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Thursday, 31 October, 2024
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कृषि कानूनों का रद्द होना तो मलाई है, लेकिन खुरचन है इस आंदोलन की दूरगामी उपलब्धि

किसानों की निर्णायक जीत ये रही कि अब किसानों सहित हर कोई जान गया है कि उनका सियासी वजन कितना ज्यादा है. अब वक्त इस ताकत को बड़ी बातों में लगाने का है.

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‘तो, आखिर जहां से चले थे फिर से हम वहीं पहुंच गये, है ना ? आखिर हमारा हासिल क्या रहा ?’ तीन कृषि कानूनों के खात्मे पर मनाये जा रहे जश्न से कुछ-कुछ खिन्न नजर आ रहे एक युवा कार्यकर्ता ने किसी तीर की तरह सनसनाता और चुभता यह सवाल पूछा. उसका तर्क बड़ा सीधा सा था : किसान इन तीन कृषि कानूनों के आने के पहले से ही बदहाली में थे. हमने तीन कृषि कानूनों की नई आफत को किसी तरह दूर भगाया लेकिन जो मसले पहले से ही जी को हलकान कर रहे हैं, उनका क्या ? क्या हम साल भर के ऐतिहासिक संघर्ष के बाद भी इन मसलों पर एक इंच आगे बढ़े हैं? क्या हम फिर से उसी जगह नहीं आ गये जहां 4 जून 2020 को थे, जब तीन कृषि कानूनों को अध्यादेश की शक्ल में लाया गया था ? आखिर हमारा हासिल क्या रहा ?

‘आपको गांधीजी को पढ़ना चाहिए — उनके लिखे-बोले को नहीं बल्कि उनकी जिन्दगी को’—अपने नौजवान साथी को मैंने सलाह दी. शब्द की सटीक अर्थों में अगर इस देश में कोई एक आंदोलनजीवी हुआ तो वो गांधीजी ही थे. उन्होंने ना-कुछ के बीच से जनान्दोलनों को खड़ा किया, उनके मुद्दे गढ़े, नारे बनाये और जनान्दोलन किन गतिविधियों के सहारे अपने को जाहिर करें, इसका व्याकरण तैयार किया. गांधीजी ने जो जनान्दोलन चलाये उनमें से ज्यादातर अपने फौरी मकसद को हासिल ना कर सकेः असहयोग आंदोलन, सिविल नाफरमानी का आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन अपने घोषित लक्ष्य को हासिल नहीं कर सके. लेकिन हम इन संघर्षों को आज जनान्दोलन के मॉडल के रूप में याद करते हैं क्योंकि इन आंदोलनों ने हिन्दुस्तान की आजादी के पहले ही हिन्दुस्तानियों के दिल-ओ-दिमाग को आजाद कर दिया था.

गांधीजी पारखी थे, वे इस गहरी बात को समझ चुके थे कि : आंदोलनों की दुनिया में असली चीज दूध के उबाल के बाद वाली मलाई नहीं बल्कि असली चीज होती है वह छाड़न जो बाद को खुरचन कहलाती है. किसी आंदोलन की असल कामयाबी का पैमाना यह नहीं होता कि उसने अपने तात्कालिक मकसद को किस हद तक हासिल किया बल्कि आंदोलन की कामयाबी की माप इस बात से होती है कि उसने अपने साथ जुड़े लोगों को किस हद तक बदला और सशक्त बनाया.

जहां तक तात्कालिक मकसद को हासिल करने की बात है, किसान-आंदोलन आजाद भारत में अपनी कद-काठी के हुए अन्य आंदोलनों की तुलना में कहीं ज्यादा हासिल कर चुका है. साल 1974 की रेल-हड़ताल को कुचल दिया गया था. बिहार का जेपी आंदोलन राज्य सरकार को इस्तीफे के लिए मजबूर ना कर सका. अन्ना हजारे आंदोलन बेशक संसद से प्रस्ताव पारित करवाने में कामयाब हुआ लेकिन लोकपाल एक्ट के लिए दो साल का इंतजार करना पड़ा. ऐसे में यह अप्रत्याशित कहा जायेगा कि जिन तीन कृषि कानूनों को केंद्र सरकार ने अपनी नाक का सवाल बना रखा था उन्हीं कानूनों को किसान-आंदोलन ने वापस लेने पर सरकार को मजबूर कर दिया. नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ऐसा करने पर मजबूर हुई, यह और भी ज्यादा अविश्वसनीय है.

फिर भी, किसान-आंदोलन की सबसे पायेदार उपलब्धि यह नहीं है. इस आंदोलन को जो चीजें अपने मकसद की राह में सौगात की तरह मिल गई हैं वही इसे ऐतिहासिक आंदोलन बनाती हैं, बशर्ते सौगात में मिली इन चीजों की हम कद्र करें और आगे के सफर के लिए उन्हें अपना सहारा बनायें.


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किसान का स्वाभिमान

किसानों में स्वाभिमान जागा है — यह इस आंदोलन की पायेदार उपलब्धियों में एक है. याद करें कुछ पहले का वक्त, तब किसानों की कोई छोटी बैठक हो या बड़ी, सब ही जगह एक ना एक किसान नेता के मुंह से पुराने वक्तों को याद करते हुए यह बात निकल ही जाती थीः उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी. किसानों ने जैसे अपने मन को मना लिया था कि आधुनिक विकास के अवशेष के रूप में अब उन्हें हाशिए की ही जिन्दगी बसर करनी है. इस आंदोलन ने अन्नदाता के रूप में किसानों की प्रतिष्ठा की पुनर्बहाली की है.

किसान नहीं तो अनाज नहीं, कोई भविष्य नहीं ‘, यह बात आंदोलन में स्वाभिमान और प्रतिष्ठा की आवाज बनकर बुलंद हुई. शहराती मध्यवर्ग ने अपनी यादों को टटोला और उसे याद आया कि चंद पीढ़ी पहले उसकी जड़ें खेती-बाड़ी और गांवों से जुड़ी थीं. यह प्रतीकात्मक बदलाव कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है : आत्म-पहचान का हासिल होना आजादी की दिशा में उठा पहला कदम है. किसानों ने जता दिया है कि वे अतीत के अवशेष नहीं बल्कि इस देश का वर्तमान और भविष्य हैं.

आत्म-पहचान की यह प्राप्ति क्या बिजली की कौंध की तरह क्षणिक साबित होगी या किसानों के लिए दूर और देर तक रास्ता दिखाने वाली रौशनी बनेगी ? यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किसान संगठन अपनी इस जय-यात्रा को किस भांति आगे बढ़ाते हैं. इस ऐतिहासिक जीत का इस्तेमाल यों भी हो सकता है कि जैसे पहले रहते आये हैं, वैसे ही अब भी रहें, घाटे की खेती-बाड़ी के उन्हीं पिछले दिनों में लौट जायें. लेकिन, तब यह आंदोलन अपनी यात्रा में वहां पहुंच जायेगा जहां लिखा होगा कि `आगे रास्ता बंद है`. हरित-क्रांति से जिस तर्ज की खेती-बाड़ी की शुरूआत हुई उसे आर्थिक, पर्यावरणीय और अस्तित्वगत संकटों ने घेर लिया है. ऐसा कोई रास्ता नहीं कि देश के बाकी हिस्सों में भी हरित-क्रांति की राह हमवार की जाये. तो, आत्म-पहचान की प्राप्ति के साथ-साथ खेती-बाड़ी के नये तर्ज और ढंग के बारे में भी सोचने-सीखने की सलाहियत आनी चाहिए. नये तर्ज की खेती के बारे में सोचते हुए ध्यान रखा जाना चाहिए कि छोटी जोत की खेती लाभकर साबित हो, भूमिहीन किसान और पट्टेदारी पर खेती करने वाले किसानों को मेहनत का न्यायसंगत हिस्सा मिले, सहकारी खेती को बढ़ावा मिले, खेती-बाड़ी के ऐसे तौर-तरीकों का इस्तेमाल हो कि पर्यावरणीय लिहाज से वे टिकाऊ साबित हों— घटते भूजल-स्तर, भूमि-अपक्षरण और रसायनों से संदूषित खाद्यान्न से हमारा बचावा हो सके. अपनी जय-यात्रा में पहली जीत का पताका फहरा चुके किसानों को हिन्दुस्तान में खेती-किसानी के भविष्य का नया घोषणा-पत्र लिखना होगा.


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ऐतिहासिक एकता

इस आंदोलन की दूसरी बड़ी उपलब्धि है भारतीय किसानों के बीच एकजुटता का अभूतपूर्व भाव स्थापित करना. बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में, किसान-आंदोलनों की शुरुआत से ही किसानों की लामबंदी की राह में कई अड़चनें आती रहीं—किसान-आंदोलन के बीच जलवायु, फसल और तबकाती मसलों पर गहरे विभाजन तो थे ही, साथ ही, भाषागत, क्षेत्रगत और जाति-धर्म के आधार पर भी बंटवारे थे. यह आंदोलन किसानों के बीच मौजूद भेद की इन लकीरों को पूरी तरह लांघ तो नहीं सकाः क्षेत्रवार, वर्गवार और जातिवार आंदोलन की लामबंदी समरूप नहीं रही तो भी जज्बातों की जमीन पर इस आंदोलन ने किसानों को जिस तरह एकजुट बनाये रखा वैसा अब से पहले कभी नहीं हो पाया था. आंदोलन ने हरियाणा बनाम पंजाब, हिन्दू बनाम मुस्लिम और जाट बनाम गैर-जाट की भेद की लकीरों को जिस तरह लांघा वह हमने विरले ही होते देखा है. राष्ट्रीय राजनीति के रंगमंच पर इस बार महिला किसानों ने जैसी दस्तक और धमक दर्ज की वैसा पहले कभी ना हुआ था. और, इस आंदोलन ने साझेपन का एक मंच संयुक्त किसान मोर्चा को भी गढ़ा है— जो भारतीय किसानों का अबतक का सबसे बड़ा संयुक्त मोर्चा है.

अब चुनौती इस एकता को पुख्ता करने और उसके आधार पर आगे की राह तैयार करने की है. हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा का जन्म तीन कृषि-कानूनों के खिलाफ संघर्ष के तात्कालिक मंच के रूप में हुआ लेकिन इस मंच को बचाये रखना होगा, इसे बिखरने और भंग होने नहीं दिया जा सकता, ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए. संयुक्त किसान मोर्चा आज देश के सभी किसानों की आवाज बनने की ऐतिहासिक जिम्मेवारी निभा रहा है. मोर्चा राज्यों और जिलों में अपनी प्रशाखाएं खोलने-चलाने का निर्णय कर चुका है. राज्यवार और जिलावार बनी संयुक्त किसान मोर्चा की प्रशाखाओं से लामबंदी के मामले में मौजूद क्षेत्रगत असमानताओं को दूर करने में मदद मिलेगी. संयुक्त किसान मोर्चा के सहारे मौजूदा आंदोलन की उन मांगों को लेकर संघर्ष जारी रखना होगा जो अब भी पूरा किये जाने के इंतजार में हैं. किसान-आंदोलन की भावी-कार्ययोजना में उन तमाम किसानों के मसलों को जगह देनी होगी जो अब भी किसानों के मुद्दे की कतार में बहुत पीछे हैं, जैसे भूमिहीन, बंटाईदार, आदिवासी और महिला किसान.

सियासी वज़न

किसानों की तीसरी और निर्णायक जीत यह हुई है अब किसान और किसानों के साथ हर कोई जान गया है उनका(किसानों का) सियासी वज़न कितना है. भारतीय किसान की हालत एक मायने में हिन्दू धर्म कथाओं में मौजूद हनुमान जैसी हैः हनुमानजी हैं तो परम शक्तिशाली लेकिन अपनी ताकत को उस घड़ी तक भूले रहते हैं जिस घड़ी तक कोई उन्हें याद ना दिला दे. इस आंदोलन के बाद यह स्थिति बदल गई है. आंदोलन ने देश की राजनीति की बागडोर संभालने वालों को साफ स्वर में संदेश दे दिया है कि: किसानों से पंगा मत मोलिए. जैसे साल 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हुई हार ने किसानों को कुछ महीनों के लिए सियासी रंगमंच के केंद्र में स्थापित कर दिया था उसी तरह इस आंदोलन ने राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर किसानों के कद और वजन को ऊंचा और मजबूत किया है, उसे पायेदार बनाया है. आगे आने वाले लंबे समय तक इसके फायदे होने हैं.

असल सवाल है: किसान अपनी नई-नवेली ताकत का इस्तेमाल किन बातों में करें ? अगर इस ताकत का इस्तेमाल निजी चुनावी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने जैसी तुच्छ बातों में किया जाता है तो यही माना जायेगा कि हथौड़े का इस्तेमाल मूंगफली तोड़ने में हो रहा है. किसानों को अपनी ताकत और ऊर्जा किसी बड़ी चीज में लगानी चाहिए, मसलन किसानों की ऊर्जा इस बात में लगे कि सियासी पार्टियों के चुनावी अजेंडे में खेती-किसानी का मसला शीर्ष पर रहे, किसानों की ताकत इस बात में लगनी चाहिए कि चुनावी वादे सरकारी नीतियों की शक्ल लें और नीतियां ऐसी बनें कि उनसे किसानों का फायदा हो. पूरा करने को अभी एक बड़ा मकसद हाथ में है. भारत में सिर उठाते अधिनायकवाद के खिलाफ किसान-आंदोलन एक पुरजोर ताकत बनकर उभरा है. किसान-राजनीति की ऐतिहासिक जिम्मेदारी सिर्फ खेती-किसानी करने वालों के लिए आर्थिक फायदे हासिल करना नहीं बल्कि यह जिम्मेदारी लोकतंत्र, संघवाद और देश की एकता को बचाने की है.

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के सदस्य हैं और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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