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Wednesday, 20 November, 2024
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क्यों दिल्ली में AAP की ‘डबल इंजन’ जीत से बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है, TMC का उदाहरण सामने है

टीएमसी के राजनीतिक वर्चस्व और केएमसी पार्षदों के अपनी जिम्मेदारी निभाने के बीच की कड़ी को समझने के लिए हमने सितंबर 2021 से मार्च 2022 के बीच कोलकाता के 20 वार्डों का सर्वेक्षण किया.

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जबर्दस्त सियासी गहमागहमी से बीच दिल्ली नगर निगम के चुनाव आम आदमी पार्टी को बहुमत हासिल होने के साथ सम्पन्न हो गए. इस जीत के साथ आप को भी एक ‘डबल इंजन’ सरकार चलाने का मौका मिला है, जो ऐसा शासन प्रारूप है जिसकी मौजूदा समय में खासे उत्साह के साथ चर्चा की जाती है.

सिर्फ दिल्ली ही नहीं, पूरे देशभर के मतदाता प्रशासन के दो स्तरों पर एक ही सियासी दल के शासन को खासी अहमियत देते हैं. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के वर्चस्व वाले कोलकाता नगर निगम (केएमसी) में पिछले 10 सालों से इसी तरह की ‘डबल इंजन’ व्यवस्था लागू है. हालांकि, तथ्य यह भी है कि खासी लोकप्रियता के बावजूद यह ‘डबल-इंजन’ जगरनॉट नागरिक निकायों को संविधान की 12वीं अनुसूची में निहित बुनियादी सेवा प्रदान करने संबंधी उसके कर्तव्यों से दूर कर सकता है. क्योंकि इससे स्थानीय नगरपालिका प्रशासन अपना ध्यान उन क्षेत्रों पर केंद्रित कर सकता है जो राज्य सरकार की प्राथमिकता में शुमार हों और अपने वार्डों के लिहाज से महत्वपूर्ण मुद्दों की उपेक्षा कर सकता है. यह भारत के संघीय ढांचे को कमजोर कर सकता है और विपक्ष के कुशल पार्षदों को नुकसान पहुंचाने वाला साबित हो सकता है.

टीएमसी ने अपनी स्थिति कैसे मजबूत की

केएमसी का पिछला चुनाव 2021 के अंत में हुआ था जिसमें टीएमसी ने 144 वार्डों में से 134 पर जीत हासिल की. हालांकि, इस भारी जीत का जलापूर्ति, जल निकासी, सड़क की सफाई और कचरा प्रबंधन जैसी बुनियादी सेवाओं में किसी महत्वपूर्ण सुधार से कोई बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं था. पश्चिम बंगाल में टीएमसी की लोकप्रियता के स्तर—जो कि खासकर कुशल कोविड-19 प्रबंधन के कारण भी काफी बढ़ी थी—का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसे राज्य विधानसभा चुनावों में उल्लेखनीय सफलता मिली थी. इसी लोकप्रिय लहर ने केएमसी चुनावों में भी टीएमसी को फायदा पहुंचाया.

राजनीतिक वर्चस्व और केएमसी पार्षदों की तरफ से अपनी जिम्मेदारियों के पालन के बीच की कड़ी को समझने के लिए हमने सितंबर 2021 से मार्च 2022 के बीच कोलकाता में 20 वार्डों के सबसे गरीब बहुल क्षेत्रों, या झुग्गियों का सर्वेक्षण किया. 2021 में सर्वेक्षण वाले इन सभी वार्डों में टीएमसी जीती थी. 2015 में चार केएमसी वार्डों में नाकाम रही टीएमसी 2021 में यहां भी जीत हासिल करने में सफल रही. हालांकि, यह जीत उसे आवश्यक बुनियादी सेवाओं में सुधार के कारण नहीं मिली थी.


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राजनीतिक अधिकार अधिक तो सुविधाएं कम

अधिकांश झुग्गी निवासियों ने कहा कि जलापूर्ति की स्थिति वस्तुतः पांच वर्षों में समान रही है—72 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने माना कि यह पहले जैसी ही थी, 21 प्रतिशत ने मामूली सुधार महसूस किया, और 7 प्रतिशत ने कहा कि इसमें गिरावट आई है. 43 प्रतिशत झुग्गीवासियों के लिए जल निकासी सेवाएं जस की तस रहीं, जबकि 11 प्रतिशत ने इसमें कमी आने की बात कही. 84 प्रतिशत झुग्गीवासियों ने कहा कि कचरा प्रबंधन सेवाएं पहले जैसी ही रहीं, जबकि अन्य ने पांच वर्षों में मामूली सुधार महसूस किया. इसके अलावा, जिन वार्डों में टीएमसी अधिक अंतर से जीती थी, वहां झुग्गीवासियों को अपर्याप्त जलापूर्ति की शिकायतें अधिक रहीं.

2011 में उन्हीं झुग्गियों में किए गए तीर्थंकर नाग और मेरे एक अध्ययन—2016 में डेवलपमेंट पॉलिसी रिव्यू में प्रकाशित हुआ—ने एकदम उलट नतीजे दर्शाये थे, जिसका मतलब था कि केएमसी चुनावों में जिस वार्ड में सफल उम्मीदवार की जीत का अंतर जितना अधिक था, झुग्गीवासियों ने पानी की कमी की शिकायत उतनी ही कम की. पुराने और मौजूदा अध्ययन के नतीजों में इस विरोधाभास को 2021 की तुलना में 2011 में पश्चिम बंगाल और केएमसी दोनों में टीएमसी के कम राजनीतिक प्रभुत्व से जोड़कर देखा जा सकता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि जब किसी राज्य में किसी पार्टी का राजनीतिक दबदबा हो तो उसी के वर्चस्व वाले कॉरपोरेशन में सुविधाएं घट जाती हैं.

महामारी के बाद की अवधि में मलिन बस्तियों में रहने वालों को महंगाई के कारण भारी झटका लगा. भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक, 2019-20 और 2021-22 के बीच शहरी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 12.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. कुल मिलाकर मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों ने महामारी से पहले (मार्च 2019 से पूर्व) की तुलना में महामारी के बाद (सितंबर 2021-मार्च 2022) की अवधि के दौरान खर्चों में 19 फीसदी की वृद्धि का अनुभव किया. कुल मिलाकर लगभग सभी परिवारों के मासिक उपभोग व्यय (न्यूनतम) में वृद्धि हुई. हालांकि, महंगाई के मद्देनजर लगभग 30 प्रतिशत परिवारों में वास्तविक समग्र उपभोग व्यय घट गया.

दिलचस्प बात यह है कि वास्तविक खपत उन वार्डों में कम घटी जहां टीएमसी का वर्चस्व अधिक था. कहने का आशय है कि पार्षदों को अधिक फायदा तब हुआ जब बुनियादी सेवाएं प्रदान करने के बजाये झुग्गीवासियों की उपभोग खपत संबंधी जरूरतें पूरी की गईं.

साफ है कि टीएमसी पार्षद राज्य सरकार के सहयोग से गरीबों की खपत संबंधी जरूरतें पूरी करने की बेहतर स्थिति में थे. महामारी के दौरान भोजन और रोजगार मुहैया कराया गया, जिसके बदले में टीएमसी पार्षद अपनी जीत सुनिश्चित कर सकते थे. यहां तक कि अगर कोई टीएमसी पार्षद बहुत सक्रिय नहीं था, तो भी उन्हें राज्य सरकार की तरफ से मदद का लाभ मिलता रहा. जबकि किसी दूसरे राजनीतिक दल के पार्षदों के लिए इसी तरह का राजनीतिक लाभ उठाना लगभग असंभव था, भले ही वे कितने भी सक्रिय क्यों न रहे हों. यह किसी पार्षद की तरफ से अच्छी सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने को तो हतोत्साहित करता ही है, स्थानीय सरकारों की भूमिका को भी स्वशासी संस्थाओं के तौर पर सीमित करता है. इसी तरह, ‘डबल-इंजन’ राज्य सरकारें भी केंद्र सरकार के अधीन काम करके संघवाद के वास्तविक गुणों को ताक पर रख देती हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी )

(इंद्रनील डे आणंद, गुजरात स्थित ग्रामीण प्रबंधन संस्थान में सामाजिक विज्ञान और अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह @IndranilIndia पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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