प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह सवाल विचारणीय है कि बौद्धिक दायरा किसी भाषा विशेष का ज्ञान रखने वालों तक ही सीमित क्यों रहना चाहिये. यह भावनात्मक मुद्दा नहीं है बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है. दुनिया चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रही है और पिछली तीन औद्योगिक क्रांति के अनुसंधान में हम पिछड़ गये.
प्रधानमंत्री ने इसकी वजह गिनाई और एक बार फिर साफ किया कि गुलामी के कालखंड में क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा हुई और अनुसंधान की भाषा को सिर्फ एक दो भाषाओं तक सीमित रखा गया. उन्होंने सभी भारतीय भाषाओं को धनी बनाने के सरकार के राष्ट्रीय भाषा अनुवाद मिशन का जिक्र किया जिसका मकसद साफ है कि भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावलियां उपलब्ध हों.
इंटरनेट पर ज्ञान और सूचना का बहुत बड़ा भंडार है जिसे हर कोई अपनी भाषा में जान सके और इस मकसद को पूरा करने के लिये भाषीनी प्लेटफॉर्म लांच किया गया है.
प्रधानमंत्री ने जिस ‘एक दो भाषा’ का नाम नहीं लिया वह अंग्रेजी है. हर भाषा का अपना दायरा और महत्व है ऐसे में भारत सदैव से अनगिनत भाषाओं को समाहित करने में सक्षम रहा है. यहां हर भाषा फली फूली है और बोलचाल से लेकर साहित्य रचना में उसका योगदान सर्वविदित है.
नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में अदालतों में स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल पर भी जोर दिया था. उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में न्यायिक प्रक्रिया और फैसले समझना मुश्किल होता है. स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से न्याय प्रणाली में आम नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा और वे इससे अधिक जुडाव महसूस करेंगे. यह एक तरह से सामाजिक न्याय होगा. प्रधानमंत्री की यह सदिच्छा भी न्याय संगत है और उसे लागू करने की दिशा में भले ही अनेक कठिनाईयां हो लेकिन उसे अमल में लाने के प्रयास से न्याय प्रणाली मजबूत होगी.
उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने भी पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने के मौके पर एक समारोह में कहा था कि बच्चों को शुरुआती पारिवारिक शिक्षा अपनी ही भाषा में दें. उन्होंने कहा था कि मातृभाषा आंखों की तरह होती है जबकि अन्य भाषा महज एक चश्मा है. मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा उसे सम्मान देना है. घर में बच्चों से मातृभाषा में ही बात करें. उनका मंतव्य साफ है और इससे यह समझ में आ जाता है कि भाषा के संरक्षण की अहम जिम्मेदारी सबसे पहले परिवार की है. किसी दूसरे पर दोष मढने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है.
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ऐतिहासिक तथ्य
किसी विवाद में पड़ने के बजाय ऐतिहासिक तथ्यों को जानने का प्रयास भी किया जाना चाहिये.
दरअसल 18वीं सदी के आरंभ होने तक भारत में हिंदी-उर्दू की भाषा नहीं थी और काफी हद तक संपर्क भाषा भी नहीं थी. संस्कृत, अरबी और फारसी ही मुख्य रूप से कामकाज की भाषा के रूप में इस्तेमाल होती थी. अंग्रेजी हुकूमत के आने के बाद गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग ने भारत को समझने के लिये हिंदी या उर्दू भाषा को नहीं बल्कि फारसी भाषा को चुना. उसे आभास हो गया था कि भारत को समझने के लिये इसकी भाषाई विविधता को समझना और इनका संरक्षण अनिवार्य है.
सांस्कृतिक विविधताओं से भरा भारत ऐसा देश है जहां हर चालीस कोस के बाद बोली और रहन सहन में अंतर देखने को मिलता है. अंग्रेज अफसरों के लिये संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा की जानकारी रखना आवश्यक कर दिया गया था. आठ फरवरी 1812 को जारी सरकारी अध्यादेश में स्पष्ट लिखा गया कि जनहित से जुड़े सरकारी पदों पर तैनात अफसरों के लिये तीनों भाषाओं का ज्ञान जरूरी है. प्रशासनिक सेवा के अफसरों को बाकायदा तीनों भाषाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था. अदालत और रजिस्ट्री के दस्तावेज भी इन्हीं भाषाओं में लिखने होते थे.
बीसवीं सदी तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में इन्हीं तीनों भाषाओं का इस्तेमाल देखा जा सकता है. दरअसल उन्नीसवी सदी में अंग्रेज शासन के दौरान अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने की कवायद शुरू हो गई और अंग्रेजी के साथ हिंदी और उर्दू इस्तेमाल बढ़ता चला गया और संस्कृत, अरबी और फारसी का इस्तेमाल कम होता चला गया.
आजादी मिलने के बाद 1960 के दशक में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर राजनीतिक बवाल हुआ था. दक्षिण भारत के लोगों के मन में यह शंका पैदा की गई कि उनपर हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है जो पूरी तरह से आधारहीन थी.
वास्तव में तब तक अंग्रेजी सरकारी भाषा का रूप ले चुकी थी लेकिन आजाद भारत में एक राष्ट्रीय भाषा की जरूरत को महसूस किया गया जिसकी वजह अपनी पहचान को बनाये रखना था. चूंकि आबादी के लिहाज से हिंदी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती थी इसलिये उसके विस्तार की कल्पना की गई. कभी किसी सरकार ने गैर हिंदी भाषी लोगों पर हिंदी को थोपने की कोशिश नहीं की.
भले ही 1960 के दशक में दक्षिण भारत में हिंदी भाषा को लेकर सियासी पारा चढ़ा और लोंगों के मन में द्वेष भाव को हवा दी गई लेकिन इन सबके बावजूद हिंदी का प्रचार प्रसार बोलचाल और समझ की दृष्टि से बढ़ता चला गया.
तेजी से बदलते दौर में वृहत संवाद का एक माध्यम होना नितांत आवश्यक है और इस जरूरत को बंद आंखों से न तो देखा जा सकता है और न ही कान में उंगली डालकर सुना जा सकता है. भारत सदैव से विविध संस्कृति को समाहित करने में सक्षम रहा है और अनादिकाल से अनगिनत जीवन पद्धति को संरक्षित रखने में सफल रहा है. उसी संस्कृति के तहत हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषायें पली बढ़ी हैं और हर भारतीय के घरों में बोली और समझी जाती है चाहे वह देश में हो या परदेश में.
भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में परीक्षा देने के लिये हिंदी को भी माध्यम बनाने की अनुमति दी गई है. उसने संयुक्त राष्ट्र में अपना स्थान बनाया है जिसे और व्यावहारिक दृष्टि से बढ़ाने की जरूरत है. जहां तक देश में हिंदी के प्रचार प्रसार की बात है तो यह हकीकत है कि हर प्रांत में अब यह भाषा बोली और समझी जाने लगी है.
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अनुवाद की चुनौती
एक और कटु सत्य है कि शिक्षा के क्षेत्र में भाषाई माध्यम के लिहाज से अंग्रेजी का निरंतर विस्तार होता जा रहा है और देश की प्राचीन भाषायें उसका मुकाबला करने में शिथिल प्रतीत हो रही हैं. निर्धन हो या अमीर, हर कोई अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम (अंग्रेजी माध्यम) के स्कूलों में ही दाखिला दिलाना चाहता है. इसकी बड़ी वजह है कि अन्य भाषाई माध्यम से पढ़ाई करने के बाद नित नये-नये होने वाले अनुसंधान के दस्तावेज अभी भी अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और उसके सार को समझने के लिये अपेक्षित भाषा में अनुवाद उपलब्ध होना चाहिये.
अनुवाद की भी अपनी दिक्कतें हैं और उसे दूर करने के लिये हर राज्य को अपने यहां की भाषाओं में उसे सुलभ कराने की जिम्मेदारी उठानी होगी.
सटीक अनुवाद एक जटिल कार्य है और उसे करने के लिये गूगल से नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं के जानकार की मदद लेनी पड़ेगी. यह अश्वमेध यज्ञ की भांति है जिसे सफल बनाने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों का समन्वित प्रयास जरूरी है.
इस हकीकत को जानने के बाद एक बार फिर अपनी क्षेत्रीय भाषा को पूरी तरह से स्थापित करने से कतराना, वास्तविकता और व्यावहारिकता से मुंह मोड़ने के समान है. अंग्रेजी की तरह हर भाषा भी पल बढ़ रही है और अपनी उपयोगिता बनाये हुये है और इस तथ्य को समझते हुये किसी की राह में रोड़ा अटकाने से किसी का लाभ नही होगा.
देश में हर भाषा को संरक्षित रखने का पहला दायित्व परिवार का है और अंतिम निर्णय लेकर वह अपनी भाषा और संस्कृति को सहेज कर रख सकता है.
(लेखक अशोक उपाध्याय वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @aupadhyay24 पर ट्वीट करते हैं . व्यक्त विचार निजी हैं)
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