आरएसएस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने सोरेन पर आरोप लगाए कि वो ईसाई मिशनरियों से फायदा उठा रहे हैं.

जाति से इनकार करने वाले लोग एक मौजूदा, लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री और देश के यकीनन सबसे बड़े आदिवासी नेता की सच्चाई को परख रहे थे. भारत का संविधान राज्य और समाज को आदिवासी परंपराओं के संरक्षण का ज़िम्मा देता है, जो भारत के इतिहास में एक अनोखी हैसियत रखते हैं. लेकिन हिंदू मिशन के सवर्ण पैरोकार, आदिवासियों को हिंदू बनाने पर तुले हैं.

हिंदुस्तान की कल्पना बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद में घिरा हुआ है. इसका इस्तेमाल उदारवादी, सुधारवादी और राष्ट्रवादी एक जैसे करते हैं. जब कोई भारत की राष्ट्रीय पहचान को हिंदू अतीत के साथ जुड़ी हुई घोषित करता है, तो वो आदिवासी लोगों की स्वतंत्र, स्वायत्त, ब्राह्मण-विरोधी विरासत के शानदार इतिहास को नज़रअंदाज़ करता है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

संवैधानिक भाषा में भारत के मूलनिवासियों को मोटे तौर पर, अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में बांटा जा सकता है. ब्राह्मणवाद के आगमन के साथ ही, भारत मूल के लोगों को निचली हैसियत में ढकेल दिया गया. पुष्यमित्र शुंग एक महत्वपूर्ण ब्राह्मण अभिनेता था, जिसने राजनीतिक वर्ण को परिभाषित किया, जिसने आगे चलकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था के स्पष्ट भेद को जन्म दिया. इससे वो श्रमण परम्पराएं नष्ट हो गईं, जिन्होंने जैन और बौद्ध धर्म को जन्म दिया था.

देश में लगभग हर कोई हिंदू बहुसंख्यकवाद का झूठा प्रचार करता है. रक्षक और विरोधी दोनों, हिंदू बहुसंख्यकवाद की इस ऐतिहासिक रूप से गलत और सामाजिक रूप से असंभव परिभाषा का इस्तेमाल करते हैं. उदारवादियों ने हाल ही में आसानी के साथ हिंदू-मुस्लिम द्वैतवाद की पहचान स्थापित कर दी है. मैंने बार-बार ऐसी सीमित करने वाली बाइनरीज़ का विरोध किया है. इन बाइनरीज़ में आदिवासियों और दलितों को गैर-मौजूदा, बेकार और व्यर्थ लोगों की श्रेणी करार दिया गया है, जिनका अपना कोई इतिहास नहीं है. पता चला है कि ये बाइनरीज़ उस जनगणना के अवशेष हैं, जिन्होंने बहुमत (हिंदू) और अल्पमत (मुसलमान) श्रेणियां बनाई हैं. इस तरह बहुसंख्यकवादी आमराय को युक्तिसंगत बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. इसे मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर योग्य करार दिया जा सकता है- ये एक आस्था का मामला बन जाता है.


यह भी पढ़ें: सेनाओं की वापसी के बाद भारत और चीन फिर वही दोस्ती-दुश्मनी के पुराने खेल में उलझे


भारत की धोखाधड़ी की जनगणना

हिंदू बहुमत का विचार कई मामलों में त्रुटिपूर्ण है. ये एक धोखाधड़ी है जो जनणना करने वाले, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के समय से करते आ रहे हैं. 1881 में जब ब्रिटिश जनगणना ने हिंदू को एक पहचान के तौर पर दिखाना शुरू किया, उससे पहले हिंदू या हिंदू धर्म का कोई प्रचलन नहीं था. हालांकि जनगणना 1861 में शुरू होनी थी लेकिन 1857 की क्रांति ने उन प्रयासों को विफल कर दिया. इसने आखिरकार 1872 में आकार लेना शुरू किया लेकिन पूरे भारत को कवर नहीं किया.

हालांकि ब्रिटिश जनगणना में खामियां थीं लेकिन उससे प्रशासन को इतना ज़रूर मिल गया कि वो नियम कानून बना सके, और शासित जनता के लिए फैसले ले सके. राज्य का बुनियादी मकसद बेहतर शासन देना होता है और जिज्ञासु मानवविज्ञानी इस अत्यंत विविध राष्ट्र के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानना चाहते थे. आने वाले सालों में जनगणना, जैसे-जैसे औपचारिक रूप लेती गई, वैसे-वैसे हिंदू एक अधिक ज्ञात पहचान बनते गए. और हमेशा की तरह ब्राह्मण वर्ग इस नयी पहचान को सिमटने के लिए कूदकर आगे आ गया, और हाल ही में बनी देशव्यापी हिंदू पहचान पर दावेदारी जताने लगा. शुरूआत में, जनगणना में असमान प्रांतों को कवर किया गया.

जनगणना स्कॉलर भगत का कहना है कि बाद में धर्म का जनगणना चार्ट, कई समूहों में वग्रीकृत हो गया, जैसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, यहूदी और एनिमिस्ट. एनिमिस्ट से आशय ऐसी आदिवासी जनजातियों से था, जो उस समय तक हिंदू धर्म के प्रभाव में नहीं आईं थीं. हिंदू को कैसे परिभाषित करें? दो व्यापक वर्ग थे, शैव और वैष्णव, जो सामान्य आस्था में बुरी तरह बंटे हुए थे. फिर कुछ वो हैं जो ब्रह्म समाज और आर्य समाज वर्ग में आते हैं. इसमें जातियों और स्वतंत्र धार्मिक परंपराओं के बहुत सारे बटवारे भी जोड़ लीजिए. फिर भी, इसे परिभाषित होना ही था.

हिंदू हर वो आदमी है जो ‘यूरोपियन, आर्मेनियन, मुगल, पर्शियन या विदेशी वंश का नहीं है, जो किसी मान्यता प्राप्त जाति का सदस्य है, जो ब्राह्मणों (पुरोहित जाति) के आध्यात्मिक अधिकार को मानता हो, जो गाय को पूजता हो या कम से कम उसे मारने या नुकसान पहुंचाने से इनकार करता हो या कोई ऐसा धर्म अथवा आस्था न रखता हो जिससे ब्राह्मण रोकते हों’.

इस परिभाषा ने आर्य समाज जैसे ब्राह्मण व्याख्याकारों को बढ़ावा दिया, जिन्होंने खुशी-खुशी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लिया और आम भारतीय पहचान को हिंदू के रूप में बढ़ावा दिया. उस समय के समाज सुधारकों और कांग्रेस पार्टी ने, एक काल्पनिक हिंदू श्रेष्ठतावादी अतीत का राजनीतिक एजेंडा बनाकर, इस भ्रामक पहचान को अपना लिया. इसने दो तरह से काम किया. पहला, अतीत में आधिपत्य का एक ऐतिहासिक बोध कराया और दूसरा, यूरोपीय उपनिवेशवादियों को अनैतिहासिक बर्बर बताया.

1911 की जनगणना में हिंदुओं को असली और नकली में बांट दिया गया. बाद वाले वो थे जो वेदों और ब्राह्मणों के अधिकार से इनकार करते थे जिनमें ब्राह्मण शामिल नहीं थे, जो गौमांस खाते थे और गायों का आदर नहीं करते थे.

ब्रिटिश अधिकारियों की इस दखलअंदाज़ी से अंग्रेज काल के बाद के विद्वान मानने लगे कि अंग्रेज़ों ने जाति को उजागर करके, उसे बेतुके ढंग से आगे बढ़ाया था. इसलिए बर्नार्ड कोहन और निकोलस डर्क्स के लेखों में ब्रिटिश काल के दौरान जाति के और मुखर होने का विवादास्पद तर्क नज़र आता है. बहुत से दक्षिणपंथियों ने इसकी ये व्याख्या की, ब्रिटिश लोगों ने यूरोप से जाति को आयात करके उसमें एक अंग्रेज़ी तड़का लगा दिया.


यह भी पढ़ें: केवल BCG ही नहीं- पोलियो, हेपिटाइटिस और दूसरी बीमारियों के टीके भी कर सकते हैं कोविड से बचाव


21वीं सदी की जनगणना

2001 की जनगणना में प्रमुख धर्मों के अलावा 1,700 धार्मिक श्रेणियां पाईं गईं. उन्हें एक जगह लाकर ‘अन्य’ के कॉलम में रख दिया गया. आदिवासियों को भी इसी में रखा गया है. लेकिन, हेमंत सोरेन ने इशारा किया कि अब 2021 की जनगणना में इसे उस कॉलम से बाहर लाया जा रहा है, जो उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू या अन्य धर्मों की श्रेणी में रख देता है.

भारत ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना को बाकी देश से अलग रखा है. रिपोर्ट परेशान करने वाली है, क्योंकि ये दलितों तथा आदिवासियों को हर स्तर पर प्रभावहीन दिखाती है. आज़ादी के बाद भारतीय जनगणना का उद्देश्य, हाशिए पर पड़े लोगों के जीवन और उनकी कहानियों को दर्ज करना था, ताकि उन्हें संरक्षण दिया जा सके.

इस प्रकार, अंग्रेज काल के बाद के राष्ट्रवाद का मतलब, न सिर्फ औपनिवेशिक ज़माने के नामों और कानूनों को बदलना है, बल्कि उपनिवेश काल के कानूनों और अपरिचित पहचानों से छुटकारा भी पाना है. भारत एक बेहद जटिल देश है. हर क्षेत्र, जाति, पंथ, धर्म का अपना इतिहास है और वो अपने आप में एक राष्ट्र हैं. हम अंग्रेज़ों द्वारा दी गई पहचान के बहाने से उनका जुड़ना सहन नहीं कर सकते. आदिवासियों को हिंदू के शिकंजे से बचाना, अन्य बहुत से नायक नियिकाओं के अलावा, बिरसा मुंडा, सिद्धू, कान्हू मुर्मू और नारायण सिंह का एक बड़ा कारनामा है.

ब्राह्मण और दूसरी सवर्ण जातियों को आदिवासियों की सुध तभी आती है, जब ईसाई मिशनरियां अपने धर्म में प्रतिपादित समानता शब्द को उठा रही होती हैं. तटीय क्षेत्रों और दक्षिण भारत में दलितों जैसे आदिवासियों ने उपनिवेश काल में तुरंत ईसाइयत को अपना लिया, जैसे मुगल दौर में उन्होंने इस्लाम को स्वीकार किया था. ब्राह्मणों ने आरएसएस जैसे संगठनों के ज़रिए, आदिवासियों का धर्म बदलवाकर उन्हें हिंदू बनाना शुरू किया है. ये उससे बहुत अलग नहीं है, जो ईसाई मिशन्स करते हैं.

हर कोई जो इस धरती का मूल निवासी है और अपने पैतृक देवताओं की पूजा करता है, उसे एक गैर-हिंदू के तौर पर, अलग पहचान दर्ज कराने की अनुमति होनी चाहिए. जैसा कि भारत की जनगणना 2001, में धर्म पर रिपोर्ट में कहा गया है, भारत ‘स्वदेशी आस्थाओं और आदिवासी धर्मों का आवास है, जो सदियों तक प्रमुख धर्मों के प्रभाव से बचे रहे हैं और मज़बूती से अपनी जगह डटे हुए हैं.

भारत की जनगणना, दमनकारी बहुमत की सरपरस्ती का सहारा लिए बिना अपने आपको स्थापित करने का सबसे अच्छा तरीका है. दलितों, अदिवासियों और बहुत से पिछड़े वर्गों को मजबूर करके हिंदू धर्म में लपेटने से सवर्णों को एक अलोकतांत्रिक और अनिर्वाचित बहुमत मिल जाता है. धार्मिक जनगणना में आदिवासियों और दलितों को एक अलग कॉलम की अनुमति होनी चाहिए. ये भारत की आज़ादी की लड़ाई और कुल मिलाकर राष्ट्र में उनके योगदान के प्रति श्रद्धांजलि होगी.

(डॉ सूरज येंगड़े हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में सीनियर फैलो हैं. वो कास्ट मैटर्स के लेखक हैं. उन्होंने हार्वर्ड में इंडिया कॉन्फ्रेंस के 18वें संस्करण में झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन की मेज़बानी की थी)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: आत्मबोधानंद और सरकार दोनों चाहते हैं कि बहती रहे गंगा, फिर क्यों जान दे रहे हैं संत


 

share & View comments