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Friday, 22 November, 2024
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न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोपों को न्यायिक आदेशों से मिलता है बल

क्या वक्त आ गया है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिये विस्तृत मशीनरी तैयार की जाये?

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न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के आरोप अक्सर लगते रहे हैं, लेकिन पटना उच्च न्यायालय की हाल की घटना ने यह सोचने पर बाध्य किया कि न्यायपालिका में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है और इस स्थिति से उबरने के लिये कठोरतम कदम उठाने और ऐसे आरोपों की जांच के लिये सुव्यवस्थित मशीनरी की आवश्यकता है.

ऐसा सोचने की वजह दो-दो उच्च न्यायालयों के अलावा दिसंबर 2017 में उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण भी है, जिसमें तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आनन-फानन में दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ का आदेश निरर्थक कर दिया था.

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर हाल के वर्षों की चुनिंदा घटनायें कई सवाल पैदा करती हैं. यहां पहला सवाल तो यही है कि पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने जिन बिंदुओं की ओर इशारा किया है, उनकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए? इस आदेश से ऐसी कौन सी स्थिति उत्पन्न हो गयी कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एपी शाही की अध्यक्षता में 11 न्यायाधीशो की पीठ को अप्रत्याशित कदम उठाते हुये. न्यायमूर्ति कुमार का आदेश निलंबित करने के साथ ही उनसे सारा न्यायिक कार्य वापस लेने का निर्देश देना पड़ा. हालांकि, 1 सितंबर को मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति कुमार को फिर से न्यायिक कार्य आवंटित करने का आदेश दे दिया है.

यहां यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि न्यायमूर्ति कुमार के आदेश को निलंबित करने के लिये 11 न्यायाधीशों की पीठ की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? उच्च न्यायालयों में सामान्यतया एकल न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दो न्यायाधीशों पीठ या तीन न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ ही सुनवाई करती है.

सवाल यह भी है कि आखिर न्यायमूर्ति कुमार से न्यायिक कार्य वापस क्यों लिया गया? क्या उनके खिलाफ किसी प्रकार की जांच चल रही थी? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई पर आरोप लगे थे, तो वह जांच के दौरान अन्य मामलों की सुनवाई कर रहे थे. उच्च न्यायालय के 11 न्यायाधीशों के आदेश का क्या यह निष्कर्ष निकाला जाये की पटना उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आने वाली न्यायपालिका मे भ्रष्टाचार नहीं है.

एक बात और चौंकाने वाली यह है कि जब प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई भ्रष्टाचार के आरोपों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एसएन शुक्ला के खिलाफ सीबीआई को नियमित मामला दर्ज करने की अनुमति दे सकते हैं, तो फिर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कदम उठाने के न्यायमूर्ति राकेश कुमार के आदेश को निलंबित करने का औचित्य समझ से परे है.


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प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई तो पहले ही न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार रोकने और इसमें से भ्रष्ट लोगों को बाहर करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अनुरोध कर चुके थे. यही नही, प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने तो जुलाई के महीने में भ्रष्टाचार के आरोपों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एसएन शुक्ला के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो को नियमित मामला दर्ज करने की अनुमति देकर सबको चौंका दिया था.

न्यायमूर्ति गोगोई ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में न्यायमूर्ति शुक्ला को पद से हटाने के लिये 18-19 महीने पहले किये गये आग्रह को अधिक प्रभावी तरीके से दोहराते हुये कहा कि उन पर गंभीर प्रकृति के आरोप है और उन्हें न्यायिक कार्य की अनुमति नहीं दी जा सकती. ऐसी परिस्थिति में आप आगे की कार्रवाई के लिये फैसला लें. ऐसा समझा जाता है कि सरकार की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाये जाने की वजह से ही प्रधान न्यायाधीश ने सीबीआई की प्रारंभिक जांच रिपोर्ट के आधार पर उसे नियमित मामला दर्ज करने की अनुमति दे दी.

न्यायमूर्ति कुमार ने तो अपने आदेश मे इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि जिस दिन भ्रष्टाचार के आरोप मे एक पूर्व आईएएस अधिकारी ने निचली अदालत में समर्पण किया, तो उस दिन नियमित सतर्कता न्यायाधीश अवकाश पर क्यों थे. इस मामले में हुआ यह था कि पूर्व आईएएस अधिकारी ने अदालत में समर्पण किया और उसी दिन प्रभारी न्यायाधीश सतर्कता ने उन्हें जमानत दे दी थी.

पटना उच्च न्यायालय के 11 न्यायाधीशों की पीठ की कार्यवाही की घटना ने जहां नवंबर, 2017 में उच्चतम न्यायालय के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ के आदेश को निष्प्रभावी करने संबंधी पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के आदेश से उत्पन्न स्थिति की नहीं, बल्कि इसने न्यायालय की अवमानना के अपराध में छह महीने के लिये जेल भेजे गये. कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कर्णन के अड़ियल रूख की भी याद ताजा कर दी.

पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एपी शाही की अध्यक्षता में 11 न्यायाधीशों की पीठ ने न्यायमूर्ति कुमार का आदेश निलंबित करते हुये अपने आदेश में कहा कि एकल न्यायाधीश को बंद हो चुके मामले में इस तरह का आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है.

न्यायमूर्ति कुमार ने पूर्व आईएएस अधिकारी केपी रमैया की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान इस पूर्व नौकरशाह को जमानत देने के निचली अदालत के तरीके पर सवाल किया था. उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने आरोपों की गंभीरता को देखते हुये इस पूर्व नौकरशाह को गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान करने से इंकार कर दिया था. रमैया को अब निचली अदालत मे समर्पण करना था और उसी दिन उन्हें प्रभारी सतर्कता न्यायाधीश ने जमानत दे दी थी. न्यायमूर्ति कुमार ने इसकी जांच का आदेश देते हुये चार सप्ताह मे रिपोर्ट मांगी थी.

इस सारे मामले में भ्रष्टाचार की गंध महसूस करते हुये न्यायमूर्ति कुमार ने पटना के जिला न्यायाधीश को इसकी जांच करते हुये यह भी पता लगाने का निर्देश दिया था कि क्या उस दिन नियमित सतर्कता न्यायाधीश वास्तव में किसी वजह से अवकाश पर थे या फिर उन्होंने रमैया को जमानत दिये जाने वाले दिन जानबूझ कर छुट्टी ली.

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोपों के स्टिंग आपरेशनों का जिक्र करते हुये पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राकेश कुमार ने कहा था कि न्यायाधीशों के बंगलों पर जनता का करोड़ों रूपया खर्च हो रहा है. यही नहीं, न्यायमूर्ति कुमार ने भ्रष्ट न्यायिक अधिकारियों को संरक्षण दिये जाने का उल्लेख करते हुये जांच का आदेश दिया था और इस आदेश की प्रति प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और प्रधानमंत्री को भेजने का निर्देश दिया था.

अब जरा एक नजर उच्चतम न्यायालय के घटनाकम पर डालते हैं. न्यायालय की संविधान पीठ के 10 नवबर, 2017 के आदेश के परिप्रेक्ष्य पर नजर डालें तो पता चलता है कि केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा दर्ज एक प्राथमिकी में आरोप लगाया गया था कि उड़ीसा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और एक हवाला कारोबारी सहित कुछ व्यक्तियों ने एक प्राइवेट मेडिकल के मामले की सुनवाई कर रहे शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों को कथित रूप से रिश्वत देने की साजिश रची थी.


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इस मुद्दे को लेकर दो अधिक्ता कामिनी जायसवाल और सरकारी संगठन कैंपेन फार ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म ने अलग-अलग याचिकायें दायर कीं. इनमें भ्रष्टाचार के इस मामले की जांच के लिये विशेष जांच दल गठित करने का अनुरोध किया गया था. अधिवक्त कामिनी जायसवाल की याचिका पर न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की पीठ ने सुनवाई करते हुये इसे वरिष्ठतम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष 13 नवबंर को सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया था.

दूसरी याचिका पर न्यायमूर्ति एके सीकरी की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष आयी. इस पीठ ने याचिका को उचित आदेश के लिये प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया था. इस याचिका पर बहस करते हुये अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि यह प्राथमिकी पूरी तरह प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ है.

बहरहाल, 10 नवंबर 2017 को कुछ क्षण बाद ही प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने प्रशांत भूषण के साथ तीखी नोकझोंक के बाद अपने आदेश में कहा कि उच्चतम न्यायालय को अराजकता से संरक्षण के लिये प्रधान न्यायाधीश ही रोस्टर के मुखिया है और वही यह निर्णय करेंगे कि कौन सा मामला कौन सी पीठ सुनेगीं.

संविधान पीठ के इस आदेश के बाद न्यायमूर्ति चेलमेश्वर का आदेश निरर्थक हो गया था. यही वह मुकाम था जिसके बाद स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने चार जनवरी, 2018 को अप्रत्याशित कदम उठाते हुये प्रेस कांफ्रेन्स की और प्रधान न्यायाधीश के रवैये पर गंभीर सवाल खड़े किये थे.

बहरहाल, इस तरह की घटनाओं के मद्देनजर उम्मीद की जाती है कि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधान न्यायाधीश की कवायद रंग लायेगी और वह पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कुमार के आदेश को निलंबित करने की 11 न्यायाधीशों की पीठ की कार्यवाही का संज्ञान लेकर इस मामले मे उचित कदम उठायेंगे. न्यायपालिका के प्रति जनता का भरोसा कायम रखने के लिये शायद ऐसा करना जरूरी होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. यह आलेख उनके निजी विचार हैं)

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1 टिप्पणी

  1. यह सही नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई फैसला नहीं ले सकते हैं, आज ईक्छछा सकती चाहिए

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